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कल्याणकारी राज्य के राजकोषीय तक़ाज़े

दुनिया भर का अनुभव तो यही दिखाता है कि कल्याणकारी राज्य का निर्माण करने के लिए, राजकोषीय प्रयास में भारी बढ़ोतरी करने की ज़रूरत होती है।
कल्याणकारी राज्य के राजकोषीय तक़ाज़े
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दूसरे विश्व युद्घ के बाद के दौर में, उन्नत पूंजीवादी देशों में और ख़ासतौर पर यूरोप के उन्नत पूंजीवादी देशों में, सोवियत संघ में लागू किए जा रहे क़दमों का अनुकरण करते हुए, कल्याणकारी राज्य से जुड़े एक के बाद एक अनेक क़दम उठाए गए थे। पूंजीवाद को नहीं चाहते हुए भी इन क़दमों को मंज़ूर करना पड़ा था क्योंकि उसके सामने अस्तित्व का ही संकट खड़ा हो गया था। युद्घ ने उसे कमज़ोर कर दिया था। मज़दूर वर्ग के बढ़े ग़ुस्से ने उसे हिलाकर रख दिया था। और पूर्वी यूरोप में समाजवाद के फैलाव ने उसे भयभीत कर दिया था।

कल्याणकारी राज्य और ज़्यादा कर लगाना

बहरहाल, आगे चलकर जब पूंजीवादी व्यवस्था ने अपनी स्थिति को पुख़्ता कर लिया, कल्याणकारी क़दमों के प्रति उसकी शत्रुता खुलकर सामने आने लगी। उसने इन क़दमों को पीछे धकेलने की कोशिश भी की, लेकिन मज़दूरों के प्रतिरोध के चलते, उसे मन के मुताबिक़ कामयाबी नहीं मिल पायी। यहां तक कि मार्गरेट थैचर तक को, ब्रिटेन की राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा को ख़त्म करने में कामयाबी नहीं मिल सकी। विडंबना यह है कि उसी समय पर पूंजीवाद, कल्याणकारी राज्य का ही सहारा लेकर एक हद तक वैधता हासिल करता था और इसका दावा करता था कि वह कोई लुटेरी व्यवस्था नहीं है बल्कि वह तो एक ऐसी व्यवस्था है, जो जन-कल्याण की गारंटी करती है।

बहरहाल, कल्याणकारी राज्य को चलाने के लिए ज़रूरी होता है, ख़ासा ऊंचा कर-जीडीपी अनुपात, जो यूरोपीय देशों के ही इन कल्याणकारी क़दमों से पहले के दौर की तुलना में भी ऊंचा रहा है और उन देशों के चालू आंकड़ों की तुलना में भी ऊंचा रहा है, जिन्होंने कल्याणकारी प्रावधानों को सिकुड़ा दिया है। वर्ष 2020 के लिए, कर-जीडीपी अनुपात के हिसाब से देशों की अवरोही-क्रम पर बनायी गयी सूची में हमें, सबसे ऊपर के 30 देशों में पूरे 29 देश, यूरोप के ही दिखाई देंगे। इनमें पश्चिमी यूरोप के देश भी शामिल हैं और पूर्वी यूरोप के देश भी यानी ऐसे सभी देश, जिनकी कम्युनिस्ट या सोशल डैमोक्रेटिक शासन की विरासत रही है। 30 शीर्ष देशों की इस सूची में एक ही ग़ैर-यूरोपीय देश है और वह है, क्यूबा; क्यूबा में कम्युनिस्ट शासन तो है ही, उसके कल्याणकारी राज्य के प्रावधानों की सराहना, सारी दुनिया करती है।

बहरहाल, कम्युनिस्ट सरकारों के कल्याणकारी राज्य के क़दम अपनाने तथा ज़्यादा कर वसूल करने के ज़रिए इस काम के लिए आवश्यक संसाधन जुटाने और कम्युनिस्ट व्यवस्था के प्रभाव के बाद भी किसी न किसी रूप में इस व्यवस्था के बने रहने में तो हैरानी की कोई बात नहीं है। फिर भी यह बात अलग से ध्यान खींचने वाली ज़रूर है कि पश्चिमी यूरोपीय सोशल डैमोक्रेसी ने, कर-जीडीपी अनुपात के अपेक्षाकृत ऊंचे स्तर को बनाए रखा है, ताकि कल्याणकारी राज्य के अपने प्रावधानों के लिए वित्त व्यवस्था कर सके। उक्त सूची में फ्रांस शीर्ष पर है और उसका कर-जीडीपी अनुपात, 46.2 फ़ीसदी है। उसके बाद हैं-- डेन्मार्क (46.0), बेल्जियम (44.6), स्वीडन (44.0), फ़िनलेंड (43.3), इटली (42.4) और ऑस्ट्रिया (41.8)। इससे एक ही निष्कर्ष निकलता है कि कल्याणकारी राज्य को क़ायम करने के लिए, ज़्यादा कराधान की जरूरत होती है यानी बाज़ार में स्वत:स्फूर्त तरीक़े से जो आय पैदा होती है, उसके वितरण के पैटर्न को तय करने में राज्य या शासन के कहीं ज़्यादा हस्तक्षेप की ज़रूरत होती है।

