तालिबान सरकार के साथ व्यापार
अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति के संबंध में पिछले गुरुवार को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की चर्चा का सबसे बेहतरीन हिस्सा काबुल में तालिबान सरकार की जवाबदेही के मामले में रूसी और चीनी राजदूतों की स्पष्ट टिप्पणी थी, जिसमें रेखांकित किया गया कि एक साल पहले नाटो के कब्जे से मुक्त होने के बाद देश के हालात काफी संकट में है।
इसकी एक मार्मिक सी पृष्ठभूमि है। अफ़ग़ानिस्तान से पैर खींचने के कुछ ही समय बाद, नाटो (उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन) जो यूरोप में पहले से ही एक और छद्म युद्ध में डूबा हुआ था, और नाटो गठबंधन, अमेरिका के इशारे पर, आर्कटिक की तरफ बढ़ रहा था ताकि रूस और चीन की “ध्रुवीय क्षेत्र के बारे में बड़ी योजनाओं का मुकाबला किया जा सके।“
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस के स्थायी प्रतिनिधि, वसीली नेबेंजिया की टिप्पणी का सबसे बेहतरीन हिस्सा वह था जब उन्होने याद दिलाया कि यूएस-नाटो ने इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों को पश्चिम एशिया से अफ़ग़ानिस्तान में स्थानांतरित किया था जो अपने आप में एक घृणित, क्रूर विरासत की याद दिलाता है। राजदूत ने इस बारे में कहा कि,
“आईएसआईएस अफ़ग़ानिस्तान में घुसा और देश में अपने जड़े जमाई, जिसे अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगियों ने बहुत ही प्रभावी ढंग से नियंत्रित किया हुआ था। हम इस बारे में 2017 से बात कर रहे हैं, लेकिन इस बात को हमारे पश्चिमी भागीदारों ने हाल ही में माना है। इसके अलावा, इस पूरे समय में आईएसआईएस की क्षमता में लगातार इज़ाफा हुआ है, जिसमें विदेशों से वित्तीय सहायता से लेकर और दुनिया के अन्य संकट वाले क्षेत्रों में युद्ध का अनुभव हासिल करने वाले विदेशी आतंकवादी की आमद शामिल है ...
“अफ़ग़ानिस्तान में आईएसआईएस के बढ़ते खतरे पर ध्यान केंद्रित करने की हमारी सभी अपीलों को हमारे पश्चिमी सहयोगियों ने ठुकरा दिया और कहा कि यह कोई बड़ा खतरा नहीं है। साथ ही, संयुक्त राज्य अमेरिका के सामने कई ऐसे अवसर आए थे, जिसमें भौतिक सैन्य और तकनीकी क्षमताओं के साथ-साथ अफ़ग़ानिस्तान में आतंकवादियों को खत्म करने का समय भी शामिल था ...
"वर्षों से, (यूएन) काउंसिल चैंबर में बार-बार ये सवाल पूछे जाते रहे हैं कि आईएसआईएस आतंकवादियों और हथियारों को अज्ञात हेलीकॉप्टरों द्वारा देश के विभिन्न क्षेत्रों में उतारा जा रहा है, जिसमें उत्तर का क्षेत्र भी शामिल है, यह जो तब हो रहा था जब हमें बताया जा रहा था कि स्थिति पूरी तरह से नाटो गठबंधन बलों के नियंत्रण में है, उन सवालों का भी आज तक कोई जवाब नहीं मिला है…”
अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोस में भारत जैसे देशों को इस पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। भारत को अमरीकियों द्वारा अफ़ग़ान लोगों से चुराए गए धन को वापस करने की मांग को लेकर रूस के साथ शामिल होकर कार्यवाही करनी चाहिए। भारत ने क्वैड में आईएसआईएस के खतरे को क्यों नहीं उठाया, जिसमें अफ़ग़ान की हत्या करने वाले दो सदस्य शामिल हैं - अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया?
