क्या भारत को निवेशकों की रक्षा करने के लिए एकल नियंत्रक व्यवस्था की ज़रूरत है?
सभी बाज़ार नियंत्रकों को एक संस्था के तहत लाना अच्छा विचार है। दूसरे देशों में भी एकल नियंत्रक हैं। लेकिन क्या यह विचार भारत जैसी बढ़ती जटिल अर्थव्यवस्था के लिए सही है। ऐश्वर्या मेहता का मानना है कि भारत के संदर्भ में यह व्यवस्था सही नहीं है।
निवेशक किसी प्रतिभूति बाज़ार (सिक्योरिटीज़ मार्केट) का सबसे मजबूत हिस्सा होते हैं। उन्हें इस बाज़ार का मुख्य आधार माना जाता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि निवेशक द्वितीयक बाज़ार और वैश्विक अर्थव्यवस्था की गतिविधियों को प्रभावित करते हैं। जब हम "निवेशकों की सुरक्षा" शब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो उसमें वृहद स्तर पर ऐसे तरीके शामिल होते हैं, जिनका इस्तेमाल निवेशकों को कंपनियों, व्यापारिक बैंकिंग से जुड़े लोगों और प्रतिस्पर्धियों के गलत व्यवहार से बचाने के लिए किया जाता है।
निवेश पर वापसी की दर और बाज़ार कीमतों की अनियमित्ताएं, स्टॉक बाज़ार में निवेशकों के प्रवेश में बाधा का काम करती हैं। प्रतिभूतियां जारी करने संबंधी, बाज़ार संचालन और शिकायत निवारण ढांचे से संबंधित चीजों की जरूरी जानकारी तो सार्वजनिक होती है, लेकिन कोई ऐसा विशेष नियंत्रक नहीं होता, जो निवेशकों को निश्चित लाभांश और पूंजी वृद्धि की गारंटी दे सके।
भारत में क्षेत्र विशेष के लिए अलग-अलग नियंत्रक हैं, जो कई मुद्दों पर निवेशकों में उलझन पैदा करते हैं। भारत के प्रतिभूति बाज़ार में यह नियंत्रक हैं:
1) SEBI एक्ट, 1992
2) डिपॉजिटरी एक्ट, 1996
3) कंपनी एक्ट, 2013
4) सिक्योरिटीज़ कांट्रेक्ट (रेगुलेशन) एक्ट, 1956
5) प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट, 2002 (PMLA)
6) क्षेत्र विशेष के नियामक तंत्र के हिसाब से निवेशकों के अधिकार और समस्या निवारण
7) अस्पष्ट विज्ञापन से सुरक्षा
कंपनियों द्वारा विज्ञापन के लिए जारी की गई सामग्री अक्सर छपे हुए पत्रकों में आती है, जिनमें जनता से ऋणपत्रों (डिबेंचर्स) को खरीदने की अपील की जाती है। लेकिन प्रचार-प्रसार के लिए इस्तेमाल की गई यह सामग्री, प्रस्ताव पत्र का हिस्सा नहीं होती। निवेशकों की उन दस्तावेज़ों के बारे में शिकायतें हो सकती हैं, जिनमें कॉरपोरेशन की उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया हो।
कंपनी की प्रचारक सामग्री हमेशा कुछ इस तरह की चीजों का उल्लेख करती है- "यह जानकारी सिर्फ़ एक घोषणा है, इसे प्रस्ताव पत्रक ना माना जाए" या "यह जानकारी सिर्फ़ निजी वितरण के लिए है।" लेकिन फिर भी अगर अस्पष्ट विज्ञापन जारी किए जाते हैं, तो कोई भी निवेशक कानून का सहारा ले सकता है।
कंपनीज़ एक्ट 2013 की धारा 36 के तहत, कोई भी निवेशक 'उद्योग मामलों के मंत्रालय' को भ्रमित करने वाली प्रसारक सामग्री के बारे में शिकायत दे सकता है। निवेशक, उपभोक्ता फोरम के सामने भी शिकायत कर सकता है। यहां SEBI कानून अस्पष्ट विज्ञापन के खिलाफ़ निवेशकों को अधिकार देता है।