ऊंची वृद्घि दर का लाभ मेहनतकशों तक कैसे पहुंचे?

इन यूरोपीय देशों में से किसी की भी जीडीपी वृद्घि दर, दूसरे विश्व युद्घ के फ़ौरन बाद के पूंजीवाद का कथित रूप से स्वर्ण युग कहलाने वाले दौर तक में, वैसी बढ़ी-चढ़ी नहीं रही थी, जैसी प्रभावशाली दरें तेज़ वृद्घि दर वाली अर्थव्यवस्थाओं में देखने को मिली हैं। और 2008 में आवासन के बुलबुले के बैठ जाने के बाद के दौर में तो उनकी वृद्घि दरें और भी नीचे खिसक गयी हैं। इसके विपरीत भारत में, इसके बावजूद कि उसके अधिकारीगण उसके कथित रूप से तेज़ी से विकास कर रही अर्थव्यवस्था होने के लिए अपनी पीठ थपथपाते नहीं थकते हैं, कल्याणकारी राज्य के क़दमों के मामले में स्थिति दयनीय है और हैरानी की बात नहीं है कि 18.08 फ़ीसद के स्तर पर बना हुआ उसका कर-जीडीपी अनुपात भी, सबसे निचले सिरे पर आता है।

इन तथ्यों से तीन प्रस्थापनाएं निकलती हैं। पहली तो यह कि जीडीपी की वृद्घि का रिसाव नीचे तक जाने की बात, एक पूरी तरह से खोखली अवधारणा है। अनियंत्रित पूंजीवाद के काम करने के फलस्वरूप मेहतनकश अवाम के कल्याण के स्तर में सुधार स्वत:स्फूर्त रूप से आना कभी संभव नहीं है। इसकी वजह यह है कि पूंजीवाद कभी भी श्रम की सुरक्षित सेना या बेरोज़गारों की फ़ौज के बिना चल ही नहीं सकता है और बेरोज़गारों की इस फ़ौज के बने रहने की एक मुख्य भूमिका यही होती है कि श्रम की उत्पादकता के बढ़ते रहने के बावजूद, मज़दूरी को दबाकर रखा जाए, ताकि सामाजिक उत्पाद में अधिशेष का हिस्सा बढ़ सके। यह पूंजीपतियों और उनके ‘लग्गों-भग्गों’ का उपभोग बढ़ाने का काम करता है।

पूंजीवाद के अंतर्गत मज़दूरों को ख़ुद ब ख़ुद आर्थिक वृद्घि के लाभ मिल ही नहीं सकते हैं। बेशक, अगर मेहनतकश संगठित हो जाएं, तो वे बेहतर जीवन स्तर के लिए संघर्ष कर सकते हैं और अपने जीवन स्तर को ऊपर उठवा भी सकते हैं। लेकिन, ऐसी सूरत में तो वे राज्य या शासन को कर-जीडीपी का अनुपात बढ़ाने पर भी मजबूर कर सकते हैं और यह उन्हें कहीं बढ़ी हुई सामाजिक मज़दूरी दिला सकता है। दूसरे शब्दों में, उनके जीवन स्तर में सुधार के लिए निर्णायक तत्व मेहनतकशों की कारगर तरीक़े से लडऩे की शक्ति है न कि आर्थिक वृद्घि की दर, जिसके लाभ कथित रूप से रिस-रिस कर उन तक पहुंच जाने का दावा किया जाता रहा था।