चीनी राजदूत झांग जून ने मीडिया से बात करते हुए स्पष्ट किया कि तालिबान सरकार की कमियों से कोई फर्क नहीं पड़ता, - मुद्दा तो काबुल अधिकारियों के साथ जुड़ने की अनिवार्य जरूरत का है।
एक खतरनाक स्थिति पैदा हो रही है क्योंकि बाइडेन प्रशासन ने अफ़ग़ानिस्तान में नए सिरे से हस्तक्षेप की साजिश रची है। अल-कायदा नेता अयमान अल-जवाहिरी की कथित हत्या पर नाटक चल रहा है, लेकिन जो स्पष्ट बात है वह यह है कि पाकिस्तानी सेना ने अमेरिकी ड्रोन हमले में मदद की थी। रावलपिंडी और सीआईए और पेंटागन में जनरलों के बीच यह फॉस्टियन सौदा एक और गृहयुद्ध और कई और दशकों के रक्तपात को फिर से शुरू करने का एक नुस्खा बन सकता है।
अफ़ग़ानिस्तान के आंतरिक मामलों में किसी भी तरह की दखलअंदाजी अनिवार्य रूप से पाकिस्तान को नुकसान पहुंचाएगी। तालिबान ने पाकिस्तानी जनरलों को इस बात के लिए पहले से ही आगाह कर दिया है।
दरअसल, पाकिस्तान के भीतर ही इस बात पर नाराज़गी होने वाली है कि इस्लामाबाद में नई अमेरिकी समर्थक सरकार और रावलपिंडी के जनरलों ने तत्कालीन कब्जे वाली ताकतों के साथ सहयोग किया है। इमरान खान की चुप्पी से भी चीजें आसान नहीं होने वाली हैं। ज्यादातर दोष मौजूदा पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल बाजवा पर लगाया जाना है।
रूस के सुरक्षा ज़ार, निकोलाई पेत्रुशेव, देश की सुरक्षा परिषद के सचिव और राष्ट्रपति पुतिन के एक लंबे समय तक रहे सहयोगी, ने आगे के खतरों की ओर इशारा किया जब उन्होंने एससीओ सदस्य देशों को अमेरिका के साथ मध्य एशियाई क्षेत्र में सैन्य अभ्यास में भाग लेने के खिलाफ आगाह किया।
पेत्रुशेव ने कहा: "मैं अपने सहयोगियों के सामने यह दोहराना चाहूंगा कि, सबसे पहले, अमेरिकियों को अपने सैन्य अभियानों के संभावित आयोजन का अध्ययन करने, संभावित लक्ष्यों की स्थिति को निर्दिष्ट करने और उच्च-सटीक हथियारों के मामले में डिजिटल मानचित्रों को समायोजित करने की जरूरत है। मैं वास्तव में आशा करता हूं कि एससीओ के सभी सदस्य देश अब तक उन अत्यधिक उच्च जोखिमों का एहसास कर पाए होंगे जो जोखिम अमेरिकी पहल से हमारी सुरक्षा के लिए पैदा करती है। पेत्रुशेव ने अपने मध्य एशियाई सहयोगियों को याद दिलाया कि हाल ही में कज़ाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान में "कलर क्रांति" करने के प्रयास किए गए हैं।
अफ़-पाक क्षेत्र में अराज़क परिस्थितियों से बाहर निकलने वाले एकमात्र लाभार्थी अमेरिका और यूके होंगे जिनकी खुफिया एजेंसियां हिंदू कुश में वापसी की उम्मीद कर रही हैं। पश्चिमी प्राथमिकता यूरेशियन क्षेत्र में किसी भी रूस-चीन-ईरान धुरी को मजबूत होने से रोकने और मध्य एशिया में अस्थिर परिस्थितियों का निर्माण करने की है जो झिंजियांग, उत्तरी काकेशस और पूर्वी ईरान में काम करने के लिए विध्वंसक समूहों के लिए अनुकूल होगी।
निश्चित रूप से, पंजशीरियों के तथाकथित अफ़ग़ानिस्तान प्रतिरोध के प्रवक्ता के साथ इस सप्ताह हुए सीएनएन के साथ विशेष साक्षात्कार से अशुभ संदेश मिल रहे हैं, कि अफ़ग़ानिस्तान में एक और शासन परिवर्तन परियोजना पर काम शुरू हो गया है। इस पर पश्चिमी राय को सावधानीपूर्वक तैयार किया जा रहा है। पंजशीरियों का पुराना फ्रांसीसी संबंध है। पुराने युद्ध के घोड़े अब बाहर आ रहे हैं।
तो, अफ़ग़ानिस्तान से यूएस-नाटो की वापसी के एक साल बाद बैलेंस शीट क्या कहती है? संक्षेप में कहें तो, अफ़ग़ानिस्तान में मानवाधिकार की स्थिति पर तीखे अभियान, काबुल में एक "समावेशी सरकार" की मांग, आदि ने तालिबान सरकार की अंतरराष्ट्रीय मान्यता को बाधित करने में मदद की है, हालांकि तालिबान वास्तव में उन मुद्दों का सामना कर रहा है जो दो दशकों से पश्चिमी कब्जे की विरासत रहे हैं – जिसमें एक खंडित राजनीति, गहरा भ्रष्ट और घिनौना, और एक असहाय राष्ट्र जो भीषण हिंसा और पीड़ा के अधीन रहा था।
