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इप्टा का 80वां स्थापना दिवस : इंक़लाबी इतिहास और मौजूदा दौर की चुनौतियां

इप्टा एक ऐसा अज़ीम आंदोलन बना जिसने पूरे मुल्क़ में न सिर्फ़ लोक कलाओं की परिवर्तनकारी ताक़त को पहचाना बल्कि मेहनतकश अवाम को भी इससे जोड़ा।
IPTA

‘‘लेखक और कलाकार आओ, अभिनेता और नाटककार आओ, हाथ से और दिमाग़ से काम करने वाले आओ और स्वयं को आज़ादी और सामाजिक न्याय की नयी दुनिया के निर्माण के लिये समर्पित कर दो।’’ आज से 80 साल पहले 25 मई, 1943 को मुंबई के मारवाड़ी हाल में प्रो. हीरेन मुखर्जी ने इंडियन पीपल्स थियेटर एसोसिएशन यानी इप्टा की स्थापना के अवसर पर इस आयोजन की अध्यक्षता करते हुए, जब संस्कृतिकर्मियों और कलाकारों से ये क्रांतिकारी आह्वान किया था, तब उन्होंने भी यह नहीं सोचा होगा कि इप्टा आगे चलकर देश में एक ऐसा सांस्कृतिक पुनर्जागरण करेगा, जिससे न सिर्फ़ कला और संस्कृति में नए आयाम जुड़ेंगे, बल्कि ये सांस्कृतिक आंदोलन बड़े पैमाने पर अवाम को आज़ादी के लिए बेदार करेगा। ये वक़्त का तक़ाज़ा था या फिर इप्टा का करिश्मा कि देश की सभी ललित कलाओं काव्य, नाटक, गीत, पारंपरिक नाट्यरूप आदि से जुड़े हुए हज़ारों लेखक, कलाकार, संस्कृतिकर्मी और बुद्धिजीवी इसकी ओर खिंचे चले आए और कारवां बनता चला गया।

यह वह ज़माना था जब नाटक, गीत-संगीत, नृत्य, चित्रकला, लेखन, फ़िल्म से जुड़ा शायद ही कोई ऐसा शख़्स होगा, जो इप्टा से न जुड़ा हुआ हो और जिसे इस संगठन ने अपनी ओर आकर्षित न किया हो। पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, दमयंती साहनी, चेतन आनंद, ज्योतिरेंद्र मोइत्रा, बिजोन भट्टाचार्य, हबीब तनवीर, शंभु मित्रा, तृप्ति मित्रा, ज़ोहरा सहगल, दीना पाठक, उत्पल दत्त, राजेन्द्र रघुवंशी जैसे आला दर्जे के कलाकार, कृश्न चंदर, सज्जाद ज़हीर, अली सरदार जाफ़री, डॉ. रशीद जहां, इस्मत चुग़ताई, ख़्वाजा अहमद अब्बास जैसे उर्दू के नामचीन लेखक, उदयशंकर, शांति बर्धन, गुल बर्धन, रेखा जैन, शचिन शंकर, नागेश जैसे मुल्क़ के उम्दा नर्तक, पं. रविशंकर, सलिल चौधरी, हेमांग विश्वास, अबनी दासगुप्ता, अनिल विश्वास, भूपेन हजारिका जैसे शानदार संगीतकार, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, मख़दूम मोहिउद्दीन, कैफ़ी आज़मी, साहिर लुधियानवी, शैलेंद्र, प्रेम धवन जैसे इंक़लाबी शायर—गीतकार, बिनय राय, अण्णा भाऊ साठे, अमर शेख़, दशरथ लाल जैसे होनहार लोक गायक, फोटोग्राफर-सुनील जाना, निर्देशक अनिल डी सिल्वा, भीष्म साहनी, एके हंगल, एमएस सथ्यू, निरंजन सेन, ऋत्विक घटक और चित्तोप्रसाद, रामकिंकर बैज, ज़ैनुल आबिदीन, सोमनाथ होर जैसे बेमिसाल चित्रकार इप्टा की शान बढ़ाते थे। उसमें चार चांद लगाते थे।

