फ़ैज़ की याद में : अब टूट गिरेंगी ज़ंजीरें, अब ज़िंदानों की ख़ैर नहीं!
फ़िलिस्तीनी लीडर यासिर अराफ़ात ने फै़ज़ अहमद फ़ैज़ के इंतकाल के बाद उन्हें अपनी ख़िराज-ए-अक़ीदत पेश करते हुए कहा था,‘‘फै़ज़ अहमद फै़ज़ हमें छोड़ गए, लेकिन हमारे दिलों में मुहब्बत का अमिट नक़्श छोड़ गए। उन्होंने इंक़लाबियों, दानिश्वरों और फ़नकारों की आने वाली नस्लों के लिए बेनज़ीर सरमाया छोड़ा है।’’ फ़ैज़ का ये बेनज़ीर सरमाया उनकी न भुलाए जाने वाली इंक़लाबी नज़्में हैं, जो आज भी दुनिया भर में चल रहे लोकतांत्रिक संघर्ष को एक नई राह दिखलाती है। तानाशाह हुक़ूमतें, उनकी शायरी से ख़ौफ़ खाती हैं। स्वाधीनता, जनवाद और सामाजिक समानता फै़ज़ की शायरी की बुनियादी आवाज़ है। अपनी ज़िंदगानी में ही फै़ज़ अहमद फै़ज़ समय और मुल्क की सभी सरहदें लांघकर, एक आलमी शायर के तौर पर मक़बूल हो चुके थे। दुनिया के किसी भी कोने में ज़ुल्म होते, उनकी क़लम मचलने लगती। अफ्रीका के मुक्ति संघर्ष में उन्होंने जहां ‘अफ्रीका कम बैक का’ नारा दिया, तो वहीं बेरूत में हुए नरसंहार के ख़िलाफ़ भी उन्होंने ‘एक नग़मा कर्बला-ए-बेरूत के लिए’ टाइटल से नज़्म लिखी। गोया कि दुनिया में कहीं भी नाइंसाफ़ी होती, तो वे अपनी नज़्मों और ग़ज़लों के ज़रिए प्रतिरोध दर्ज कराते थे। साल 1982 में अपने एक वक्तव्य में फै़ज़ ने कहा था,‘‘मेरे तईं अमन, आज़ादी, युद्धबंदी और एटमी होड़ की मुख़ालफ़त ही प्रासंगिक है। इस विशाल भाईचारे में से मेरे और मेरे दिल के सबसे नजदीक वे अवाम हैं जो अपमानित, निष्कासित और वंचित हैं, जो गरीब, भूखे और परेशान हैं। इसी वजह से मेरा लगाव फ़िलिस्तीन, दक्षिण अफ्रीका, नामीबिया, चिले के अवाम और अपने मुल्क के अवाम और मुझ जैसे लोगों से है।’’
उर्दू अदब में फै़ज़ अहमद फै़ज़ का मुक़ाम एक अज़ीमतर शायर के तौर पर है। वे न सिर्फ़ उर्दूभाषियों के पसंदीदा शायर हैं, बल्कि हिंदी और पंजाबीभाषी लोग भी उन्हें उतने ही शिद्दत से मोहब्बत करते हैं। फै़ज़ भाषा और क्षेत्रीयता की सभी हदें पार करते हैं। एक पूरा दौर गुज़र गया, लेकिन फै़ज़ की शायरी आज भी हिंद उपमहाद्वीप के करोड़ों-करोड़ लोगों के दिल-ओ-दिमाग पर छाई हुई है। उनकी नज़्मों-ग़ज़लों के मिसरे और अशआर लोगों की ज़बान पर मुहावरों और कहावतों की तरह चढ़े हुए हैं। सच मायने में कहें, तो फै़ज़ अवाम के महबूब शायर हैं और उनकी शायरी हरदिल अज़ीज़। प्रगतिशील लेखक संघ के बानी सज्जाद ज़हीर, फै़ज़ की मक़बूलियत का सबब इस बात में मानते हैं,‘‘मैं समझता हूं कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान बल्कि इन मुल्कों के बाहर भी जहां फै़ज़ के बारे में लोगों की जानकारी है, फै़ज़ की असाधारण लोकप्रियता और लोगों को उनसे गहरी मुहब्बत की एक वजह उनकी शायरी की ख़ूबियों के अलावा यह भी है कि लोग फै़ज़ की ज़िंदगी और उनके अमल, उनके दावों और उनकी कथनी में टकराव नहीं देखते।’’ फै़ज़ सच्चे वतनपरस्त और सच्चे अंतर्राष्ट्रीयतावादी थे। दुनिया भर के जन संघर्षों के साथ उन्होंने हमेशा एकजुटता व्यक्त की। जहां-जहां साम्राज्यवादी ताक़तों ने दीगर मुल्कों को अपनी साम्राज्यवादी नीतियों का निशाना बनाया, फै़ज़ ने उन मुल्कों की हिमायत में अपनी आवाज़ उठाई।
फै़ज़ की सारी ज़िंदगी को यदि उठाकर देखें, तो उनकी ज़िंदगी कई उतार-चढ़ाव और संघर्षों की मिली-जुली दास्तान है। बावजूद इसके उन्होंने लिख़ना नहीं छोड़ा। उनकी ज़िंदगानी में और उनके इंतकाल के बाद कई किताबें शाया हुईं। ‘दस्ते-तहे-संग’, ‘वादी-ए-सीना’, ‘शामे-शहरे-यारां’, ‘सारे सुख़न हमारे’, ‘नुस्ख़हा-ए-वफ़ा’, ‘गुबारे अयाम’ जहां उनके दीगर शे’री मजमुए हैं, तो वहीं ‘मीज़ान’ और ‘मताए-लौहो-कलम’ किताबों में उनके निबंध संकलित हैं। फै़ज़ अहमद फै़ज़ एफ्रो-एशियाई राइटर एसोसिएशन की मैगज़ीन ‘लोटस’ के भी चार साल तक एडिटर रहे। साल 1962 में उन्हें ‘लेनिन विश्व शांति सम्मान’ से नवाज़ा गया। फै़ज़ पहले एशियाई शायर बने, जिन्हें यह आला ऐज़ाज़ हासिल हुआ। भारत और पाकिस्तान के तरक़्क़ीपसंद शायरों की फ़ेहरिस्त में ही नहीं, बल्कि समूचे एशिया उपमहाद्वीप और अफ्रीका के स्वतंत्रता और समाजवाद के लिए किए गए संघर्षों के संदर्भ में भी फै़ज़ सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रासंगिक शायर हैं। उनकी शायरी जहां इंसान को शोषण से मुक्त कराने की प्रेरणा देती है, तो वहीं एक शोषणमुक्त समाज की स्थापना का सपना भी जगाती है। उन्होंने अवाम के नागरिक अधिकारों के लिए और सैनिक तानाशाही के ख़िलाफ़ जमकर लिखा। ‘लाजिम है कि हम देखेंगे’, ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे’, ‘दरबारे-वतन में जब इक दिन’, ‘आज बाज़ार में पा-बा-जौलां चलो’ उनकी ऐसी ही कुछ इंक़लाबी नज़्में हैं। इन नज़्मों को एक स्वर में गाते हुए नौजवान जब सड़कों पर निकलते हैं, तो हुकूमतें हिल जाती हैं।‘‘अब टूट गिरेंगी ज़ंजीरें, अब ज़िंदानों की ख़ैर नहीं/जो दरिया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टाले जाएंगे/कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो, बाजू भी बहुत हैं, सर भी बहुत/चलते भी चलो कि अब डेरे मंजिल ही पे डाले जाएंगे।’’
