क्या गारंटीशुदा MSP की किसानों की मांग को पूरा किया जा सकता है?
किसान अपने 'दिल्ली चलो' मार्च के लिए पंजाब-हरियाणा शंभू बॉर्डर पर जमे हुए हैं । छवि सौजन्य: PTI
भारत एक बड़े कृषि संकट का सामना कर रहा है जो व्यवहार्यता, रोजगार, पारिस्थितिकी और असमानता के विभिन्न आयामों तक फैला हुआ है। इस कृषि संकट का एक बुनियादी कारक कृषि के लिए सरकारी समर्थन का क्षीण या कमजोर होना है जिसका कृषि प्रधान भारत पर हानिकारक प्रभाव पड़ा है। लेकिन ग्रामीण श्रमिकों और (खास तौर पर गरीब और मध्यम किसान) किसानों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इसे समर्थन मूल्य को कमजोर/क्षीण बनाकर किसानी कृषि में कॉर्पोरेट अतिक्रमण को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से नवउदारवादी परियोजना की तर्ज़ पर किया जा रहा है। किसानी कृषि में कॉरपोरेट का अतिक्रमण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसे अगर जारी रहने दिया गया तो कृषि प्रधान भारत पर कॉरपोरेट कृषि व्यवसाय (जो अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के साथ जुड़ा हुआ है) का दबदबा कायम हो जाएगा।
भारत की केंद्र सरकार ने, किसानी-कृषि में कॉर्पोरेट घुसपैठ की इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए 2020 में तीन कृषि कानून लागू करने की कोशिश की थी। हालांकि, किसानों और श्रमिकों ने संयुक्त रूप से तीन कृषि कानूनों के खिलाफ संघर्ष लड़ा, जो दृढ़ता और राजनीतिक दृष्टि से ऐतिहासिक और अभूतपूर्व था जिसके परिणामस्वरूप भारत की केंद्र सरकार को इन तीन कृषि कानूनों को रद्द करने पर मजबूर होना पड़ा था।
यद्यपि भारत की केंद्र सरकार, विपणन कृषि फसल के लिए गारंटीकृत न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की किसानों की मांग की जांच करने के लिए एक समिति गठित करने पर सहमत हुई थी लेकिन इस मोर्चे पर अभी तक कुछ भी सार्थक काम नहीं हुआ है। संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) और किसान मजदूर मोर्चा (केएमएम) ने केंद्र सरकार से एमएसपी की गारंटी की मांग मनवाने के लिए एक नया आंदोलन शुरू किया है।
एमएसपी एक ऐसा मूल्य है जिस पर सरकार किसानों और अन्य किसानों से, किसी भी मात्रा में विपणन कृषि उपज खरीदने के लिए प्रतिबद्ध होती है। सार्वजनिक रूप से खरीदी गई कृषि उपज का एक हिस्सा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से लक्षित-लाभार्थियों (जिसमें गरीबों का एक हिस्सा शामिल नहीं है) को रियायती कीमतों पर बेचा जाता है। 2004 में, भारत की केंद्र सरकार ने भारतीय किसानों की चिंताओं को जानने के लिए एक समिति की स्थापना की थी, जिसकी अध्यक्षता स्वर्गीय एम॰ एस॰ स्वामीनाथन ने की थी। हालांकि, इसकी अधिकांश सिफारिशें, जो 2006 में पेश की गई थीं, भारत की केंद्र सरकार ने लागू नहीं की थीं।