ठीक यही बात इस धारणा के संबंध में कही जा सकती है कि कराधान का स्तर नीचा बना रहने के बावजूद, जीडीपी वृद्घि की ऊंची दर से ख़ुद ब ख़ुद सरकार के हाथों में इतने संसाधन पहुंच जाते हैं कि वह मेहनतकश जनता के कल्याण की व्यवस्थाओं को बढ़ाने में, पर्याप्त संसाधन लगाने में समर्थ होती है। यह धारणा भी पूरी तरह से ग़लत है। कल्याणकारी राज्य की ओर संक्रमण कभी भी लुक-छिपकर या कथित परोपकारपूर्ण क़दमों के छोटे-छोटे इज़़ाफ़ों से नहीं होता है। यह संक्रमण तो नया रास्ता खोले जाने के रूप में होता है और कर-जीडीपी अनुपात में उल्लेखनीय बढ़ोतरी, इस नया रास्ता खोले जाने को ही प्रतिबिंबित करती है।

जीडीपी वृद्घि की जड़पूजा : लोक-कल्याण से उल्टी यात्रा

दूसरी प्रस्थापना इस प्रकार है। जीडीपी की वृद्घि अपने आप में कल्याणकारी राज्य की ओर तो नहीं ही ले जाती है, उल्टे जीडीपी की वृद्घि की ही जड़पूजा, कल्याणकारी राज्य की दिशा में किसी भी संक्रमण को रोकने का साधन बन जाती है। इसके ज़रिए यह झूठा नैरेटिव गढ़ा जा रहा होता है कि बजाए इसके कि मेहनतकश जनता एक कल्याणकारी राज्य के गठन के लिए सीधे अपने हितों के लिए हस्तांतरणों का आग्रह करे, यह ख़ुद उसकी ख़ुशहाली के लिए बेहतर रहेगा कि वह संसाधनों का पूंजीपतियों के हक़ में हस्तांतरण होने दे, ताकि वे और ज़्यादा निवेश कर सकें तथा कहीं ज़्यादा जीडीपी वृद्घि को संभव बना सकें। मेहनतकशों के हितों के लिए हस्तांतरण के तक़ाज़ों को तो एक गाली की तरह ‘सस्ती लोकप्रियता’ का लालच या पॉपूलिज्म कहा जाता है और फ़िज़ूलख़र्ची तथा अदूरदर्शिता कहकर इसका तिरस्कार किया जाता है क्योंकि यह तो तथाकथित मुफ़्त की रेवडिय़ां बांटने का मामला है। जीडीपी में वृद्घि के इस तरह जड़पूजा की वस्तु बनाए जाने का इस्तेमाल, कर-जीडीपी अनुपात को नीचा रखने के लिए किया जाता है क्योंकि इस अनुपात में कोई भी बढ़ोतरी, जिसके लिए सामान्य रूप से पूंजीपतियों पर ही कर बढ़ाया जा रहा होगा, इस दलील के हिसाब से तो पूंजीपतियों की उद्यमशीलता को तथा इसलिए निवेश करने के उनके उत्प्रेरण को ही नष्ट कर देगी और इस प्रकार जीडीपी में वृद्घि को ही चोट पहुंचाएगी।

ज़ाहिर है कि यह तर्क विश्लेषणात्मक रूप से ग़लत ही है। पूंजीपति कोई इसलिए ज़्यादा निवेश नहीं करने लगेंगे कि उनके हाथों में ज़्यादा संसाधन हैं। उनके निवेश संबंधी निर्णय तो बाज़ार की प्रत्याशित वृद्घि से संचालित होते हैं। इसलिए, उनके निवेश सिर्फ़ इससे बढ़ नहीं जाएंगे कि शासन द्वारा हस्तांतरणों के ज़रिए उनके हाथों में ज़्यादा संसाधन दिए जा रहे हैं। लेकिन, इस विश्लेषणात्मक रूप से ग़लत दलील तक का इस्तेमाल, कल्याणकारी राज्य की सभी मांगों को बदनाम करने तथा इसकी दिशा में जाने वाले हरेक क़दम को विफल करने के लिए किया जाता है। बहरहाल, दुनिया भर में कल्याणकारी राज्यों का अनुभव तो यही दिखाता है कि कल्याणकारी राज्य को हासिल करने के लिए, कर-जीडीपी अनुपात में काफ़ी बढ़ोतरी करने की ज़रूरत होती है और इसके लिए पूंजीपतियों पर कराधान में उल्लेखनीय बढ़ोतरी करनी होगी और इससे आर्थिक वृद्घि की संभावनाओं को हानि पहुंचने की दलील को पूरी तरह से अनसुना ही करना होगा। दूसरे शब्दों में, कल्याणकारी राज्य की मांग को, जीडीपी वृद्घि को जड़पूजा की वस्तु बनाए जाने पर जीत हासिल करनी होगी, जोकि वैसे भी पूंजीवाद के बचाव की दलीलों का ही हिस्सा है।