इन लेखक, कलाकार, गीतकार, नर्तक, संगीतकार और नाटककारों ने इप्टा के मार्फ़त हिन्दुस्तानी तहज़ीब में नए रंग भरे। उसका आकाश सतरंगी किया। मुल्क़ की आज़ादी के लिए अथक कोशिशें कीं। अपनी दीगर मसरूफ़ियत के बावजूद, ये संस्कृतिकर्मी इप्टा के लिए ज़रूर समय निकालते थे। संगठन की मक़बूलियत कुछ इस क़दर बढ़ी कि मुल्क के कोने-कोने में हर जगह इसके हज़ारों हमसफ़र और हिमायती हो गए। एक वक़्त ऐसा भी आया, जब देश के 22 राज्यों में तक़रीबन 12 हज़ार से ज़्यादा कलाकार इप्टा से सक्रिय तौर पर जुड़े हुए थे और अपने कामों से अवाम में जनचेतना फैला रहे थे। इप्टा का ये सुनहरा दौर था। उस दौर में इप्टा एक ऐसी संस्था बनी, जो सीधे तौर पर अवाम से जुड़ी और अवाम को भी अपने साथ जोड़ा।

बंगाल का भीषण अकाल हो, या जापान का साम्राज्यवादी हमला या फिर आज़ादी की जद्दोजहद, इप्टा ने अपने जनगीतों और नाटकों को देशवासियों की आवाज़ बनाया। जनगीतों और नाटकों के ज़रिए समाज को जागृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आलम यह था कि अपने शुरुआती दौर में इप्टा ने, सिर्फ़ परफॉर्मिंग आर्ट का एक प्लेटफार्म न होकर, एक तहरीक की शक्ल इख़्तियार कर ली थी। जिसमें वतन के लोग बड़ी तादाद में ख़ुशी-ख़ुशी शामिल हो रहे थे। इप्टा के गठन की पृष्ठभूमि में यदि जाएं, तो इसके पीछे देश में घटा एक बड़ा वाक़्या है। साल 1943 में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा। इस अकाल में तक़रीबन तीस लाख लोग भूख से मारे गए। वह तब, जब देश में अनाज की कोई कमी नहीं थी। गोदाम भरे पड़े हुए थे, लेकिन लोगों को अनाज नहीं मिल रहा था। एक तरफ लोग भूख से तड़प-तड़पकर मर रहे थे, दूसरी ओर अंग्रेज़ सरकार के कान पर जूं तक नही रेंग रही थी। ऐसे अमानवीय और संवेदनहीन हालात में, बंगाल अकाल पीड़ितों के लिए राहत जुटाने के वास्ते ख़ुद देशवासी आगे आए और उन्होंने ‘बंगाल कल्चरल स्क्वॉड’ स्थापित किया। इस सांस्कृतिक दल ने बंगाल में घूम-घूमकर अपने नाटक ‘नबान्न’ और ‘जबानबंदी’ के ज़रिए अकाल पीड़ितों के लिए चंदा इकट्ठा किया।

‘बंगाल कल्चरल स्क्वॉड’ के इन नाटकों की लोकप्रियता ने ही इप्टा के स्थापना की प्रेरणा दी। कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े बुद्धिजीवियों और तरक़्क़ीपसंद तहरीक से जुड़े लेखक-कलाकारों ने सोचा कि यूरोप के ‘यूनिटी थियेटर’, अमेरिका के ‘रिवोल्यूशनरी थियेटर’ और चीन के ‘पीपल्स थियेटर’ की तर्ज़ पर हिन्दुस्तान में भी एक पीपल्स थियेटर यानी अवामी थियेटर का गठन किया जाए। ये थियेटर देश भर में न सिर्फ़ आज़ादी की अलख जगाए, बल्कि सामाजिक बुराईयों अशिक्षा और अंधविश्वास आदि से भी लोहा ले। देशवासियों में एकता का पैग़ाम पहुंचाए। बहरहाल, इस थियेटर को आकार देने में शुरुआती काम किया श्रीलंकाई मूल की महिला अनिल डी सिल्वा ने। उन्हीं की कोशिशों का ही नतीजा था कि बहुत से हम-ख़्याल लोग एक साथ आते चले गए और मुंबई में बाक़ायदा ‘इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन’ का गठन हुआ। इस बात का बहुत कम लोगों को इल्म होगा कि इप्टा का नामकरण मशहूर वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा ने किया था, तो वहीं इप्टा का प्रतीक चिन्ह ‘कॉल आफ द ड्रम्स’ प्रसिद्ध चित्रकार चित्तप्रसाद ने बनाया था। संगठन का नारा बना, ‘इप्टा की नायक जनता है।’