8) विवरण पत्रक में अधूरी जानकारी
कई बार निवेशकों को अपने फ़ैसले कंपनी द्वारा प्रदान किए गए विवरण पत्रक में उपलब्ध जानकारी के आधार पर लेने पड़ते हैं। निवेशकों के पास, विवरण पत्रक में गलत जानकारी के आधार पर कंपनीज़ एक्ट की धारा 34 और 35 के तहत मुआवज़ा मांगने का अधिकार है। इस तरह के मामलों में MCA और SEBI के पास आवेदन भेजे जा सकते हैं।
9) प्रतिभूतियों के हस्तांतरण को टालना
अपने किसी शेयर या ऋणपत्र की बिक्री किसी निवेशक का बुनियादी अधिकार माना जाता है। इस बात की संभावना होती है कि शेयर या ऋणपत्र को जारी करने में संबंधित संस्थान की तरफ से देर कर दी जाए, जिससे निवेशक को बोनस, अधिकार, लाभांश आदि का नुकसान उठाना पड़े। इस तरह की अनियमित देरी के खिलाफ़ निवेशक, 'कंपनीज़ एक्ट, 1956' की धारा 111 और 113 का सहारा ले सकता है और 'कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (CLT)', SEBI व MCA में आवेदन लगा सकता है।
10) ऋणपत्र पर ब्याज़ देने में देरी
ऐसे कुछ मामले हुए हैं, जहां निवेशकों ने बाज़ार नियंत्रकों की ऋणपत्र रसीद और प्रमाणपत्र में होने वाली देरी के आधार पर आलोचना की है। कंपनीज़ एक्ट, 2013 की धारा 118 और 119 के मुताबिक़, निवेशकों के पास अपनी प्रतियां हासिल करने का अधिकार है। एक निवेशक कंपनीज़ एक्ट की धारा 271 और 272 के तहत कोर्ट भी जा सकता है।
उपरोक्त मुद्दों और उनके समाधानों के अलावा, निवेशकों को कई दूसरी समस्याएं, जैसे- प्रतिभूतियों के सूचीबद्ध होने में अनिश्चित देरी, आंवटन पत्रों के जारी होने में देरी, प्रतिभूतियों को भेजने में गैरजरूरी देरी और लाभांश की अदायगी ना करने जैसी दिक्कतों का सामना भी करना पड़ता है। इन सभी समस्याओं के निदान के लिए कोई निवेशक, कंपनीज़ एक्ट के अलग-अलग प्रावधानों का सहारा ले सकता है और SEBI तक अपनी बात लिखित में पहुंचा सकता है।
2021 का बजट और एकल प्रतिभूति बाज़ार कोड (सिंगल सिक्योरिटीज़ मार्केट कोड)
हाल में सरकार ने 'एकल प्रतिभूति बाज़ार कोड' के तहत, प्रतिभूति कानून के समग्र ढांचे की घोषणा की है। यह कोड, SEBI अधिनियम, (1992), डिपॉज़िटरीज़ एक्ट (1996), सिक्योरिटीज़ कांट्रेक्ट्स (रेगुलेशन) एक्ट, 1956 और सरकारी प्रतिभूति अधिनियम (2007) के वैधानिक प्रावधानों को मिलाकर बनाया गया है।
कई नियामक तंत्रों ने उलझन पैदा कर दी थी. क्योंकि किसी निवेशक को अपने मुद्दों के समाधान के लिए कई प्राधिकरणों के पास जाना पड़ता था। निवेशकों का विश्वास एक ऐसे बाज़ार में ज़्यादा मजबूत किया जा सकता है, जहां उनकी समस्याओं का तेजी से और एक ही जगह समाधान हो जाए।
एकल प्रतिभूति बाज़ार कोड यह तय करेगा कि नियमित संचालन में कोई भी अस्पष्ट क्षेत्र ना हो। एकल नियंत्रक होने से निवेशक को यह भरोसा भी होता है कि भले ही उनकी समस्या कैसी भी हो, समाधान के लिए संबंधित नियंत्रक ही एकमात्र प्राधिकरण है।
क्या भारत में अलग-अलग नियंत्रक तंत्र ज़्यादा प्रभावी है?