बहिष्करण की द्वंद्वात्मकता: कल्याणकारी रास्ते से उल्टे

तीसरी प्रस्थापना का संबंध, बहिष्करण की द्वंद्वात्मकता से है। चूंकि जीडीपी की वृद्घि को उत्प्रेेरित करने के लिए, सरकारी बजट से पूंजीपतियों के खातों में संसाधनों का हस्तांतरण किया जाता है और चूंकि अर्थव्यवस्था में मंदी व गतिरोध आने पर, जो कि सामान्य रूप से नवउदारवादी पूंजीवाद के नतीजे में आते ही हैं, पूंजीपतियों के खातों में उक्त हस्तांतरणों का आकार बढ़ाया ही जा रहा होता है, पहले बजट से जो मामूली कल्याणकारी ख़र्चे किए भी जा रहे थे, उनके लिए भी अब पहले से कम संसाधन ही बच जाते हैं। इसका नतीजा होता है शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अन्य आवश्यक सेवाओं का निजीकरण, जो इन सभी सेवाओं से मेहनतकश जनता के और ज़्यादा बाहर किए जाने की ओर ही ले जाता है।

चूंकि पूंजीपतियों के हक़ में किए जाने वाले इन हस्तांतरणों से निवेश में कोई बढ़ोतरी नहीं होती है और यहां तक कि उनके उपभोग में भी तत्काल कोई ख़ास बढ़ोतरी नहीं होती है, इस तरह के हस्तांतरणों की भरपाई करने के लिए, कल्याणकारी ख़र्चों में जो कटौतियां की जाती हैं, उनका नतीजा सकल मांग में कुल मिलाकर कमी के रूप में सामने आता है। इसके असर से जीडीपी की वृद्घि दर में ही कमी आती है और इसलिए, इस तरह से वृद्घि दर को बढ़ाने की कोशिश का विडंबनापूर्ण तरीक़े से इससे उल्टा ही असर होता है। फिर भी यह पूंजीपतियों के खातों में हस्तांतरण और बढ़ाने का ही बहाना बन जाता है और इसका नतीजा होता है, वृद्घि दर का और भी कम हो जाना। चूंकि पूंजीपतियों के पक्ष में ऐसे हस्तांतरणों के सिक्के का ही दूसरा पहलू है, कल्याणकारी ख़र्चों का कम किया जाना, इसलिए इस दुश्चक्र में कल्याणकारी ख़र्चों का पैमाना उत्तरोत्तर छोटे से छोटा होता जाता है। संक्षेप में यह रास्ता हमें कल्याणकारी राज्य की ओर ले जाने के बजाए, कल्याणकारी राज्य की तमाम संभावनाओं से दूर से दूर धकेलने का ही काम करता है।

भारत में हम लोग इस समय ऐसी द्वंद्वात्मकता के ही बीच फंसे हुए हैं। कर-जीडीपी अनुपात बहुत कम होने और पूंजीपतियों को निवेश तथा जीडीपी में वृद्घि लाने के लिए प्रोत्साहित करने के भ्रमित विचार के चलते पूंजीपतियों के हक़ में हस्तांतरणों के बढ़ते पैमाने, दोनों के ही चलते राजकोषीय संसाधनों पर दबाव इतना ज़्यादा है कि केंद्र सरकार, उस महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण गारंटी योजना (मगनरेगा) तक को सिकोड़ती जा रही है, जोकि अब तक ग्रामीण ग़रीबों के लिए जीवन रेखा का काम करती आ रही थी।

अंत में हम अपनी बात और साफ़ कर दें तथा एक बार फिर दोहरा दें। नवउदारवाद के वर्तमान दौर में जीडीपी वृद्घि की जिस तरह की जड़ पूजा को फैलाया जा रहा है, उसकी दो अलग-अलग समस्याएं हैं। पहली तो यह कि यह दावा ख़ुद एक ग़लत विश्लेषणात्मक समझ पर आधारित है कि पूंजीपतियों के पक्ष में हस्तांतरण बढ़ाने से, निवेश तथा इसलिए सुविधा में बढ़ोतरी होती है। दूसरी समस्या यह है कि यह दावा भी ग़लत है कि कर-जीडीपी अनुपात थोड़ा बना रहे तब भी, जीडीपी की ऊंची वृद्घि दर ख़ुद ब ख़ुद लोगों के लिए कल्याणकारी व्यवस्थाओं को बेहतर बनाने का काम करेगी। दुनिया भर का अनुभव तो यही दिखाता है कि कल्याणकारी राज्य का निर्माण करने के लिए, राजकोषीय प्रयास में भारी बढ़ोतरी करने की ज़रूरत होती है।

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