मुंबई में इप्टा का पहला अखिल भारतीय सम्मेलन हुआ, जिसके अध्यक्ष ट्रेड यूनियन लीडर एनएम जोशी और महासचिव अनिल डी सिल्वा चुनी गईं। बिनय राय, ख़्वाजा अहमद अब्बास, मख़दूम मोहिउद्दीन, डांगे, सज्जाद ज़हीर, मनोरंजन भट्टाचार्य, डॉ. राजा राय वगैरह को अलग—अलग ओहदे सौंपे गए। इस मौक़े पर एक प्रस्ताव पारित किया गया, जो इप्टा का घोषणा-पत्र है। इसमें स्पष्ट तौर पर कहा गया कि‘‘इंडियन पीपल्स थियेटर एसोसिएशन के तत्वावधान में आयोजित यह सम्मेलन रंगमंच और परंपरागत कलाओं को पुनर्जीवित करने और साथ ही उन्हें स्वतंत्रता, सांस्कृतिक प्रगति और आर्थिक न्याय के लिए लोगों के संघर्ष को अभिव्यक्ति और संगठन का माध्यम बनाने और पूरे भारत में जन थिएटर आंदोलन शुरू करने की तत्काल आवश्यकता को स्वीकार करता है।’’

इतिहास ग़वाह है, आगे चलकर इप्टा अपने इस ऐलान पर पूरी तरह से खरा उतरा। इप्टा का जन्म, वैसे तो अंग्रेज़ी हुकूमत और फ़ासिस्ट ताक़तों के विरोध में हुआ था, लेकिन देखते-देखते उसने एक जन आंदोलन का रूप ले लिया। इप्टा एक ऐसा अज़ीम आंदोलन बना जिसने पूरे मुल्क़ में न सिर्फ़ लोक कलाओं की परिवर्तनकारी ताक़त को पहचाना बल्कि मेहनतकश अवाम को भी इससे जोड़ा। किसान आंदोलन के लिए किसानों को जागृत और संगठित किया। किसानों के बीच जब नाटक, छोटे-छोटे रूपक खेले जाते या जनगीत, ग़ज़ल, नज़्में पढ़ी जातीं, तो उनमें एकता, संगठन और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ जद्दोजहद का ज़बर्दस्त जज़्बा पैदा होता। आज़ादी के आंदोलन के दौरान यह वाक़ई एक बड़ा कारनामा था।

इप्टा के साथी अवाम को जागरूक करने के लिए लोक कलाओं का किस तरह से इस्तेमाल कर रहे थे, यदि इसे जानना है तो ‘पीपल्स वार’ में 21 जनवरी 1945 को छपे लेख का यह अंश देखना लाज़मी होगा। ‘‘केरल के कय्यूर शहीदों की कथा को लोकप्रिय बनाने के लिए इप्टा के कलाकार दयाल कुमार ने ‘पांचाली’ रूप का प्रयोग और दुलाल रॉय ने लेनिनग्राद की रक्षा का जोशीला विवरण देने के लिए ‘कीर्तन’ को अंगीकार किया। एक मौखिक साक्षात्कार में दुलाल रॉय ने ज़ोर देकर कहा कि उन्होंने ‘तर्जा’ रूप के साथ प्रयोग किया और अपने नए संदेश के अनुकूल मुकंददास के ‘स्वदेशी जात्रा’ और नज़रुल इस्लाम के गीतों से धुनों का समावेश किया। आंध्र में ‘बुर्राकथा' का नए ढंग से प्रयोग हुआ। अण्णाभाऊ साठे और गावंकर जैसे प्रतिभावान कलाकारों सहित बंबई दल ने ‘तमाशा’ और ‘पोवाड़ा’ रूपों को नया जीवन दिया और बंबई मज़दूरों तथा ग्रामीण इलाकों में ये प्रयोग किए। उन्होंने भारी संख्या में दर्शकों को आकर्षित किया।’’ आगे चलकर इन नाटकों में ‘कोलट्टम’ (छड़ी नृत्य), ‘जरी नृत्य’, ‘बाउल’, ‘लंबाड़ी नृत्य’, ‘गजन’, ‘रामलीला’ जैसी लोककलाओं का भी सफलतापूर्वक इस्तेमाल हुआ।

