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कोर्पोरेट्स द्वारा अपहृत लोकतन्त्र में उम्मीद की किरण बनीं हसदेव अरण्य की ग्राम सभाएं

हसदेव अरण्य की ग्राम सभाएं, लोहिया के शब्दों में ‘निराशा के अंतिम कर्तव्य’ निभा रही हैं। इन्हें ज़रूरत है देशव्यापी समर्थन की और उन तमाम नागरिकों के साथ की जिनका भरोसा अभी भी संविधान और उसमें लिखी इबारतों में है।
hasdev arnay

‘मध्य भारत के फेफड़े’ कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य के ऊपर संकट गहराता जा रहा है। बीते एक दशक से सरगुजा और कोरबा जिले की ग्राम सभाएं संगठित होकर इस सघन, समृद्ध, जैव विविधतता जंगल और वन्य जीवों के नैसर्गिक पर्यावास को बचाने के लिए न केवल अपने सांवैधानिक शक्तियों का ही उपयोग कर रहीं हैं बल्कि अपने जंगल को किसी भी कीमत पर खनन के लिए न देने के लिए एक दशक से सतत संघर्ष कर रही हैं।

उल्लेखनीय है कि लगभग 170 हज़ार हेक्टेयर का यह जंगल संविधान की पाँचवीं अनुसूची क्षेत्र में शामिल है। संविधान की पाँचवीं अनुसूची ग्राम सभाओं और वहाँ सदियों से बसे आदिवासी समुदायों को उनकी परंपरा, रीति-रिवाजों और धार्मिक मान्यताओं को ‘विधि का बल’ प्रदान करती है। इसका आशय आसान शब्दों में यही है कि रहन सहन और उनके परंपरागत रीति-रिवाजों के अनुसार अपनी स्थानीय व्यवस्था संचालित कर सकने के लिए सक्षम माना गया है।

देश के संविधान निर्माताओं ने इस बात का ख्याल करते हुए कि बिना अपने नैसर्गिक परिवेश से परम्पराओं और रीति-रिवाजों का पालन कैसे होगा? इन क्षेत्रों में स्व-शासन की व्यवस्था दी। ताकि यहाँ बसे लोग और समुदाय अपनी परंपरागत व्यवस्था के अनुसार शासन व्यवस्था चला सकें।

इन क्षेत्रों में स्व-शासन के लिए बजाफ़्ता संविधान के 73वें संशोधन के बाद संविधान में 11 वीं अनुसूची जोड़ी गयी। इस अनुसूची में तमाम प्राकृतिक संसाधनों पर निर्णय लेने के लिए ग्राम सभाओं को शक्ति सम्पन्न बनाया गया।

पेसा (अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायती राज का विस्तार) कानून, 1996 के अनुसार इस वास्ते एक मुकम्मल व्यवस्था भी भारत की संसद ने दी है।  दिलचस्प है कि बीते 25 दिसंबर को इस कानून को अमल में आए पूरे पच्चीस साल हो चुके हैं।

हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति देश में तमाम अनुसूचित क्षेत्रों में एक बिरला उदाहरण है जो 24 ग्राम सभाओं का एक संगठन है और अपनी सांवैधानिक शक्तियों का उपयोग करते हुए अपने नैसर्गिक संसाधन बचाने के लिए बार-बार देश की संघीय व राज्य सरकार से गुजारिश कर रहा है।

सांवैधानिक रूप से यह माना जाता है कि इस देश की संघीय प्रणाली में तीन सरकारें अस्तित्व में हैं। जिनमें क्रमश: संघीय या केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और ग्राम पंचायतें हैं। अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम पंचायतों के अंदर भी ग्राम सभाओं को प्राथमिकता है। इसलिए यह नारा ऐसे क्षेत्रों में प्राय: बार बार दोहराया जाता है- ‘न लोकसभा न विधान सभा, सबसे ऊंची ग्राम सभा’। 


24 ग्राम सभाओं का संगठन हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति 2015 से ही जब से माननीय सर्वोच्च नयायालय ने कोयला खदानों के आबंटन में हुए कथित घोटाले के मद्देनजर देश के 214 कोयला खदानों के आबंटन को रद्द कर दिया था और नए आबंटन निविदा आधारित करने के निर्देश दिये थे तभी से बार- बार केंद्र सरकार को यह लिखित में देती रही हैं कि हसदेव अरण्य के दायरे में आने वाली कोयला खदानों को नीलामी प्रक्रिया से बाहर रखा जाए।