भारत में एमएसपी पहले से ही एक ऐसी घोषणा रही है जो 23 फसलों को कवर करती है। आमतौर पर, एमएसपी हर प्रकार की कृषि फसल के लिए उसकी खेती की लागत को ध्यान में रखकर तय की जाती है। लेकिन घोषित एमएसपी को अकाउंट/लेखांकन या कृषि में आई लागत के आधार पर तय किया जाता है। अकाउंट/लेखांकन लागत का यह परिमाण अक्सर खर्च किए गए पारिवारिक श्रम की अनुमानित लागत को शामिल करता है। हालांकि, लेखांकन लागत का यह परिमाण फसल वाली भूमि का किराया और पूंजी पर तय ब्याज को शामिल नहीं करता है जो कृषि उत्पादन की लागत का बड़ा आधार है। किसानों और श्रमिकों का तर्क है कि विभिन्न फसलों के लिए एमएसपी में खेती की आर्थिक लागत शामिल होनी चाहिए। गणना की आर्थिक लागत खेती की अकाउंट/लेखांकन लागत ब्याज तथा भूमि कर के योग के बराबर होनी चाहिए। इसके अलावा, कृषि में उत्पादन लागत में वृद्धि (नवउदारवादी नीतियों और प्रथाओं के कारण) और एमएसपी में संशोधन के बीच काफी बड़ा अंतर है।
एमएसपी तभी प्रभावी होगी जब वास्तविक सार्वजनिक खरीद होगी। कृषि उपज की खरीद कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) में होनी होती है। हालांकि, एपीएमसी मंडियों का क्षेत्रीय प्रसार असमान है। उन इलाकों में जहां एपीएमसी मंडियां बहुत दूर हैं, किसान अपनी कृषि-उपज एमएसपी से नीचे कीमतों पर बेचने पर मजबूर होते हैं। कुछ निम्नलिखित उदाहरण इस दावे को स्पष्ट कर देते हैं: मान लीजिए किसी फसल की एमएसपी 10 प्रति यूनिट है जबकि निजी खरीद मूल्य 6 प्रति यूनिट है। यदि खेत से एपीएमसी मंडी तक प्रति इकाई परिवहन लागत पांच है तो किसान अपनी कृषि उपज को निजी खरीददारों को बेचने पर बाध्य होंगे क्योंकि निजी खरीद के कारण उनकी प्रभावी कीमत छह है जबकि सार्वजनिक खरीद के मामले में यह केवल 5 (=10-5) हो जाएगी।
सार्वजनिक खरीद या तो केंद्र सरकार या राज्य सरकारों द्वारा की जा सकती है। केंद्र सरकार के पक्ष में वित्तीय शक्तियों के झुकाव को देखते हुए (जो झुकाव नव-फासीवादी व्यवस्था के कारण बढ़ रहा है), राज्य सरकारों की सार्वजनिक खरीद की क्षमता को सीमित कर देता है।
जब किसान और श्रमिक गारंटीकृत एमएसपी की मांग करते हैं, तो नवउदारवादी नीतियों/परियोजना के समर्थक, मुख्य रूप से यह दावा करके इसके खिलाफ तर्क देते हैं कि यह (प्रत्यक्ष रूप से) वित्तीय रूप से सही नहीं होगा। लेकिन यह तर्क मान्य नहीं है। आइए देखें कैसे।
मान लें कि एमएसपी (पीडीएस के विस्तार सहित) की गारंटी देने की सरकार की लागत 100 रुपए है। अब यह राशि या तो उधार लेकर या कराधान के ज़रिए जुटाई जा सकती है। इन निधियों को उधार लेने का एक सरल साधन सबसे पहले वैधानिक मुद्रा की तरलता के अनुपात में वृद्धि है। इसका कोई प्रतिकूल व्यापक आर्थिक प्रभाव नहीं होगा (क्योंकि बैंक ऋण व्यापक आर्थिक बैंक डिपॉज़िट बनाते हैं)। दूसरे, आवश्यक संसाधन कराधान के माध्यम से जुटाए जा सकते हैं। कराधान का सबसे समीचीन साधन कॉर्पोरेट और वेल्थ टैक्स में वृद्धि करना है। यदि कामकाजी लोगों की बचत शून्य के करीब है (जैसा कि भारत में है), तो सरकारी करों और सरकारी खर्च में समान वृद्धि से मुनाफे का व्यापक आर्थिक परिमाण अपरिवर्तित रह जाएगा। यदि इस बढ़े हुए खर्च को उधार लेकर वित्त-पोषित किया जाता है तो यह वास्तव में मुनाफे के व्यापक आर्थिक परिमाण में वृद्धि करेगा।