इसके उपर, अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान के धन को तब तक वापस करने से इनकार कर दिया जब तक कि उसकी पूर्व-शर्तें पूरी नहीं हो जाती, अर्थात् तालिबान अमेरिकी फरमान का पालन नहीं करता है। यहां असली मंशा तालिबान सरकार को वित्तीय संसाधनों के मामले में भूखा रखना है, यहां तक कि सांकेतिक शासन - आर्थिक पुनर्निर्माण की तो बात ही छोड़ दें - जब तक कि वह वाशिंगटन के साथ बाद की शर्तों पर समझौता नहीं कर लेता तब तक यह संभव नहीं है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि बहुल समाजों को समावेशी सरकारों की जरूरत है। इसका मतलब, जरूरी नहीं कि पश्चिमी शैली का बहुलवाद ही आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता हो। आम तौर पर मुस्लिम देश पश्चिमी शैली के लोकतांत्रिक शासन का इस्तेमाल नहीं करते हैं। दरअसल, भारत में सत्तारूढ़ दल ने 2019 के आम चुनाव में 540 सदस्यीय संसद के लिए एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा था? वास्तव में, अमेरिका खुद को "समावेशी" समाज के लिए एक मॉडल के रूप में प्रस्तुत नहीं कर सकता है। समावेशिता स्थानीय विशेषताओं से उत्पन्न विभिन्न कारकों से उत्पन्न होती है।
रूस और चीन ने जो रास्ता अपनाया है, वह तालिबान सरकार के साथ जुड़ने का एकमात्र तरीका है। उन्होंने पश्चिमी जमीनी नियमों के साथ जुडने से इनकार कर दिया है। इसके बजाय, दोनों ने तालिबान सरकार के साथ व्यापार या काम करने का फैसला किया है। काबुल से मास्को का एक व्यापार प्रतिनिधिमंडल गेहूं, गैस और तेल की आपूर्ति के अनुबंध को अंतिम रूप दे रहा है।
काबुल में 2019 में स्थापित 10 मंजिला चाइना टाउन एक बार फिर व्यापारिक गतिविधियों से गुलजार हो गया है। साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट ने बताया है कि चीनी राज्य के स्वामित्व वाली कंपनियों के प्रतिनिधियों ने भी बीजिंग में तालिबान के दूतावास का दौरा किया है, जिसे इस साल की शुरुआत में निवेश के अवसरों और पुनर्निर्माण योजनाओं पर चर्चा करने के लिए खोला गया था। यह सब अच्छे के लिए हो रहा है।
इसमें कोई शक़ नहीं कि तालिबान सरकार में कई कमियां हैं। लेकिन कब्जा करने वाली शक्तियां जिन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में अपने आचरण और व्यवहार को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रति जवाबदेह ठहराए बिना खुद एक कानून के रूप में काम किया, आज उन्होने अपने नैतिक और राजनीतिक अधिकार को निर्धारित करने का अधिकार खो दिया है।
इसलिए तालिबान सरकार को किसी न किसी मुद्दे पर अलग-थलग करना सरासर ब्लैकमेल और दबाव की रणनीति है। कोई भी स्वाभिमानी शासक वर्ग इसे स्वीकार नहीं करेगा। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्पष्ट चर्चा एक वास्तविकता की जाँच रही है। संयुक्त राष्ट्र ने आग्रह किया है कि अफ़ग़ानिस्तान के लिए विकास सहायता तुरंत फिर से शुरू की जानी चाहिए। ऐसा नहीं है कि आशा की कोई किरण नहीं है।
रूस और चीन को इसका नेतृत्व करना चाहिए और पश्चिमी शक्तियों के अभिमानी प्रतिशोध को शर्मिंदा करने की आवश्यकता है जो युद्ध में अपनी घोर हार के लिए अफ़ग़ान राष्ट्र को माफ नहीं कर पा रहे हैं।
एमके भद्रकुमार एक पूर्व राजनयिक हैं। वे उज्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत रह चुके हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
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