इप्टा की तत्कालीन गतिविधियों का केंद्र मुंबई था, लेकिन बंगाल, आसाम, पंजाब, दिल्ली, संयुक्त प्रांत, मालाबार, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु में भी प्रांतीय समितियां बनी। इप्टा की अहमियत को बयां करते हुए सज्जाद ज़हीर अपनी किताब ‘रौशनाई’ में लिखते हैं,‘‘देश के विभिन्न हिस्सों में पीपल्स थियेटर की सफल स्थापना हमारे सांस्कृतिक विकास के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी। इसके कार्यकर्ता अक्सर वे नौजवान लड़के और लड़कियां थीं, जो राजनीतिक कार्यकर्ता भी थे और जिनमें से अधिकांश देश के जनतांत्रिक आंदोलनों से जुड़े हुए थे। इनके व्यक्तित्व और अवामी थियेटर में कला, राजनीति और संस्कृति का भेदभाव नहीं होता था। इनका सारा जीवन वतनी आज़ादी और जनवाद की जीत के प्रयासों के लिए समर्पित था। इसलिए इनकी कला जाने-अनजाने उसी महान राष्ट्रीय अभियान और संघर्ष का एक हिस्सा और पहलू थी।’’

बहरहाल ‘बंगाल कल्चरल स्क्वॉड’ की प्रस्तुतियों और कार्यशैली से प्रभावित होकर बिनय राय के नेतृत्व में इप्टा के सबसे सक्रिय समूह ‘सेंट्रल ट्रूप’ का जुलाई, 1944 में गठन हुआ। जिसमें पूर्णकालिक कार्यकर्ता शामिल थे। इप्टा के इस सेंट्रल स्क्वॉड यानी केन्द्रीय दल में अबनी दासगुप्ता, शांति बर्धन, प्रेम धवन, पंडित रविशंकर, मराठी के मशहूर गायक अमर शेख़, ख्वाजा अहमद अब्बास के अलावा देश के विविध क्षेत्रों की विविध शैलियों से संबंधित सदस्य एक साथ रहते। इनके साहचर्य ने ‘स्प्रिट ऑफ इंडिया’, ‘इंडिया इमोर्टल’, ‘कश्मीर’ जैसी लाजवाब पेशकशों को जन्म दिया। ‘स्प्रिट ऑफ इंडिया’ के बारे में केन्द्रीय दल की पहली स्मारिका में जिक्र मिलता है कि‘‘वह सिर्फ नृत्य नाटक नहीं बल्कि देशभक्ति पूर्ण शानदार प्रदर्शन था। इसमें साम्राज्यवाद, सामंतवाद और नवसाम्राज्यवादी पूंजीवाद के तिहरे अभिशाप के अधीन लोगों की दुर्दशा को दर्शाया गया था और उसका समापन लोगों की एकता से उत्पन्न आशा की भावना के साथ होता था।’’

साल 1943-44 के दरमियान ही इप्टा की बंगाल शाखा ने ‘बंगाल स्क्वॉड’ तैयार किया। इस दल ने पंजाब, मुंबई, महाराष्ट्र और गुजरात में घूम-घूम कर अपने कार्यक्रमों के ज़रिए बंगाल के अकाल पीड़ितों के लिए लाखों रुपये का चंदा इकट्ठा किया। इस दल की सर्वाधिक लोकप्रिय प्रस्तुति बिनय राय की संक्षिप्त नाटिका ‘मैं भूखा हूं’ और उषा दत्त का ‘हंगर डांस’ था। इसके अलावा ‘भूखा है बंगाल रे साथी, भूखा है बंगाल’, वामिक़ जौनपुरी का ये गीत लोगों के दिलों पर गहरा असर छोड़ता था। यह गीत जैसे बंगाल के अकाल पीड़ितों की आवाज़ बन गया। वामिक़ जौनपुरी के इस गीत की तारीफ़ करते हुए अपनी किताब ‘रौशनाई’ में सज्जाद ज़हीर ने लिखा है, ‘‘तरक़्क़ीपसंद अदब की तारीख़ में वामिक़ का यह तराना सही मायने में सोने के हरूफ़ से लिखे जाने लायक़ है। वह वक़्त की आवाज़ थी। वह हमारी इंसान दोस्ती की भावना को सीधे-सीधे उभारता था।’’

इप्टा के ‘बंगाल स्क्वॉड’ और ‘सेंट्रल स्क्वॉड’ दल के कार्यक्रमों ने बंगाल के अकाल के प्रति देश के दूसरे हिस्सों में बंधुत्व का भाव पैदा किया। किसानों, मज़दूरों और मध्यम वर्ग को तकलीफ़ झेल रही बंगाल की जनता से जोड़ा। इप्टा के इस योगदान की जितनी भी चर्चा की जाए कम है। इप्टा ने अपने आप को यहीं तक सीमित नहीं कर लिया। मेहनतकशों, कामगारों पर जब भी कोई मुसीबत आती, वह उनकी आवाज़ बनता। जन गीतों एवं नाटकों के ज़रिए एकता का पैग़ाम देकर, उन्हें संघर्ष के लिए खड़ा करता। इस सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना का ही नतीजा था कि देश में आज़ादी के हक़ में माहौल बनता चला गया। लोग अपने अधिकारों के प्रति जागृत हो गए। और वह दिन भी आया, जब अंग्रेज़ों की गुलामी से मुल्क आज़ाद हो गया।

