AFI: अकादमिक आज़ादी पर सत्ता का शिकंजा और सामाजिक न्याय का सवाल
जब असम के मुख्यमंत्री ने एक तैश भारी घोषणा में यह मंशा ज़ाहिर की, कि उनकी सरकार राज्य के विश्वविद्यालय शिक्षकों के द्वारा सरकार की आलोचना बर्दाश्त नहीं करेंगे और इसे रोकने के लिए सरकारी खर्चे पर चलने वाले संस्थानों के शिक्षकों को सिविल सर्विसेज़ कंडक्ट नियमों के अधीन लाएंगे, अर्थात उन्हें शिक्षक होने कारण हासिल, बोलने-लिखने की आज़ादी उनसे छीन ली जाएगी; तो देश के अकादमिक जगत ने इस पर एक ठंडी प्रतिक्रिया दी, मानो यह एक राजनेता की अगंभीर बड़बड़ाहट हो। किन्तु सच्चाई यह है कि पिछले कई सालों मे अकादमिक जगत में शिक्षक और रिसर्चर्स पर सरकारी और गैर सरकारी बंदिशें लगातार बढ़ी हैं। कहीं उन्हें कक्षा में धार्मिक भावनाओं के नाम पर, कहीं राजनीतिक अथवा संस्कृति से जुड़े आरोपों के नाम पर निशाना बनाया गया है। यही हाल विज्ञान या इतिहास काँग्रेस में, सेमिनार संगोष्ठियों में, शोध के लिए मिलने वाले अनुदानों और प्रकाशन सहायता में भी दिखाई दिया है।
स्थिति इतनी बदहाल हो गई है की अब अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अकादमिक आज़ादी का आँकलन करने वाली संस्था वी-डेम (लोकतंत्र के रूप) ने 179 देशों में अकादमिक आज़ादी की हालत का अध्ययन प्रस्तुत किया है जिसमें भारत में इसके स्तर में गिरावट के जारी रहने की पुष्टि की गई है।
हाल ही में प्रकाशित हुए अकादमिक आज़ादी सूचकांक (AFI) से यह ज्ञात होता है कि भारत में अकादमिक आज़ादी में और भी अधिक गिरावट दर्ज की गई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि 2009 के आस-पास शुरू हुई अकादमिक आज़ादी में कमी , जिसमें विश्वविद्यालयीन स्वायत्तता में साफ कमी के बाद 2013 से सभी मानकों में तेज गिरावट देखी गई। रिपोर्टों के अनुसार, 2013 के बाद से भारत की अकादमिक स्वतंत्रता में काफी हद तक गिरावट आई है। भारत, AFI में मूल्यांकन किए गए देशों के सबसे नीचे के 30% में स्थित है, जिसका सूचकांक स्कोर 1 में से 0.38 से भी कम है।
अकादमिक आज़ादी में इस महत्वपूर्ण गिरावट को अकादमिक आज़ादी की रक्षा के लिए कानूनी ढांचों की कमी, संस्थागत आयामों जैसे कि स्वायत्तता और अखंडता पर दबाव, और शैक्षणिक क्षेत्र को प्रभावित करने वाले राजनीतिक परिवेश के कारण बताया गया है। V-Dem संस्थान के विश्लेषण से पता चलता है कि इस गिरावट और भारत के उस रास्ते के बीच सहसंबंध है जिसे उन्होंने चुनावी तानाशाही के रूप में चिह्नित किया है, जो राजनीतिक परिवर्तनों और अकादमिक स्वतंत्रता के बीच एक जटिल संबंध को इंगित करता है।
इस लिहाज़ से एक अहम सवाल ये है कि अकादमिक आज़ादी के इस लगातार गिरावट का असर किस पर पड़ता है? यह तो साफ़ है कि जो पढ़ने पढ़ाने और रिसर्च जैसे कामों में लगे हैं उनके हित तो सीधे तौर पर प्रभावित होते ही हैं लेकिन इस गिरावट का असर अकादमिक संस्थानों की सीमा से परे भी पड़ता है। उल्लेखनीय है किसी भी दीगर बदलाव या गिरावट की ही तरह इसका ख़ामियाज़ा भी सबसे ज़्यादा उन्हें उठाना पड़ता है जो हाशिए पर हैं। अकादमिक दुनिया में दाखिल होने का इंतज़ार कर रहे हैं या उन तबकों के शिक्षक या रिसर्चर हैं जिनकी नुमाइंदगी इस व्यवस्था में बहुत कम है मसलन स्त्रियाँ, आदिवासी, दलित या अल्पसंख्यक।