पिछले पैराग्राफ में जो दो प्रस्ताव दिए गए थे, वे इस धारणा पर आधारित थे कि अर्थव्यवस्था का व्यापार घाटा शून्य था। हालांकि, भले ही हम व्यापार घाटे की अनुमति देते हैं, एमएसपी की गारंटी की प्रस्तावित नीति व्यापार घाटे में उल्लेखनीय वृद्धि नहीं करेगी क्योंकि कामकाजी लोगों के आयात पर खर्च की तीव्रता पूंजीपतियों की तुलना में कम होने की संभावना है। इसके अलावा, यदि क्षमता के इस्तेमाल की डिग्री में वृद्धि के कारण निवेश बढ़ता है (एमएसपी की गारंटी पर सरकारी व्यय के कारण उत्पादन में वृद्धि होगी) तो मुनाफे की व्यापक आर्थिक परिमाण में वृद्धि होगी।
निम्नलिखित प्रयोगसिद्ध अभ्यास में एमएसपी की गारंटी की लागत और इसे वित्तपोषित करने के लिए संसाधन कैसे जुटाए जाएं, दोनों का अनुमान लगाना है।
आइए बहस के लिए ही सही, भारत में एमएसपी की गारंटी के लिए आवश्यक धनराशि के कथित अनुमान पर विवाद न करें, जिसे करीब 10 लाख करोड़ रुपए आंका जा रहा है। यदि एमएसपी की गारंटी है तो इसका मतलब यह नहीं है कि सरकार को कृषि उपज की पूरी मात्रा सार्वजनिक रूप से खरीदनी होगी। यह पर्याप्त होगा यदि सरकार सार्वजनिक रूप से कृषि उपज का केवल एक अंश, मान लीजिए 50 प्रतिशत खरीदती है, जबकि बाकी खरीद निजी तौर पर की जा खरीद सकती है। पहले वाले को कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है? सरकार को सार्वजनिक रूप से यह घोषणा करनी चाहिए कि कृषि उपज के सार्वजनिक स्टॉक से कोई भी बिक्री एमएसपी से अधिक कीमत पर होगी। इससे कैसे मदद मिलेगी? मान लीजिए एमएसपी 10 है और जिस कीमत पर सरकार निजी बाजार को बेचेगी वह 13 है। तब कोई भी निजी खरीददार किसान से खरीद के लिए एमएसपी का भुगतान करने में विफल नहीं होगा। यह प्रणाली तभी काम करेगी जब कृषि उपज में विदेशी व्यापार को गैर-नवउदारवादी तर्ज पर विनियमित किया जाएगा। यदि परिवहन लागत का विश्व मूल्य शुद्ध (मान लीजिए 12) एमएसपी (मान लीजिए 10) से अधिक है, तो सरकार को एमएसपी पर 2 के बोनस की घोषणा करनी चाहिए ताकि कोई भी किसान या अन्य किसान अपनी कृषि उपज (सीधे या खाद्य फसलों से दूर फसल संरचना में प्रतिकूल परिवर्तन के माध्यम से) को निर्यात करने के लिए मजबूर न हो। जिसके ज़रिए एक हद तक घरेलू खाद्य सुरक्षा से समझौता किया जाता है। इसी तरह, एमएसपी से नीचे की कीमतों पर कृषि उपज के आयात के प्रतिकूल प्रभाव का मुकाबला आयात शुल्क, आयात नियंत्रण और सार्वजनिक खरीद की मात्रा में उचित वृद्धि करके किया जा सकता है।
एमएसपी की सार्वजनिक फंडिंग के लिए 5.2 लाख करोड़ की गारंटी, जिसमें से वर्तमान केंद्र सरकार पहले ही 2.5 लाख करोड़ की राशि रुपये खर्च कर चुकी है। सार्वजनिक वित्त के तीन स्रोतों से 2.7 लाख करोड़ रुपये जुटाए जा सकते हैं। आइए हम उनमें से प्रत्येक की संक्षेप में जांच करें।
सबसे पहले, कुल कर राजस्व में कॉर्पोरेट कर की हिस्सेदारी को 2014 के स्तर पर बहाल करके कॉर्पोरेट कर दरों को युक्तिसंगत बनाया जा सकता है। 