फादर स्टेन की मौत के मामले में कोर्ट की भूमिका का स्वतंत्र परीक्षण जरूरी
फादर स्टेन स्वामी की ज़मानत याचिकाओं को कोर्ट द्वारा लगातार खारिज़ करने के मामले को जब हम दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा तीन छात्र सामाजिक कार्यकर्ताओं को ज़मानत दिए जाने के फ़ैसले से करते हैं, तो डॉक्टर जी मोहन गोपाल का कहना है फादर स्टेन के मामले में न्यायिक गलती समझ आती है। साथ ही कोर्ट की भूमिका के स्वतंत्र परीक्षण की जरूरत समझ आती है। बता दें उल्लेखित तीनों छात्रों को UAPA के तहत गिरफ़्तार किया गया था।
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होली फैमिली हॉस्पिटल, मुंबई के स्वास्थ्य निदेशक डॉ इयान डिसूजा ने बॉम्बे हाईकोर्ट को 5 जुलाई, 2021 को सूचित किया कि "फादर स्टेन स्वामी की मौत का कारण निश्चित तौर पर अन्य वज़हों के साथ फ़ेफड़ों में फैला संक्रमण और पार्किंसन बीमारी थी। कोरोना के बाद उनके फेफड़ों पर असर पड़ा था।" फादर स्टेन स्वामी की मौत के पीछे की जो वज़ह थीं, डॉक्टर द्वारा गिनाईं गईं जानलेवा बीमारियां उनका ही प्राकृतिक परिणाम थीं। स्टेन स्वामी को न्यायिक फ़ैसले में गलती होने के चलते जान गंवानी पड़ी। ऐसी गलती, जिसे रोका जा सकता था और जाना ही चाहिए था।
महामारी के दौरान फादर स्टेन स्वामी को जेल में डाला जाना न्यायिक गलती थी
महामारी के दौरान फादर स्टेन को कोरोना संक्रमित जेल में भेजा जाना बहुत गंभीर गलती थी। जबकि यह मालूम था कि ऐसा करने से उनकी मौत की संभावना है। उन्हें जेल में डालने के लिए बेहद जरूरी कानूनी अनिवार्यता भी नहीं बताई गई थी। दूसरे विकल्प भी मौजूद थे। जज जानते थे कि 83 साल के फादर स्टेन को जब 2020, अक्टूबर में गिरफ़्तार किया गया, तब वे उस श्रेणी में आते थे, जिसे सरकार ने कोरोना से सबसे ज़्यादा ख़तरा बताया था। जज जानते थे कि जिन जेलों में उन्हें भेजा जा रहा है, वहां कोरोना का तांडव जारी था। वह जानते थे कि भीड़ और अस्वच्छ स्थितियों के चलते जेल में कोविड प्रोटोकॉल को प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया जा सकता।
हम तार्किक तौर पर यह कह सकते हैं कि जज यह बात जानते थे कि अगर इन स्थितियों में फादर स्टेन को जेल में भेजा जाता है, तो वह निश्चित तौर पर कोरोना संक्रमित हो सकते हैं; और वायरस उनके कमज़ोर और पुराने हो चुके फेफड़ों को नुकसान पहुंचा सकता है; और उनकी मौत हो सकती है। यह सब जानने के बावजूद भी जजों ने उन्हें जेल भेज दिया।
वहां जो हुआ, उसका पहले ही अनुमान लगाया जा चुका था। फादर स्टेन की हालत लगातार बिगड़ती रही। उन्हें कोरोना हो गया। उन्हें वहां तब तक सही स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिलीं, जब तक देर नहीं हो गई। वायरस ने उनके स्वास्थ्य को गंभीर हालत में पहुंचा दिया। और उनकी मौत हो गई।
जजों के पास फादर स्टेन को ज़मानत देने का अधिकार था। इससे उनकी जिंदगी बच जाती। लेकिन कई बार उनकी ज़मानत याचिका खारिज़ कर लगातार गलत फ़ैसले लिए गए। जजों ने ज़मानत याचिकाओं को गलत ढंग से संवैधानिक अधिकार के बजाए, न्यायपालिका द्वारा भलमनसाहत में दी जाने वाली सुविधा समझा। जजों ने फादर स्टेन को सुनवाई से पहले जेल में रखने के लिए पुलिस द्वारा पेश किए गए निराधार दावों को ज़्यादा प्राथमिकता दी।
इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है कि जजों ने संवैधानिक कानून और स्थापित सिद्धांतों के आधार पर ज़मानत के कानून की व्याख्या की या उसे लागू किया। उन्होंने ज़मानत के सवाल को रोजाना के कामों की तरह लिया, उसपर गंभीरता से सुनवाई नहीं की। दुर्भाग्य है कि पूरे देश में कई जज ऐसा ही रोजाना करते हैं। जजों ने फादर स्टेन को उनकी आज़ादी से वंचित रखने का फ़ैसला लिया। लेकिन कहीं भी संविधान जजों को उनके कर्तव्यों से मुंह मोड़ने की छूट नहीं देता, जिनके तहत उन्हें फादर स्टेन के जीवन के अधिकार की रक्षा करना था। लेकिन इसमें वे असफल रहे।
पिछले महीने आए दिल्ली हाईकोर्ट के ज़मानत आदेश से हो रहा था पथ प्रदर्शन
इसके ठीक उलट दिल्ली हाईकोर्ट के पिछले महीने आए फ़ैसले दिखाई देते हैं। जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल और जस्टि अनूप बंबानी ने दिल्ली दंगा साजिश में UAPA कानून के तहत आरोपों का सामना कर रहे, जेल में बंद 3 छात्र नेताओं को ज़मानत दी।
दिल्ली हाईकोर्ट ने इन छात्रों की स्वतंत्रता, ज़मानत के अधिकार को बुनियादी अधिकार के तौर पर समझा, जिसकी हर हाल में रक्षा की जानी जरूरी होती है। उन्होंने ज़मानत देने या ना देने के लिए रोजमर्रा की तरह का आदेश नहीं दिया। बल्कि दिल्ली हाईकोर्ट के जजों ने हिरासत में लेने को संविधान के सिद्धातों पर आधारित हिरासत से सुरक्षा के अधिकार से संतुलित करने की व्याख्या की।
यह बेंच सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मामले में दिए गए कई आदेशों से निर्देशित थी। इसमें मोती राम बनाम् मध्यप्रदेश राज्य 1978 SCC (4) 47 भी शामिल था। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था:
"सुनवाई के पहले हिरासत में लिए जाने के बहुत गंभीर नतीज़े होते हैं। आरोपी को तब तक निर्दोष माना जाता है, लेकिन उसे जेल में मनोवैज्ञानिक और शारीरिक वंचनाओं से जूझना पड़ता है। कई बार यह स्थितियां दोषी ठहराए जा चुके आरोपी से भी ज़्यादा कठोर होती हैं। जेल में बंद आरोपी अगर नौकरी में है, तो वह नौकरी खो देता है। उसे अपने मुक़दमे में तैयारी से भी वंचित कर दिया जाता है।"
दिल्ली हाईकोर्ट का फ़ैसला कहता है कि सुनवाई लंबित रहने के दौरान ज़मानत ना देने को सैद्धांतिक तौर पर तीन अहम चिंताओं के आधार पर सही ठहराया जा सकता है- सबूतों से छेड़छाड़, गवाहों को डराना-धमकारना और फरार हो जाना। डिवीजन का मानना था कि ज़मानत के ऐवज में कुछ शर्तों को लगाकर भी इन चीजों को सुलझाया जा सकता है।
दिल्ली हाईकोर्ट की तरह, अगर फादर स्टेन के मामले की सुनवाई करने वाले जज ने भी ज़मानत याचिका पर तय वक़्त में सुनवाई की होती, तो उन्हें जल्दी बेल दे दी जाती और वह निश्चित तौर पर आज जिंदा होते।
दिल्ली हाईकोर्ट ने सुनवाई से पहले हिरासत में लिए जाने को लेकर जो सिद्धांत बताए हैं, उन्हें वैश्विक तौर पर मान्यता दी जाती है। अमेरिकी बार संगठन द्वारा 2005 में "सुनवाई के पहले हिरासत में लेने की प्रक्रिया" पर बनाया गया दस्तावेज़ कहता है, "सुनवाई से पहले हिरासत में लेने का आदेश तभी दिया जाना चाहिए, जब इस बात का तार्किक आधार मौजूद हो कि आरोपी संबंधित अपराध में शामिल था और उसके फरार होने या आगे और भी ज़्यादा गंभीर अपराध को अंजाम देने या फिर उसके मुक्त रहने से न्याय प्रक्रिया में गंभीर हस्तक्षेप की संभावना हो।"