भारत जैसे विकासशील देश में नियंत्रक क्षेत्र इतना विकसित नहीं हुआ है कि वह सारे हस्तक्षेपों से मुक्त रह सके। अलग-अलग नियंत्रकों को एकसाथ लाकर अनुपालन मूल्य और दावेदारों के बीच टकरावों को कम किया जा सकता है। लेकिन इससे अलग-अलग नियंत्रक क्रियाओं के बीच तुरंत सौहार्द्र और कुशलता नहीं बन जाएगी।
एक सिंगल सिक्योरिटीज़ मार्केट कोड भारत में कुशल साबित नहीं होगा क्योंकि ब्रिटेन की तरह की विकसित अर्थव्यवस्था के उलट, भारत में अलग-अलग बाज़ारों के उद्देश्य अलग-अलग हैं। उदाहरण के लिए, फ्यूचर कमोडिटी मार्केट का मुख्य ध्यान कीमतों को खोजने और प्रतिरक्षा पर होता है, लेकिन एक प्रतिभूति बाज़ार का प्राथमिक उद्देश्य पूंजी बनाने पर होता है।
एक विकासशील देश के लिए, नियंत्रकों के बीच प्रतिस्पर्धा अच्छी होती है क्योंकि यह उन्हें ज़्यादा कार्यकुशल और प्रभावी क्रियान्वयन की ओर बढ़ाती है। अमेरिका में सबसे बेहतर वित्तीय बाज़ार नज़र आता है, वहां भी अलग-अलग नियंत्रक हैं।
एकल नियंत्रक व्यवस्था में जवाबदेही की पारदर्शिता प्रशंसनीय होती है। लेकिन भारत में नियंत्रकों के पास पूंजी बाज़ार को विकसित करने की भी शक्ति है। उदाहरण के लिए, निवेशकों को प्रशिक्षित कर IRDA एक तेजतर्रार बीमा बाज़ार को बनाने के लिए जिम्मेदार है। इसी तरह FMC की ज़िम्मेदारी कमोडिटी फ्यूचर मार्केट को विकसित करने की है। इसलिए भारत को बहु-नियंत्रक तंत्र की जरूरत है, ताकि बाज़ार का विस्तार किया जा सके।
एकल प्रतिभूति बाज़ार कोड में सबसे बड़ी चिंता, मौजूदा तंत्र के अंतर को पाटने में नियंत्रकों की स्वतंत्रता से संबंधित है, जो अर्थव्यवस्था की बदलती जरूरत के हिसाब से ढलता रहा है, जिसमें नियंत्रकों के फ़ैसलों के न्यायिक परीक्षणों द्वारा संतुलन बनाया जाता रहा है।
किसी नियंत्रक पर जरूरत से ज़्यादा प्रतिबंध और संतुलन बनाने से उसे दी गई ताकत का क्षरण होता है। जब एकल प्रतिभूति बाज़ार कोड बन जाएगा, तब वित्तीय क्षेत्र अपीलीय प्राधिकरण को बनाने की जरूरत होगी। इस तरह की न्यायिक पीठ, एकल नियंत्रक संस्था पर और भी ज़्यादा लगाम लगाएगी।
अगर कोई नियंत्रक प्राकृतिक न्याय के बुनियादी सिद्धांतों का पालन करता हुआ नज़र नहीं आता, तो उसके खिलाफ़ हाईकोर्ट में रिट पेटिशन लगाई जा सकती है। तो सवाल उठता है कि आखिर संतुलन बनाने के लिए कितने कानून प्रावधान पर्याप्त होंगे?
कुछ लोग कहते हैं कि SEBI पहले से ही सिक्योरिटीज़ अपीलेट ट्रिब्यूनल (SAT) का हिस्सा है। इसलिए एकल प्रतिभूति बाज़ार कोड बनने के बाद दूसरे नियंत्रक भी इस ट्रिब्यूनल के अंतर्गत काम कर सकेंगे। इसमें तब तक कोई समस्या नहीं है, जब तक ट्रिब्यूनल किसी एकल नियंत्रक संस्था को उसके द्वारा लगाए गए जुर्माने के अनुपात और आकार पर सवाल नहीं करता। लेकिन तब क्या होगा, जब ट्रिब्यूनल आगे जाकर किसी नियंत्रक की नीतियों और उसके क्रियान्वयन में हस्तक्षेप करने लगेगा?
मैं इससे सहमत हूं कि हमें अपने कानूनों में सुधार करने की जरूरत है, ताकि नियंत्रकों की तरफ से आने वाली बाधाएं कम हों। लेकिन एक विकासशील देश में एकदम नया तंत्र नहीं अपनाया जा सकता। अलग-अलग अर्थव्यवस्थाओं में नियामक ढांचा उनकी व्यक्तिगत जरूरतों के हिसाब से होता है। कोई भी नियंत्रक तंत्र पूरी तरह "सटीक" नहीं होता।
किसी नियंत्रक का मुख्य काम, किसी अर्थव्यवस्था में मौजूद नीतिगत-नियामक ढांचे के भीतर ही अपने संचालन का तरीका जानना है। कई नियंत्रक होने का फायदा यह है कि वे सभी अपने क्षेत्रों में उत्कृष्टता बना सकते हैं। कुलमिलाकर यह कहना सही होगा कि एकल प्रतिभूति बाज़ार कोड लाने के घाटे, उसके फायदों से ज़्यादा हैं।
(ऐश्वर्या मेहता, महाराष्ट्र नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, नागपुर में क़ानून की चौथे साल की छात्रा हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)
साभार: द लीफ़लेट
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