1 फरवरी, 2024 को केंद्रीय वित्त मंत्री द्वारा प्रस्तुत अंतरिम बजट के अनुसार, कॉर्पोरेट कर और आय का हिस्सा- 2024-25 (बजट, 2024-25 दस्तावेज़) के दौरान सकल कर राजस्व में कर क्रमशः 27 प्रतिशत और 29 प्रतिशत के होने की उम्मीद है। एक दशक पहले, 2014-15 में अंतरिम बजट दस्तावेज़ के अनुसार, ये संबंधित शेयर 33 प्रतिशत और 22 प्रतिशत था। इसका मतलब यह है कि मोदी सरकार के 10 साल के कार्यकाल (2014-15 से 2024-25) के दौरान, सकल कर-राजस्व में कॉर्पोरेट कर की हिस्सेदारी को कम करके बड़े व्यवसाय के पक्ष में प्रत्यक्ष करों की संरचना में प्रतिकूल परिवर्तन हुआ जिसमें 33 प्रतिशत से 6 प्रतिशत से बढ़ाकर 27 प्रतिशत किया गया जबकि आयकर का हिस्सा 7 प्रतिशत से बढ़ाकर 22 प्रतिशत से 29 प्रतिशत कर दिया गया है। हमारा प्रस्ताव है कि कॉर्पोरेट कर दरों और संग्रह को तर्कसंगत बनाया जाए ताकि कुल राजस्व में कॉर्पोरेट कर राजस्व का हिस्सा अपने वर्तमान स्तर 27 प्रतिशत से बढ़कर 2014-15 के 33 प्रतिशत के स्तर तक पहुंच जाए।
दूसरा, उन लोगों पर (प्रगतिशील) संपत्ति कर लागू करें जिनकी संपत्ति 10 करोड़ रुपये से अधिक है।
तीसरा, एमएसपी की गारंटी के लिए आवश्यक धन का एक हिस्सा जुटाने के लिए वाणिज्यिक बैंकों के वैधानिक मुद्रा तरलता अनुपात को बढ़ाया जाना चाहिए।
बता दें कि सार्वजनिक वित्त के ये तीन स्रोत एक्स रुपये में धन पैदा करते हैं। यदि सरकार एमएसपी की गारंटी देने के लिए अतिरिक्त एक्स रुपये खर्च करती है। तो किसानों के द्वारा इसका अधिकांश हिस्सा खर्च करने की संभावना है। इससे उत्पादन और कर राजस्व में वृद्धि होगी (जैसा कि पहले तर्क दिया गया था)। यदि हम मान लें कि उत्पन्न कुल कर राजस्व (प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के रूप में) (इस प्रकार) सरकारी व्यय का पांचवां हिस्सा है तो 0.2*एक्स धन सरकार में वापस आएगा। दूसरे शब्दों में, एमएसपी की गारंटी के लिए सरकार का शुद्ध अतिरिक्त व्यय 0.8*एक्स रुपए होगी। हम अगले पैराग्राफ में शामिल विभिन्न स्रोतों का अनुमानित संख्यात्मक अनुमान प्रदान करेंगे।
तालिका 1 में आंकड़ा अतिरिक्त संसाधनों की संरचना का अनुमानित विवरण दिखाता है जिन्हें 2024-2025 में सकल कर-राजस्व के अनुपात के रूप में बढ़ाने की आवश्यकता है (अनुमानित 38.31 लाख करोड़ रुपये या सटीक राशि 38,30,796.40 रुपये के रूप में) एमएसपी की गारंटी के लिए (बजट 2024-25 के अनुसार) 2.7 लाख करोड़ रुपए होगा।
चित्र का निर्माण लेखकों द्वारा बजट डेटा 2024-25 का उपयोग करके किया गया है
यह आंकड़ा रुपये की मात्रा और शेयर दोनों को दर्शाता है। ऊपर निर्धारित चार स्रोतों से 2.7 लाख करोड़ (सकल कर-राजस्व का 7 प्रतिशत), अर्थात, (i) कॉर्पोरेट टैक्स से 1.15 लाख करोड़ रुपए (3 प्रतिशत), (ii) संपत्ति पर संपत्ति कर से 0.77 लाख करोड़ (2 प्रतिशत) रूपए जिसे 10 करोड़ रुपए से अधिक संपत्ति पर लगया जाएगा, (iii) वाणिज्यिक बैंकों के तर्कसंगत वैधानिक मुद्रा तरलता अनुपात (एसएलआर) से 0.38 लाख करोड़ रुपए (1 प्रतिशत) और (iv) एमएसपी की गारंटी के लिए केंद्र सरकार के व्यय के तीन अन्य स्रोतों (कॉर्पोरेट और संपत्ति कर के साथ-साथ तर्कसंगत एसएलआर) के कारण किसानों की आय में वृद्धि से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के कर-आधार में विस्तार से 0.38 लाख करोड़ (1 प्रतिशत) रुपए आएगा।
इसका मतलब यह है कि एमएसपी पर 50 प्रतिशत कृषि उपज की सार्वजनिक खरीद के लिए एमएसपी की गारंटी के लिए 5.2 लाख करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी। यह जताने के बाद कि "संसाधनों की कमी" का तर्क एमएसपी गारंटी को बाधित करने के लिए मान्य नहीं है, आइए अब संक्षेप में अंतर्निहित राजनीतिक अर्थव्यवस्था की जांच करें।