फादर स्टेन ने आरोप लगाया था कि गरीब़ आदिवासियों की अधिकारों की लड़ाई में मदद करने के चलते उन्हें सरकार द्वारा व्यक्तिगत तौर पर निशाना बनाया जा रहा है। कानूनी शब्दावली में कहें तो यह "चयनित अभियोजन" का हवाला देकर बचाव का तर्क था। मतलब यह तर्क देना कि अभियोग खराब हो चुका है, क्योंकि यह मनमाफ़िक और प्रतिबंधित आधारों पर लगाया गया है।
अगर चयनित अभियोजना के तर्क को कोर्ट मान लेता, तो पूरा मुक़दमा ही खारिज़ हो जाता। लेकिन इस दावे पर जजों ने इसे वज़नदार और मुख्य मुद्दा मानकर सुनवाई नहीं की। ना ही जजों ने फादर स्टेन के उस अहम दावे पर ध्यान दिया, जिसमें वे राष्ट्रीय जांच संस्थान द्वारा उनके कंप्यूटर में फर्जी सबूत डालकर, उन्हें फंसाए जाने का दावा कर रहे थे।
किसी को फंसाना एक अपराध है। बुरी मंशा के साथ अभियोजन के उलट, फंसाने के खिलाफ़ दी जाने वाली शिकायत को वजनदार मुद्दा मानकर कार्रवाई की जानी चाहिए, क्योंकि इससे पूरी जांच ही असफल होती है।
क्या सरकार के राजनीतिक विमर्श ने फादर स्टेन के मामले में न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित किया
फादर स्टेन से जिस तरीके का न्यायिक व्यवहार किया गया, वह विमर्श से उपजने वाली धारणा के स्वतंत्रता के मुद्दे को उठाता है। संवैधानिक जरूरत यह है कि कानून के शासन को बनाए रखने, शक्तियों के बंटवारे और न्यायिक स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए न्यायिक प्रक्रिया राजनीतिक अवधारणाओं से स्वतंत्र नज़र आनी चाहिए, जिनका निर्माण सरकारों द्वारा सजा सुनाए जाने वाले व्यक्तियों के खिलाफ़ किया जाता है।
यह मुद्दा अमेरिका में हमदान बनाम् रम्सफेल्ड, 548 US 557 (2006) केस में सामने आया था। बुश प्रशासन की राजनीतिक विमर्श कहता था कि हमदान एक ख़तरनाक आंतकी है, जो मौका मिलने पर कई निर्दोष नागरिकों की हत्या या उन्हें नुकसान पहुंचा सकता था। प्रशासन ने इस विमर्श का इस्तेमाल हमदान पर न्यायिक फ़ैसलों को प्रभावित करने के लिए किया। इस तरह की कोशिशों को खारिज़ करते हुए जस्टिस जॉन पॉल स्टीवेन्स ने कोर्ट की तरफ से टिप्पणी करते हुए कहा, "हमने मान लिया और हमें मानना ही चाहिए कि सरकार द्वारा लगाई गई धाराओं में हमदान के खिलाफ़ लगाए गए आरोप सही हैं। हमने इन धाराओं में छिपा हुए संदेश की सच्चाई को भी मान लिया कि हमदान एक ख़तरनाक शख़्स है, जिसके विश्वासों पर अगर काम कर लिया जाता है तो वो कई निर्दोष नागरिकों को बहुत नुकसान पहुंचा सकता है, यहां तक कि उनकी हत्या भी हो सकती है और अगर उसे मौका दिया जाता है तो वह अपने इन विचारों पर अमल करेगा। यह इस बात पर जोर देता है कि हमदान सरकार की उसे हिरासत में लेने की ताकत को चुनौती नहीं दे सकता, क्योंकि इसके ज़रिए लोगों की जान को बचाया जा रहा है। हम आज भी इस मुद्दे को संबोधित नहीं कर पाए हैं। लेकिन हमदान पर आपराधिक सजा के लिए मुक़दमा चलाने के लिए दिए गए शपथ पत्र के तहत कार्यपालिका इस न्यायक्षेत्र में प्रवर्तित कानून के शासन का पालन करने के लिए बाध्य है।"