अविभाजित भारत में जन्मे फै़ज़ अहमद फै़ज़ शुरुआत से ही तरक़्क़ीपसंद तहरीक से जुड़ गए थे। इस तहरीक से जुड़ने के बाद फै़ज़ की शायरी में एक बड़ा बदलाव आया। उनकी शायरी की अंतर्वस्तु का कैनवास व्यापक होता चला गया। इश्क, प्यार-मोहब्बत की रूमानियत से निकलकर, फै़ज़ अपनी शायरी में हक़ीक़त निग़ारी पर ज़ोर देने लगे। वे इश्क से इंक़लाब, रूमान से हकीकत और ग़म-ए-यार से ग़म-ए-रोज़गार की तरफ आये। उनकी नज़्में इश्किया तौर पर शुरू होकर इंसान के दुनियावी सरोकार से जाकर मिलने लगीं। इसके बाद ही उनकी यह मशहूर ग़ज़ल सामने आई,‘‘और भी दुख हैं, ज़माने में मुहब्बत के सिवा/राहतें और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा/मुझसे पहली सी मुहब्बत, मेरी महबूब न मांग।’’ फै़ज़ की शायरी में ये प्रगतिशील, जनवादी चेतना आख़िर तक कायम रही। कमोबेश उनकी पूरी शायरी, तरक़्क़ीपसंद ख़यालों का ही आइना है। उनकी पहली ही किताब ‘नक्शे फ़रियादी’ की एक ग़ज़ल के कुछ अशआर देखिए,
‘‘आजिज़ी सीखी, ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास—ओ-हिरमान के दुःख-दर्द के मअ'नी सीखे
ज़ेर—दस्तों के मसाइब को समझना सीखा
सर्द आहों के, रुख़-ए-ज़र्द के मअ'नी सीखे।’’
साल 1941 में ‘नक़्शे फ़रियादी’ के प्रकाशन के बाद फै़ज़ का नाम उर्दू अदब के अहम शायरों में शुमार होने लगा। मुशायरों में भी वे शिरकत करने लगे। एक इंक़लाबी शायर के तौर पर उन्होंने ज़ल्द ही मुल्क में शोहरत हासिल कर ली। अपने कलाम से उन्होंने बार-बार मुल्कवासियों को एक फ़ैसलाकुन जंग के लिए ललकारा। ‘शीशों का मसीहा कोई नहीं’ शीर्षक नज़्म में वे कहते हैं,‘‘सब सागर शीशे लालो-गुहर, इस बाज़ी में बद जाते हैं/उठो, सब ख़ाली हाथो को इस रन से बुलावे आते हैं।’’ फै़ज़ की ऐसी ही एक दीगर ग़ज़ल का शे’र है,‘‘लेकिन अब ज़ुल्म की मियाद के दिन थोड़े हैं/इक जरा सब्र कि फ़रियाद के दिन थोड़े हैं।’’ मुल्क में आज़ादी की यह जद्दोजहद चल रही थी कि दूसरी आलमी जंग शुरू हो गई। जर्मनी ने रूस पर हमला कर दिया। यह हमला हुआ, तो लगा कि अब ब्रिटेन भी नहीं बचेगा। भारत में फ़ासिज्म की हुक़ूमत हो जाएगी। लिहाज़ा फ़ासिज्म को हराने के ख़याल से फै़ज़ लेक्चरर का पद छोड़कर फ़ौज में कप्तान हो गए। बाद में वे तरक़्क़ी पाकर कर्नल के ओहदे तक पहुंचे। लाखों लोगों की कुर्बानियों के बाद आख़िरकार, वह दिन भी आया जब मुल्क आज़ाद हुआ। पर यह आज़ादी हमें बंटवारे के तौर पर मिली। मुल्क दो हिस्सों में बंट गया। भारत और पाकिस्तान ! बंटवारे से पहले हुई साम्प्रदायिक हिंसा ने पूरे मुल्क को झुलसा के रख दिया। रक्तरंजित और जलते हुए शहरों को देखकर फै़ज़ ने ‘सुबहे-आज़ादी’ टाइटल से एक नज़्म लिखी। इस नज़्म में बंटवारे का दर्द जिस तरह से नुमायां हुआ है, वैसा उर्दू अदब में दूसरी जगह मिलना बामुश्किल है,‘‘ये दाग-दाग उजाला, ये शबग़जीदा सहर/वो इंतिज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं/ये वो सहर तो नहीं, जिसकी आरज़ू लेकर/चले थे यार कि मिल जाएगी, कहीं न कहीं।’’ इस नज़्म में फै़ज़ यहीं नहीं रुक जाते, बल्कि वे आगे कहते हैं,‘‘नजाते-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई/चले चलो कि वो मंजिल अभी नहीं आई।’’ फै़ज़ अहमद फै़ज़ मुल्क की खंडित आज़ादी से बेहद ग़मगीन थे। यह उनके तसव्वुर का हिंदोस्तान नहीं था। नाउम्मीदी भरे माहौल में भी उन्हें उम्मीद थी कि ज़ल्द ही सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा। आगे चलकर दोनों मुल्क एक हो जाएंगे।
