दिल्ली विश्वविद्यालय पर CCS एवं ESMA थोपने की कोशिश?
पिछले कुछ सालों में लगातार सरकार उच्च शिक्षा और शिक्षण संस्थानों में एक के बाद एक परिवर्तन लाने की कोशिश करती रही है। इन सभी परिवर्तन का उद्देश्य उच्च शिक्षा का निजीकरण एवं व्यवसायीकरण रहा है। दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) एवं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) जैसे केंद्रीय विश्वविद्यालयों में छात्र एवं शिक्षक संघ द्वारा इसका लगातार विरोध हुआ। HEFA, HECI, ऑटोनोमी, फंड में कटौती का प्रावधान (70:30), त्रिपक्षीय MOU आदि का मुद्दा संयुक्त प्रतिरोध का कारण बना। इस सभी नीतियों का परिणाम अंततः गरीब, अनुसूचित जाति और जनजातियों एवं महिलाओं पर ही पड़ना है।
उच्च शिक्षा को बर्बाद करने की इसी कड़ी में अब केंद्र सरकार विश्वविद्यालयों पर केन्द्रीय कर्मचारियों पर लागू होने वाले सेवा नियम लगाने की कोशिश कर रही हैI दिल्ली विश्वविद्यालय को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने दो चिट्ठियाँ भेजीं जिनके निहितार्थ समझने के लिए इन्हें एक साथ रखकर पढ़ने की ज़रूरत है।
पहली चिट्ठी 1 मई 2018 को भेजी गयी। मई दिवस के दिन। मई दिवस मजदूर दिवस के लिए जाना जाता है। खत के अंतिम बिंदु को ध्यान से देखें। कहा गया है कि केंद्रीय कर्मचारियों के लिए जो सर्विस रूल यानी केन्द्रीय सिविल सेवाएँ (CCS) नियमावली है, उसे ही कॉलेज एवं विश्वविद्यालय के शिक्षकों पर भी लागू करने का प्रावधान किया जाए।
दूसरी चिट्ठी 4 अक्टूबर की है, जिसमें एक कमेटी का गठन किया गया है। कमेटी को एक महीने में रिपोर्ट देने के लिए कहा गया है। इस कमेटी को समय बद्ध तरीके से इस बात पर रिपोर्ट देने का काम दिया गया है कि परीक्षा/पठन/पाठन/मूल्यांकन - इन सभी को एसेंशियल सर्विसिज़ मैनेजमेंट एक्ट (ESMA) के तहत लाने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के एक्ट में क्या परिवर्तन सुझाए!
मई महीने के खत के बाद भी अभी तक दिल्ली विश्वविद्यालय में CCS लागू नहीं हुआ। जबकि JNU में इसे लागू कर दिया गया है। इसलिए दिल्ली विश्वविद्यालय को नियमों परिवर्तन के लिए चिट्ठी नहीं भेजकर, एक कमेटी का गठन किया गया है, ताकि सीधे सरकार इसमें हस्तक्षेप कर बदल दे।
एक तरफ सरकार लगातार स्वायत्तता देने की बात कर रही है, फिर दूसरी तरफ CCS एवं ESMA को विश्वविद्यालय पर क्यों थोपना चाह रही है?
सरकार के तीन हिस्से हैं - व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। केंद्रीय कर्मचारी कार्यपालिका में आते हैं। कार्यपालिका की जिम्मेदारी है कि वह व्यवस्थापिका द्वारा तय की गई नीतियों, नियमों को लागू करे। केंद्रीय मंत्री, केंद्रीय सचिव से लेकर पटवारी तक की यह संरचना, जो कार्यपालिका का हिस्सा है इसके लिए अलग सेवा शर्त है। वही सेवा शर्त व्यवस्थापिका और न्यायपालिका के लिए नहीं है। ये तीनों इकाईयाँ एक दूसरे से जुड़ी भी हैं और स्वतंत्र भी हैं। विश्वविद्यालय को इन तीनों से अलग स्वतंत्र इकाई के तौर पर रखा गया। वैसे ही जैसे चुनाव आयोग।
तब सवाल यह है कि आखिर क्यों केंद्रीय कर्मचारियों के सर्विस रूल को विश्वविद्यालय के शिक्षकों के ऊपर थोपने की कोशिश की जा रही है? इससे पहले यह जानना ज़रूरी है कि केंद्रीय कर्मियों के सर्विस रूल आखिर क्या है? केंद्रीय कर्मचारी व्यवस्थापिका की नीतियों की सार्वजनिक आलोचना नहीं कर सकते, न ही वे उसका विरोध कर सकते। सरकार के फैसले के खिलाफ वे प्रदर्शन या धरना नहीं कर सकते। ऐसा करना दंडनीय अपराध है। अगर यही सर्विस रूल विश्वविद्यालय के शिक्षकों पर थोपा जाएगा तो स्वाभाविक है कि शिक्षक की भूमिका मात्र विश्लेषक की रह जाएगी। आलोचनात्मक विवेक जो विश्वविद्यालय की अवधारणा के मूल में है और यह स्वायत्तता के बिना नहीं बची रह सकती है। तब यह विचारणीय है कि आखिर मोदी सरकार आज क्यों विश्वविद्यालय एवं शिक्षकों की इस स्वायत्तता पर हमला कर रही है? इस सवाल का जवाब ढूँढने से पहले जान लें कि क्या है ESMA?