पिछले महीने दिल्ली हाईकोर्ट ने जिन UAPA में आरोपी जिन तीन लोगों को ज़मानत दी, उनका मामला विमर्श स्वतंत्रता का ही उदाहरण है। सरकार का राजनीतिक विमर्श यह था कि तीनों छात्र आतंकवादी हैं, जो भारतीय गणराज्य को उखाड़ने पर आमादा हैं। लेकिन यहां दिल्ली हाईकोर्ट सरकार के राजनीतिक विमर्श से दूर रहा और मुख्यत: कानून के शासन, शक्तियों के विभाजन और संवैधानिक सर्वोच्चत्ता बनाए रखने पर केंद्रित रहा।
फादर स्टेन स्वामी के मामले में सरकार का विमर्श कहता था कि फादर स्टेन एक आंतकवादी हैं, जो भारतीय गणराज्य को उखा़ड़ने पर आमादा हैं। वह भारतीय राज्य के दुश्मन हैं। यह परीक्षण किया जाना जरूरी है कि क्या फादर स्टेन के साथ किया गया कठोर व्यवहार, सरकार के विमर्श से प्रभावित न्यायिक प्रक्रिया का नतीज़ा था।
फादर स्टेन की मौत के मामले में न्यायपालिका की भूमिका पर पूरी दुनिया में चिंता है। फादर स्टेन के केस ने न्यायपालिका के फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में गंभीर सांस्थानिक गलतियां होने की बात सामने लाने का काम किया है। इससे न्यायिक स्वतंत्रता, शक्तियों का विभाजन और कानून का शासन खराब होता है, भले ही जज अपने न्यायक्षेत्राधिकार में अच्छी मंशा के साथ काम कर रहे हों। तथ्यों को स्थापित किया जाना जरूरी है। जवाबदेही तय करनी होगी। इस गलती के दोहराव को रोकने के लिए कदम उठाने होंगे।
लेकिन न्यायपालिका की तरफ से ऐसा होने की बहुत कम संभावना है। ना ही मौजूदा उपलब्ध तंत्र, जैसे सुप्रीम कोर्ट की आंतरिक प्रक्रियाएं और कानूनी महाभियोग मदद कर सकते हैं। यह सारी प्रक्रियाएं सांस्थानिक गलतियों के बजाए व्यक्तिगत न्यायिक दुराचार पर केंद्रित हैं।
इसके समाधान की व्यवस्था की गैरमौजूदगी में, इन चिंताओं का ठीक ढंग से निवारण करने का आगे का रास्ता क्या हो सकता है? कम से कम, पहले कदम के तौर पर बॉम्बे हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को एक रिटॉयर्ड सुप्रीम कोर्ट जज को नियुक्त कर, NIA और बॉम्बे हाईकोर्ट में जजों द्वारा फादर स्टेन के साथ किए गए व्यवहार का परीक्षण करवाना चाहिए। उसमें सामने आने वाले तथ्यों को रिकॉर्ड करवाना चाहिए और जरूरी सुझाव दिए जाने चाहिए।
फादर स्टेन का मामला अकेला अपवाद नहीं है। इस मामले पर पूरी दुनिया की नज़रें गई हैं। भारत में जहां जेल में बंद लोगों में 67 फ़ीसदी ऐसे हैं, जिनके मामले में सुनवाई चल रही है। ऐसे में कई मामले होंगे, जिनमें जेल में बंद आरोपियों को, जिनकी सुनवाई कोर्ट में जारी है या लंबित है, उन्हें उनकी स्वतंत्रता और न्याय से ऐसे राजनीतिक विमर्श की ताकत के चलते वंचित किया जा रहा है। बल्कि ऐसा लगता है कि फादर स्टेन को अधिकारों की लड़ाई लड़ने के चलते यह सब भुगतना पड़ा। अब इन चिंताओं के समाधान के लिए स्थायी सांस्थानिक सुरक्षाओं के निर्माण पर विमर्श की प्रक्रिया चालू होनी चाहिए।
फादर स्टेन की मौत जाया नहीं जानी चाहिए। इससे भारत में विश्वस्तरीय न्यायिक जवाबदेही के तंत्र को विकसित करने के लिए चलाए जा रहे आंदोलन को तेजी मिलनी चाहिए।
(डॉ जी मोहन गोपाल नेशनल ज्यूडीशियर एकेडमी के पूर्व निदेशक हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)
इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
Need for Independent Review of Role of Courts in Fr. Stan’s Death
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