ऐसा कहने का ठोस आधार यह रहा है कि अगर केंद्र सरकार इन खदानों को नीलामी प्रक्रिया में शामिल करती है और इसी प्रक्रिया से उनका आबंटन हो भी जाता है तब भी खदान परियोजना शुरू करने से पहले ग्राम सभाओं की सहमति लेना ज़रूरी होगा। और हसदेव की इन ग्राम सभाओं ने यह तय कर लिया है कि वो कोयला खदानों के लिए अपने इस विरासती जंगल को नष्ट करने की सहमति नहीं देंगीं। इस लिहाज से यह एक सांवैधानिक टकराव की स्थिति ही है।

जहां एक सरकार इसके विरोध में है और सांवैधानिक दृष्टि से ऐसी सरकार के विरोध में है जिसका हक़ उस जंगल पर प्राकृतिक रूप से सबसे पहला है।

लेकिन देश में विकल्पहीन नव-उदरवादी अर्थव्यवस्था जो अब नैसर्गिक संसाधनों में निवेश पर ही पूरी तरह आश्रित है संविधान की इस सबसे महत्वपूर्ण इकाई की असहमतियों को नज़रअंदाज़ किए बिना चल ही नहीं सकती। यह जानते हुए भी 2015 से इन ग्राम सभाओं का रुख नहीं बदला है।

इस तथ्य के अतिरिक्त 2006 में लागू हुए वन अधिकार (मान्यता) कानून में भी गैर-वानिकी उपयोग के लिए वनों के इस्तेमाल के लिए ग्राम सभा से इस आशय का प्रस्ताव लेना अनिवार्य हो गया है कि ‘उसके दायरे में आने वाले वन क्षेत्र में वनाधिकार मान्यता कानून के तहत दिये गए सभी 13 प्रकार के अधिकार प्रदान किए जा चुके हैं’। इन अधिकारों में व्यक्तिगत वन अधिकार (जिस वन भूमि पर लोग 13 दिसंबर 2005) से पहले खेती करते या रहे हैं या निवास बनाया है, सामुदायिक निस्तार अधिकार, सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकार, लघु वनोपाज़ संग्रहण के अधिकार, अगर उस ग्राम सभा में आदिम जनजाति समुदाय का निवास है तो उनके पर्यावास के अधिकार आदि शामिल हैं।


पेसा कानून, 1996 और वन अधिकार मान्यता कानून, 2006 जैसे दोनों क़ानूनों में ग्राम सभाओं की केंद्रीय भूमिका है। हसदेव अरण्य के क्षेत्र के गांवों की ग्राम सभाएं इन दोनों ही क़ानूनों के तहत मिली शक्तियों का उपयोग कर रही हैं। इसके उलट राज्य सरकार व संघीय सरकार इन ग्राम सभाओं को मिली शक्तियों को मानना ही नहीं चाहतीं।

अगर पेसा कानून की बात करें तो राज्य सरकार ने इस कानून के ऊपर कोयला-धारक क्षेत्र कानून (कोल एरिया बेयरिंग एक्ट),1957 को तरजीह देते हुए यह नज़ीर पेश करने की गैर-कानूनी कोशिश की है कि यह कानून पेसा कानून, 1996 से प्रभावित नहीं होता और कोयला धारक क्षेत्रों में ज़मीन अधिग्रहण से पूर्व पाँचवीं अनुसूची क्षेत्रों की ग्राम सभाओं की सहमति या परामर्श की ज़रूरत नहीं है।

इस संबंध में एक मामला माननीय बिलासपुर उच्च न्यायालय में चल रहा है। वन अधिकार कानून, 2006 की बात करें तो यहाँ भी ग्राम सभाओं के प्रस्तावों को तो ज़रूरी माना गया है लेकिन ग्राम सभाओं के एक दशक से चल रहे विरोध को देखते हुए खनन के पक्ष में और वनाधिकार कानून के समग्र क्रियान्वयन के संबंध में फर्जी प्रस्ताव बनवा कर यहाँ खनन के लिए तमाम स्वीकृतियाँ दे दी गईं हैं।

उल्लेखनीय है कि जब से प्रभावित गांवों के फर्जी प्रस्तावों की खबर ग्राम सभाओं को मिली है वो तभी से ये कह रही हैं कि उन्होंने ऐसे कोई प्रस्ताव पारित नहीं किए हैं। ये प्रस्ताव जिन तारीखों में दिखलाए गए हैं उन तारीखों में कोई ग्राम सभा आयोजित ही नहीं हुई है। फर्जी ग्राम सभाओं के आधार पर राज्य सरकार द्वारा खनन परियोजना को दी गईं तमाम स्वीकृतियाँ खारिज मानी जाना चाहिए।