बंटवारे के बाद फै़ज़ अहमद फै़ज़ पाकिस्तान चले गए। वहां उन्होंने अंग्रेजी दैनिक ‘पाकिस्तान टाईम्स’, उर्दू दैनिक ‘इमरोज’ और हफ़्तावार अख़बार ‘लैल-ओ-निहार’ के एडिटर की ज़िम्मेदारी संभाली। लेकिन पाकिस्तान में भी फै़ज़ का संघर्ष ख़त्म नहीं हुआ। यहां भी वे सरकारों की ग़लत नीतियों की लगातार मुख़ालफ़त करते रहे। इस मुख़ालफ़त के चलते उन्हें कई मर्तबा ज़ेल भी हुई। साल 1951 में वे रावलपिंडी साजिश केस में ज़ेल की सलाख़ों के पीछे भेज दिए गए। साल 1955 में जैसे-तैसे रिहा हुए, तो साल 1958 में पाकिस्तान में फ़ौजी हुकूमत क़ायम होने पर उन्हें फिर गिरफ़्तार कर लिया गया। एक साल ज़ेल में रहने के बाद,उन्हें रिहा किया गया। बावजूद इसके उन्होंने अपने ख़याल नहीं बदले। ज़ेल की हिरासत में ही उनके ग़ज़लों-नज़्मों के दो मजमुए ‘दस्ते-सबा’ और ‘ज़िंदानामा’ शाया हुए।
कारावास में एक वक़्त ऐसा भी आया, जब ज़ेल एडमिनिस्ट्रेशन ने उन्हें परिवार-दोस्तों से मिलवाना तो दूर, उनसे कागज़-कलम तक छीन लिए। फै़ज़ ने ऐसे ही शिकस्ता माहौल में लिखा,‘‘मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई, तो क्या ग़म है/कि ख़ूने-दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंने/ज़बां पे मुहर लगी है, तो क्या कि रख दी है/हरेक हलक—ए-ज़ंजीर में ज़बां मैंने।’’ ‘ज़िंदानामा’ की ज़्यादातर नज़्में फै़ज़ ने मंटगोमरी सेंट्रल ज़ेल और लाहौर सेंट्रल ज़ेल में लिख़ीं हैं। कारावास के दौरान फै़ज़ की लिख़ी गई ग़ज़लों और नज़्मों ने दुनिया भर की अवाम को मुतास्सिर किया। तुर्की के महान कवि नाज़िम हिक़मत की तरह उन्होंने भी कारावास और देश निकाला जैसी यातनाएं भोगी। निर्वासन का दर्द झेला, लेकिन फिर भी वे फ़ौजी हुक़्मरानों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध के गीत गाते रहे। ऐसे ही एहतिजाज की उनकी एक नज़्म है,‘‘निसार मैं तेरी गलियों पे ए वतन कि जहां/चली है रस्म की कोई न सर उठाके चले/जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले/नज़र चुरा के चले, जिस्मों-जां को बचा के चले/.....यूं ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क/न उनकी रस्म नयी है, न अपनी रीत नयी/यूं ही हमेशा ख़िलाये हैं, हमने आग में फ़ूल/न उनकी हार नयी है, न अपनी जीत नयी।’’एक मुकम्मल ज़िंदगी ज़ीने के बाद फै़ज़ अहमद फै़ज़ ने 20 नवम्बर, 1984 को इस दुनिया से रुख़सती ली।
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