ESMA का अर्थ है अनिवार्य सेवाओं को बनाये रखने का अधिनियम। 1968 में यह कानून इसलिए लाया गया कि अनिवार्य सेवा, अर्थात ऐसी सेवा जिसके बिना जीवन के अंत का खतरा हो जाए, को चिन्हित किया जाए - जैसे चिकित्सा, ट्रांसपोर्ट, बिजली, पानी, आदि। इन सेवा क्षेत्रों में हड़ताल या काम में अवरोध पैदा करना गैरकानूनी माना गया। यह कानून अभी तक बहुत कम इस्तेमाल में लाया जाता रहा है। अलग-अलग राज्यों में इसे सरकार अपने हिसाब से लागू करती रही हैं। इस कानून के तहत हड़ताल या काम में रुकावट पैदा करने वाले को बिना वारंट गिरफ्तार किया जा सकता है, कारावास से लेकर जुर्माना तक या फिर दोनों एक साथ लगाया जा सकता है। उच्च शिक्षा का क्षेत्र अभी तक इस अनिवार्य सेवा अधिनियम के दायरे से बाहर रहा है। तब यह सवाल है कि आखिर दिल्ली विश्वविद्यालय जो पार्लियामेंट के अधिनियम से बना है उसमें परिवर्तन लाने और परीक्षा/पठन/पाठन/मूल्यांकन को अनिवार्य सेवा बनाये रखने वाले अधिनियम में लाने का उद्देश्य क्या है?
डूटा ने FEDCUTA एवं AIFUCTO को साथ लाकर देशभर के शिक्षकों को संगठित करने और शिक्षा के सवाल पर राष्ट्रीय स्तर के संघर्ष की रूपरेखा तैयार की है। सरकार की कई कोशिशों के बाद भी दिल्ली विश्वविद्यालय एक्ट और शिक्षक-छात्र आंदोलन लगातार रुकावट का काम करते रहे हैं। इन दोनों रुकावटों को दूर करने के लिए CCS और ESMA को लागू करने का यह मोदी सरकार का अविवेकपूर्ण प्रयास है। यह सरकार की उच्च शिक्षा में असफलता को छिपाने और उसकी निजीकरण-व्यवसायीकरण का हताशा वाला प्रयास है। आज जब शिक्षकों की भर्तियाँ रुकी पड़ी हैं, पेंशन के लिए रिटायर्ड शिक्षक सालों से फैसले की बाट जोह रहे हैं, प्रमोशन दिवास्वप्न बन गया है, लगातार शोध के लिए सीटें कम हो रही हैं, अनवरत रिफॉर्म के कारण शैक्षणिक माहौल और सिलेबस अस्त-व्यस्त हैं - तब सकारात्मक हस्तक्षेप के बजाय इन नकारात्मक कानून को लादने की राजनीति को समझने की ज़रूरत है।
शिक्षक-छात्र-कर्मचारी का साझा आंदोलन जनता को लामबंद कर इस शिक्षा विरोधी कार्यवाही का करारा जवाब देगा।
(केंद्र सरकार को अपने इस कदम के लिए शिक्षकों और छात्रों का भरसक विरोध झेलना पड़ाI और मजबूरन ESMA सम्बन्धी आदेश को वापस लेना पड़ाI यह लेखक के लेख लिखने के बाद हुआI)
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