इन्हीं फर्जी ग्राम सभाओं की जांच के लिए हसदेव अरण्य में बसे समुदायों ने 4 अक्तूबर से 14 अक्तूबर तक करीब 300 किलोमीटर की पैदल यात्रा करके रायपुर में प्रदेश के राज्यपाल व मुख्यमंत्री से भी मांग की थी। पाँचवीं अनुसूची क्षेत्रों के लिए राज्यपाल एक अभिभावक की भूमिका में होते हैं। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ की राज्यपाल सुश्री अनुसुइया उइके ने इन फर्जी ग्राम सभाओं के जांच के आदेश भी दिये थे। लेकिन राज्य सरकार और जिला प्रशासन ने राज्यपाल के आदेश को भी कोई तवज्जो नहीं दी।

इसके अलावा, देश के इस महत्वपूर्ण और गिने चुने नैसर्गिक जंगल और इस जंगल की जैव-विविधतता,  पर्यावरणीय महत्व व वन्य जीवों के नैसर्गिक पर्यावास को अक्षुण्ण रखने की गरज से संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के दौरान भारत सरकार के वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने इस क्षेत्र को ‘नो-गो एरिया’ भी घोषित किया था। जिसका अर्थ यह था कि इस जंगल में गैर-वानिकी प्रयोजनों के लिए किसी भी परियोजना को मंजूरी नहीं दी जाना चाहिए।

हाल ही में देश के सबसे प्रतिष्ठित और स्वायत्त संस्थानों मसलन वन्य जीव संस्थान (डबल्यूआईआई) और भारतीय वानकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद (आईसीएफआरई) ने इस जंगल में कोयला खनन न करने की गंभीर चेतावनियाँ भी दी हैं।

इन अध्ययनों में कहा गया है कि ‘हाथियों के लिए सबसे मुफीद इस पर्यावास के नष्ट होने से उत्पन्न होने वाले मानव-हाथी संघर्ष को संभालना नामुमकिन हो जाएगा और कई सदाबहार नदियां हमेशा के लिए सूख जाएंगीं’। 

बावजूद इन चेतावनियों और ग्राम सभाओं के सांवैधानिक अधिकारों व शक्तियों को गंभीरता से लेने के छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार और संघीय सरकार इस जंगल को नष्ट करने पर आमादा है। ऐसे में ग्राम सभाओं ने ज़मीन पकड़ ली है और ज़मीन पर सत्याग्रह कर रही हैं।

हसदेव अरण्य की ग्राम सभाएं अपने हक़ अधिकारों और संविधान प्रदत्त शक्तियों को लेकर न केवल जागरूक हैं बल्कि आश्वस्त भी हैं। ऐसे में देश में सांवैधानिक व्यवस्था के तहत बाकी दो सरकारें कॉर्पोरेट के हितों के लिए अपने सांवैधानिक कर्तव्य और निष्ठा भूल रही हैं हमें इन ग्राम सभाओं की तरफ देखना चाहिए जो संविधान के प्रति अपनी निष्ठा और उससे मिली शक्तियों के लिए संघर्ष कर रही हैं। देश में स्व-राज की ये इकाईयां ही एक प्रभुत्व संपन्न, लोकतान्त्रिक गणराज्य का वर्तमान और भविष्य हैं।

गौरतलब है कि ये ग्राम सभाएं केवल अपनी शक्तियों के लिए जागरूक नहीं हैं बल्कि शक्तियों के इस्तेमाल से पहले अपने कर्तव्यों को लेकर सजग हैं। हाल ही में जब छत्तीसगढ़ के जंगलों में आग लगी थी और वन विभाग के कर्मचारी लंबी हड़ताल पर थे तब यही ग्राम सभाएं अपने जंगलों को आग से बचा रही थीं। पूरी-पूरी रात न्यूनतम संसाधनों के साथ जंगलों की आग को काबू में कर रही थीं। हालांकि वन विभाग ऐसे आंकड़े कभी सामने नहीं लाएगा लेकिन यह देखना दिलचस्प होता कि हसदेव अरण्य की ग्राम सभाओं ने किस तरह से जंगलों के प्रति अपने दायित्वों को निभाया और उनकी आग से रक्षा की।

हसदेव अरण्य की ग्राम सभाएं, लोहिया के शब्दों में ‘निराशा के अंतिम कर्तव्य’ निभा रही हैं। इन्हें ज़रूरत है देशव्यापी समर्थन की और उन तमाम नागरिकों के साथ की जिनका भरोसा अभी भी संविधान और उसमें लिखी इबारतों में है।
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(लेखक डेढ़ दशकों से जन आंदोलनों से जुड़े हैं। यहाँ व्यक्त विचार व्यतिगत हैं।) 

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