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दिल्ली पुलिस की 2020 दंगों की जांच: बद से बदतर होती भ्रांतियां

परसा वेंकटेश्वर राव जूनियर लिखते हैं कि दिल्ली पुलिस द्वारा  तैयार की गयी फ़रवरी 2020 के दिल्ली सांप्रदायिक दंगों से जुड़ी भ्रमित करने वाली घटिया एफ़आईआर और चार्जशीट केंद्रीय गृह मंत्री की ओर से की गयी घटनाओं की राजनीतिक व्याख्या से प्रेरित हैं।
दिल्ली पुलिस की 2020 दंगों की जांच: बद से बदतर होती भ्रांतियां

आमतौर पर लोगों में यह धारणा है कि भारतीय पुलिस प्रशासन में प्राथमिकी (FIR) के खरेपन को लेकर बिल्कुल ही भरोसा नहीं किया जा सकता है। प्राथमिकी तथ्यों की शुरुआती रिपोर्टिंग से सम्बन्धित होती है और शिकायतकर्ता के कहने के आधार पर या किसी-किसी मामले में पुलिस ने पहली बार में जो कुछ सूचनायें इकट्ठा की होती हैं, उस पर आधारित होती है।

प्राथमिकी के आधार पर बाद में दायर किये जाने वाले मामलों की मज़बूती उस छानबीन पर निर्भर करती है, जिसके साथ पुलिसकर्मी तथ्यों को दर्ज करते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह कि शिकायतकर्ता आमतौर पर उस समय उत्तेजित होते हैं और जब वे शिकायत करते हैं, तो उनकी ओर से तथ्यों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की संभावना ज़्यादा होती है।

इसके बाद हम उस चार्जशीट पर आते हैं, जिस आधार पर अदालत में मुकदमा चलाया जाना होता है। यहां भी पुलिस भारतीय दंड संहिता (IPC) और दूसरे आपराधिक क़ानूनों के तहत आने वाली धाराओं के बहुत सारे पहलू को शामिल करने के रवैये को इस ग़लत धारणा के तहत रख देती है कि ज़्यादा से ज़्यादा अपराध को शामिल कर लेने से अभियोजन पक्ष के मामले को मज़बूती मिलेगी।

यह एक सराहनीय रणनीति है, लेकिन अगर आरोप और तथ्य एक साथ मेल नहीं खाते, तो यह काम नहीं कर पाता है। जब तक अदालत किसी व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराती तब तक आरोप कथित अपराध ही बने रहेंगे।

दंगों की जांच को लेकर दिल्ली की अदालतों की हालिया टिप्पणियां

कड़कड़डूमा ज़िला न्यायालय के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (ASJ) विनोद यादव ने 28 अगस्त को अपने आदेश में अभियोजन पक्ष की तरफ़ से बरते जा रहे घटियेपन का ज़िक़्र किया था। जांच करने वाले पुलिस अधिकारी सुनवाई के दिनों में अदालत में या वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के ज़रिये उपस्थित नहीं हुए थे, ठीक से सुबूत भी नहीं जुटाये गये थे, मामलों को लेकर लोक अभियोजकों (PP) को पर्याप्त निर्देश भी नहीं दिये गये थे और पीपी को चार्जशीट का महज़ एक पीडीएफ़ संस्करण भेज दिया गया था, जिसके आधार पर उन्हें बहस करना था। यह मामला दंगों में आरोपी के रूप में दो लोगों पर मामला दर्ज किये जाने से सम्बन्धित है।

जहां उन्होंने दिल्ली पुलिस की जांच के मानक को "बहुत ख़राब" और चार्जशीट को "आधा-अधूरा" बताया था, वहीं एएसजे ने कहा था कि शुरुआती चरण में अदालत को क़ानूनी रूप से चार्जशीट की सख़्ती से जांच करने और इस मामले की कमी-वेशी को लेकर निर्णय लेने की अनुमति नहीं है, बल्कि सिर्फ़ यह जांच करने की ज़रूरत है कि क्या प्रथम दृष्टया यह मामला बनता है। उन्होंने बचाव पक्ष की इस दलील को खारिज कर दिया था कि आरोपियों को झूठे तरीक़े से फ़ंसाया गया था।

एएसजे यादव ने एक प्राथमिकी के तहत एक आरोपी का बयान लेने और दूसरी प्राथमिकी के तहत दर्ज मामले में इसका इस्तेमाल करने को लेकर एक बार फिर से पुलिस की खिंचाई की थी। एक दूसरे मामले में तीन लोगों-मोहम्मद शादाब, राशिद सैफ़ी और शाह आलम को एक अलग प्राथमिकी के तहत इसलिए आरोपित किया गया था क्योंकि अदालत ने पहले की एक प्राथमिकी के तहत इन सबको आरोपमुक्त कर दिया था। अदालत ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 300 और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 के तहत उस "दोहरे संदेह" के सिद्धांत का हवाला दिया, जिसके ज़रिये किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार दंडित नहीं किया जा सकता है।

मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट अरुण कुमार गर्ग ने 6 सितंबर को दिल्ली पुलिस को अपनी जांच पूरी करने के लिए उचित कार्रवाई करने का निर्देश दिया ताकि दंगों से जुड़े मामलों की सुनवाई आगे बढ़ सके। उन्होंने कहा कि "डीसीपी और उससे ऊपर के रैंक तक के निगरानी अधिकारियों सहित जांच एजेंसी का ढुलमुल रवैया" अदालत को इस मामले पर फ़ैसला करने से रोक रहा है और आरोपी एक साल से ज़्यादा समय से जेल में बंद है।

हालांकि, ये कुछ चंद उदाहरण हैं जो साफ़ तौर पर दिल्ली दंगों के मामलों में पुलिस जांच की कमी को सामने रख देते हैं (उसी को ज़्यादा विस्तार से यहां द लीफ़लेट रखने की कोशिश कर रहा है), ऐसे में राजनीतिक लिहाज़ से विचार करना उचित है।

केंद्रीय गृह मंत्री शाह ने इन दंगों का ठीकरा किसके माथे फोड़ा?

ये दंगे तब हुए थे, जब संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अहमदाबाद का दौरे पर थे और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह गुजरात की राजधानी में थे। उन्होंने मार्च, 2020 में राज्यसभा में दंगों पर हुए चर्चाओं के जवाब में दिये गये अपने एक बयान में कहा था कि उपद्रवियों ने उत्तर प्रदेश से आकर तबाही मचायी थी और उन्होंने कस़म खायी थी कि प्रशासन दंगाइयों को पाताल से भी बाहर निकाल लेगा और पीड़ितों को इंसाफ़ दिलायेगा। शाह ने इस बात की ओर इशारा किया था कि ये दंगे भारतीय और विदेशी संगठनों की ओर से रची गयी साज़िश का नतीजा थे और इसके लिए सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों को दोषी ठहराया था।

चूंकि उनका वह बयान ऐसे समय में आया था जब दिल्ली पुलिस की जांच अपने शुरुआती चरण में थी, ऐसा लगता है कि पुलिस को शाह के इस बयान के मुताबिक़ ही मामले को आगे बढ़ाना था। यानी पुलिस को यह रुख़ अख़्तियार करना था कि एक तो दंगा करने वाले सीएए विरोधी थे और दूसरा कि वे बाहरी लोग थे।

सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों का एक बड़ा हिस्सा मुसलमानों का था क्योंकि सीएए भारतीय नागरिकता चाहने वाले कुछ पड़ोसी देशों के मुसलमानों को लेकर ख़ास तौर पर भेदभावपूर्ण है। यह एक ऐसा आरोप है,जिसका शाह और केंद्र सरकार ने बार-बार ज़ोरदार खंडन किया है।

दंगों के दौरान जान-माल को भारी नुक़सान पहुंचाया गया था और मारे गये लोगों में ज़्यादातर मुसलमान थे। इसके बावजूद, यह दिखाना था कि यह मुसलमान बदमाश ही तो थे जिन्होंने मुसलमानों की संपत्ति को नष्ट कर दिया और सरकार को बदनाम करने के लिए मुसलमानों को मार डाला।

दिल्ली पुलिस दिल्ली सरकार के बजाय केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन काम करती है। जांच में फैले भ्रम और इसके चलते जो घटियापन आया है,इसके लिए शायद केंद्रीय गृह मंत्री शाह की इस सोच को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है कि दंगे सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों की करतूत थी,जो स्वाभाविक रूप से मुसलमान थे।

यह भी ग़ौर करने वाली बात है कि दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल ने दिल्ली सरकार की ओर से नियुक्त लोक अभियोजकों को पिछले साल इस मामले को आगे बढ़ाने की इजाज़त नहीं दी थी, बल्कि दिल्ली पुलिस (इसकी जगह केंद्रीय गृह मंत्रालय भी पढ़ा जा सकता है) की ओर से चुनी गयी टीम को मंज़ूरी दी थी।

दंगों में दिल्ली पुलिस की जांच की साफ़-साफ़ दिखती गड़बड़ियों के अलावा जांच पर थोपी गयी अवधारणा दंगों के इन मामलों को 'भ्रम से भी बदतर' बना दे रही है।

(परसा वेंकटेश्वर राव जूनियर दिल्ली के एक वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक टिप्पणीकार और कई किताबों के लेखक हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Delhi Police’s 2020 Riots Probe: Confusion Worse Confounded

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