अकादमिक आज़ादी पर आए दबाव का असर ये होता है कि शिक्षण और शोध एवं प्रकाशन की दुनिया से इन लोगों से जुड़े विषय या तो ख़ारिज होने लगते हैं या फिर उन्हें उस नज़रिए से देखा जाने लगता है कि ये वर्ग और हाशिए पर चले जाते हैं। इन तबकों से जो यदा कदा लोग व्यवस्था में आ भी पाते हैं वे घटती शैक्षिक आज़ादी के चलते मौन होने के दबाव में आ जाते हैं। इसी का प्रभाव होता है कि इन तबकों की नुमाइंदगी भागीदारी और विषयवस्तु के अतिरिक्त पद्धतियाँ एवं तौर तरीक़ों के नवाचार में भी कम हो जाती है।
जब अकादमिक स्वतंत्रता को सीमित किया जाता है, तो यह केवल शिक्षकों और विद्वानों की स्वायत्तता के प्रति एक अपमान नहीं है; यह ज्ञान की खोज, महत्वपूर्ण विमर्श, और नवाचार के लिए आवश्यक सामाजिक और बौद्धिक स्थानों के व्यापक संकुचन का संकेत देता है। यह संकुचन समाज में मौजूदा विभाजनों, विशेषकर समाज और आर्थिक रूप से समृद्ध वर्गों और जो आर्थिक और सामाजिक रूप से हाशिये पर हैं, के बीच की खाई को और भी बढ़ा सकता है।
हम अकादमिक आज़ादी सूचकांक (AFI) में आई गिरावट और इसके समाज के कमजोर वर्गों पर विभिन्न प्रभावों की श्रृंखला को इस तरह समझ सकते हैं। सबसे पहले तो, अकादमिक आज़ादी में कमी से अक्सर विचारों का एकरूपीकरण होता है और विविध नजरियों का दमन होता है। विश्वविद्यालय और शैक्षिक संस्थान मौजूदा विमर्शों को चुनौती देने और नवीन विचारों को पेश करने के लिए महत्वपूर्ण मंच के रूप में कार्य करते हैं। जब इन स्थानों पर प्रतिबंध लगाया जाता है, तो नतीजतन अक्सर ऐसा पाठ्यक्रम सामने आता है जो प्रबल विचारधाराओं और हितों के अनुरूप होता है। हाशिये के समूहों के लिए, इसका अर्थ है अकादमिक विमर्श में अपने अनुभवों और दृष्टिकोणों को प्रतिबिंबित होने के अवसरों में कमी, जो उनकी तकलीफों को मान्यता देने और सामाजिक परिवर्तन में योगदान करने वाले प्रतिनिधित्व के रूप तक उनकी पहुँच को सीमित करती है।
इसके अलावा, अकादमिक आज़ादी में गिरावट आर्थिक विषमताओं को और भी गहरा करती है। शिक्षा, सामाजिक गतिशीलता के लिए एक ताकतवर उपकरण है, जो वंचित पृष्ठभूमि के व्यक्तियों को उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को बेहतर करने का मौका देती है। लेकिन जब अकादमिक आज़ादी से समझौता किया जाता है, तो शिक्षा की गुणवत्ता और व्यापकता प्रभावित होती है, जो कम संपन्न पृष्ठभूमि के छात्रों पर असमान रूप से असर डालती है। ये छात्र सरकारी शिक्षा प्रणालियों पर अधिक निर्भर करते हैं, जो अक्सर प्रतिबंधात्मक अकादमिक नीतियों के परिणामों का अनुभव सबसे पहले करती हैं। इसके विपरीत, समाज के धनी वर्ग इन प्रतिबंधों को निजी संस्थानों तक पहुँच या विदेश में शैक्षिक अवसरों के माध्यम से दरकिनार कर सकते हैं, जिससे समाज के विभिन्न समूहों के बीच शैक्षिक और आर्थिक खाई और अधिक बढ़ जाती है।