सार्वजनिक खरीद करने में केंद्र सरकार का रिकॉर्ड भारत में नवउदारवादी परियोजना में एक प्रमुख तत्व होने के कारण तय होता है। पहला, जैसा कि पहले तर्क दिया गया था कि सार्वजनिक खरीद को कम करने के लिए एपीएमसी मंडियों की साइटों को रणनीतिक रूप से फैलाया गया है। दूसरा, (और जैसा कि पहले तर्क दिया गया था), वर्तमान एमएसपी कृषि उत्पादन की वर्तमान (आर्थिक तो छोड़िए) लागत को भी नहीं दे पाता है। तीसरा, सार्वजनिक खरीद के समय और किसानों को भुगतान अक्सर काफी देर बाद किया जाता है। ये तीनों कारक कृषि संकट को बढ़ाते हैं। एक गारंटीकृत एमएसपी के लिए निम्नलिखित पंक्तियों के साथ सभी तीन कारकों पर काबू पाने की आवश्यकता होगी।
सबसे पहले, सार्वजनिक खरीद की क्षेत्रीय और फसल विसंगति को ठीक किया जाना चाहिए ताकि कोई भी किसान एमएसपी से नीचे अपनी कृषि उपज बेचने के लिए मजबूर न हो। इसे किसी राज्य में सार्वजनिक खरीद को कम करके नहीं बल्कि केवल उन राज्यों में सार्वजनिक खरीद को बढ़ाकर हासिल किया जाना चाहिए जहां एमएसपी की गारंटी देने में कमी है।
दूसरे, एमएसपी में वृद्धि से कृषि उपज के निजी बाजार मूल्य में वृद्धि हो सकती है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) का दो तरीकों से विस्तार करके इसका मुकाबला किया जा सकता है। पहला, लक्षित पीडीएस से सार्वभौमिक पीडीएस की ओर बढ़ना। इससे कामकाजी लोगों पर किसी भी मूल्य वृद्धि का प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। दूसरा, पीडीएस के माध्यम से जारी की जाने वाली वस्तुओं की संख्या का विस्तार करना। हालांकि पीडीएस के माध्यम से बिक्री से सरकार को मिलने वाला राजस्व बहुत महत्वपूर्ण नहीं होगा लेकिन इससे स्टॉक में रखी गई सार्वजनिक रूप से खरीदी गई कृषि उपज की भंडारण लागत कम हो जाएगी।
फिलहाल एमएसपी महज़ एक नीतिगत फैसला है और इस पर संसद का कोई कानून नहीं है जो इसे पूरे देश में लागू करने की गारंटी दे सके। एमएसपी लागू करने के हालिया ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए, जो किसान कृषि में कॉर्पोरेट अतिक्रमण को आगे बढ़ाने के एक साधन के रूप में विकसित हो रहा है, किसान और श्रमिक दोनों ही कृषि संकट के और बढ़ने के बारे में आशंकित हैं। इसलिए, वे ऋण माफी, सार्वभौमिक पेंशन आदि की संबंधित मांगों के साथ-साथ कृषि उपज के लिए गारंटीकृत एमएसपी की अपनी मांग दोहरा रहे हैं। अपने संघर्ष के माध्यम से किसान न केवल भारत में नवउदारवादी परियोजना का विरोध कर रहे हैं बल्कि नव-फासीवाद का भी मुकाबला कर रहे हैं जो उन पर हावी हो रहा है।
नरेंद्र ठाकुर दिल्ली विश्वविद्यालय के बीआर अंबेडकर कॉलेज के अर्थशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। सी. शरतचंद दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में अर्थशास्त्र विभाग में प्रोफेसर हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।
मूल अंग्रेजी लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
On the Peasant Demand for a Guaranteed Minimum Support Price
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