जब राजनीतिक वातावरण में अधिनायकवादी प्रवृत्ति बढ़ती है, तो समाज में निगरानी तंत्र, सेन्सरशिप, सांस्कृतिक असहिष्णुता की मार भी बढ़ती है लेकिन अलग अलग तबकों पर इसका असर ग़ैर बराबर होता है। ऐसे राजनीतिक वातावरण में अकादमिक आज़ादी पर भी हमला होता है। ग़ौरतलब है कि अकादमिक तथा सार्वजनिक संवाद में इन प्रवृत्तियों की युक्तियुक्त आलोचना तथा इन नीतियों का समुचित विश्लेषण एवं मंशाओं को बेपरदा करना एक बेहद ज़रूरी प्रतिरोध है। जिसके अभाव में इनसे ज़्यादा प्रभावित तबके और भी अधिक चुप्पी और दमन के शिकार हो जाते हैं। कोई हैरानी नहीं कि इसी कारण अकादमिक आज़ादी इस किस्म के राजनीतिक तंत्र को रास नहीं आती।
यह सही है कि अकादमिक आज़ादी में आई गिरावट के असर समाज के अलग अलग तबकों पर गैर बराबर रूप से पड़ता है, जो मौजूदा गैर बराबरी को और बढ़ाता हैं और समाज के वंचित वर्गों की तरक्की में बाधाएं उत्पन्न करते हैं। हालांकि एक ग़ुलाम शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी रूप में प्रभावित करती है, फिर भी कुछ पर इसका असर जल्द होता है। यह मानना एक गंभीर भूल होगी कि अकादमिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध से कोई भी फायदे में रहेगा, सिवाय सत्ता केंद्र के। इस गिरावट का मुकाबला करने के लिए एक सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है।
अगर दूसरे देशों पर नजर डालें तो चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका (विशेष रूप से ट्रम्प प्रशासन के दौरान), और तुर्की जैसे देशों को अकादमिक स्वतंत्रता में गिरावट के संदर्भ में अक्सर उद्धृत किया जाता है, वहीं गाम्बिया, उज़्बेकिस्तान, सेशेल्स, मोंटेनेग्रो, और कजाखस्तान जैसे देश भी हैं, जहां अकादमिक स्वतंत्रता में सुधार देखा गया है। अकादमिक स्वतंत्रता में इस वृद्धि को सुनिश्चित करने के लिए उठाए गए विशेष कदम देश के अपने संदर्भ पर निर्भर करते हैं, लेकिन हमें यह जानने की आवश्यकता है कि उन्होंने क्या किया जो हमसे छूट गया, ताकि हम भी इस सुधार को देख सकें। इस सुधार में योगदान देने वाली कुछ सामान्य रणनीतियों में शामिल हैं, अकादमिक स्वतंत्रता की स्पष्ट रूप से रक्षा करने वाले मजबूत कानूनी ढांचों की स्थापना, सेंसरशिप, अनुचित राजनीतिक हस्तक्षेप के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करने वाले कानूनों और नियमों का निर्माण जिससे अकादमिक क्षेत्र मुक्त विचार और पूछताछ की जगह बनी रहे। संस्थागत स्वायत्तता का संवर्धन भी समान रूप से महत्वपूर्ण है।
विश्वविद्यालयों के लिए बिना बाहरी हस्तक्षेप के उनके प्रशासनिक, वित्तीय, और अकादमिक निर्णयों लेने की स्वायत्तता बनाए रखना अनिवार्य है। यह स्वतंत्रता अकादमिक स्वतंत्रता की नींव है, जो संस्थानों को नवाचार और महत्वपूर्ण विचार को बढ़ावा देने वाले वातावरण को पोषित करने में सक्षम बनाती है। इन संस्थानों के भीतर शासन संरचनाओं में सुधार भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में पारदर्शिता, जवाबदेही, और समावेशिता को बढ़ाने के उद्देश्य से सुधारों को लागू करके, विश्वविद्यालय लोकतांत्रिक शासन के सिद्धांतों को धारण कर सकते हैं।
(लेखक विजेंद्र सिंह चौहान और डॉ. शीरीं अख़्तर दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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