इप्टा के इंक़लाबी आंदोलन ने रंगमंच के क्षेत्र में भी युगांतकारी परिवर्तन किए। जो नाटक, गीत, संगीत थिएटर हॉल की बंद दीवारों के भीतर महदूद था, उसे वह लोगों के बीच बाहर लेकर आया। कला, अब कला के लिए नहीं, ज़िंदगी के लिए थी। गलियों, सड़कों, खेतों और कारख़ानों पर हर जगह नाटक खेले जाने लगे। एक अहम बात और, इस सांस्कृतिक आंदोलन से पहले भारतीय संगीत में कोरस यानी सामूहिक गान की अहमियत नहीं थी। अलबत्ता लोकगीतों में ये परंपरा ज़रूर थी। इप्टा ने सामूहिक गान को मुख्य धारा के संगीत का अहम हिस्सा बनाया।

इप्टा के गीतों की ख़ासियत ये थी कि वे जोशीले थे, लोगों को आंदोलित करते थे। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, साहिर लुधियानवी, मख़दूम, शैलेंद्र, प्रेम धवन, रांगेय राघव, राजेन्द्र रघुवंशी, कैफ़ी आज़मी जैसे शायर, गीतकार जब कोई नज़्म या गीत लिखते, तो वह नारे बन जाते। हज़ारों लोगों के हुजूम में जब यह नज्म, गीत गाये जाते, तो लोग आंदोलित हो जाते। इप्टा के ऐसे कई जनगीत और नज़्म हैं, जो आज भी किसान और ट्रेड यूनियनों की बैठकों व आंदोलन में जोश से गाए जाते हैं। मसलन ‘हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है’, ‘तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत पर यक़ीन कर, अगर कहीं भी स्वर्ग है उतार ला ज़मीन पर’ (शैलेन्द्र), ‘हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’ (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़), 'जाने वाले सिपाही से पूछो, वो कहां जा रहा है’ (मख़दूम), ‘भड़का रहे हैं आग लबे नग़्मागार से हम, ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम’, ‘सरकश बने हैं गीत बगावत के गाये हैं/बरसों नए निज़ाम के नक्शे बनाये हैं।’ ‘‘वह सुबह कभी तो आएगी/बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर, यह भूख के और बेकारी के।’ (साहिर लुधियानवी), ‘बापू बोल-बोल-बोल, जिन्ना बोल-बोल-बोल, ये है देश की पुकार।’, ‘‘वोल्गा हो या गंगा हो, रोमन हो या यांग्सीक्यांग, सबकी एक लड़ाई है, दुनिया की आज़ादी की।’ (रांगेय राघव) और ‘ओ रे मज़दूर, तू काहे मजबूर, तेरी कु़र्बानियां ज़िंदगानी’’ (राजेन्द्र रघुवंशी)।

कथ्य, कहानी और विचार के स्तर पर ही नहीं इप्टा के ’नबान्न’, ‘जबानबंदी’, ‘रामलीला’, ‘यह है अमृता’, ‘पर्दे के पीछे’, ‘परछाइयां’, ‘हरी चूड़ियां’, ‘भूत गाड़ी’ और ’ज़ुबैदा’ जैसे नाटकों ने सैट डिज़ाइन, अभिनय, प्रस्तुति के स्तर पर भी भारतीय रंगमंच की तस्वीर को पूरी तरह से बदल दिया। इप्टा ने देश में जनवादी, यथार्थवादी नाटकों की नींव रखी। नाटक के केंद्र में आम आदमी आया। नाटक जनता एवं उनकी समस्याओं पर लिखे जाने लगे। इप्टा द्वारा खेले जाने वाले नाटकों की एक लंबी फेहरिस्त है, जो अपने शानदार कथ्य और ट्रीटमेंट की बदौलत आज भी लोगों द्वारा ख़ूब पसंद किए जाते हैं।

मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ पर आधारित नाटक ‘होरी’, जिसे विष्णु प्रभाकर ने लिखा। ‘ये किसका ख़ून है’ (अली सरदार जाफ़री), ‘धरती के लाल’ (ख़्वाजा अहमद अब्बास), ‘जादू की कुर्सी’ (बलराज साहनी), ‘आख़िरी शमां’ (कैफ़ी आज़मी), ‘ख़ालिद की ख़ाला’ (क़ुदसिया ज़ैदी), चरणदास चोर (हबीब तनवीर), ‘कबीरा खड़ा बाज़ार में’ (भीष्म साहनी) के अलावा प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘सत्याग्रह’ पर सफ़दर हाशमी और हबीब तनवीर ने मिलकर नाटक ‘मोटेराम का सत्याग्रह’ लिखा, जिसका निर्देशन एमएस सथ्यू ने किया, तो वहीं ‘शतरंज के मोहरे’ कहानी पर न सिर्फ़ नाटक लिखा गया, बल्कि खेला भी गया। इन नाटकों के अलावा ‘ताजमहल का टेंडर’, ‘हम दीवाने, हम परवाने’, ‘एक बार फिर’, ‘सैंया भये कोतवाल’, ‘कशमकश’ आदि इप्टा के मशहूर नाटकों में से एक हैं।

इप्टा ने भारतीय रंगमंच के साथ-साथ भारतीय सिनेमा पर भी गहरा असर छोड़ा। इप्टा से निकले कलाकारों, गीतकारों और निर्देशकों का ही असर था कि फ़िल्मों में यथार्थवाद ने दस्तक दी। इप्टा ने एक फ़िल्म ‘धरती के लाल’ भी बनाई। जो बलराज साहनी की पहली फ़िल्म थी। यह मूल रूप से बंगाली नाटक ‘नबान्न’ और ‘जबानबंदी’ पर आधारित थी। जिसका निर्देशन ख़्वाजा अहमद अब्बास ने किया था। इसके गीत अली सरदार जाफ़री और प्रेम धवन ने लिखे और पंडित रविशंकर ने इसका संगीत तैयार किया था। फ़िल्म व्यावसायिक तौर पर भले ही कामयाब नहीं हुई हो, लेकिन इसने भारतीय सिनेमा में एक नई धारा को जन्म दिया। ‘नीचा नगर’, ‘दो बीघा ज़मीन’, ‘पाथेर पांचाली’, ‘दो आंखें, बारह हाथ’, ‘नया दौर’, ‘आवारा’ इस धारा की प्रमुख फ़िल्में हैं।

इप्टा ने अपने संगठन में हमारी आधी आबादी महिलाओं को हमेशा तवज्जोह दी। डॉ. रशीद जहां, दीना गांधी, ज़ोहरा सहगल, तृप्ति मित्रा, गुल बर्धन, दीना पाठक, शीला भाटिया, शांता गांधी, रेबा रॉय चौधरी, रूबी दत्त, दमयंती साहनी, ऊषा दत्त, क़ुदसिया ज़ैदी, गौरी दत्त, प्रीति सरकार, नूर धवन, अरुणा रघुवंशी, बिंदु अग्रवाल और रेखा जैन जैसी जुझारू महिलाओं से इप्टा का कारवां बनता है। इन महिलाओं ने इप्टा में मिली अलग-अलग भूमिकाओं को सफलतापूर्वक निभाया। अभिनय, गायन, नृत्य, निर्देशन से लेकर उन्होंने नाटक तक लिखे। इप्टा ने महिलाओं की समस्याओं को नाटकों का मुख्य विषय बनाया। उन्हें एक आवाज़ दी। इप्टा को यह सब करने के लिए ऐसा नहीं कि देश में उसे हमेशा ख़ुशग़वार माहौल मिला, आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद भी उसे सरकारी दमन, पाबंदियों का सामना करना पड़ा। कई जगहों पर उसके जनगीतों, नाटकों और कार्यक्रमों पर पाबंदी लगी। अंग्रेज़ी हुक़ूमत के साथ-साथ संकीर्णतावादियों ने भी इप्टा के नाटकों का विरोध किया। नाटक खेलने में कई तरह की अड़चनें पैदा कीं। नाटक करने की वजह से कुछ साथियों को जेल हुई, तो कुछ मारे भी गए। बावजूद इसके इप्टा नाट्यकर्म करती रही। अपने उद्देश्यों से जरा सा भी नहीं भटकी। देश की आज़ादी को एक लंबा अरसा गुज़र गया, लेकिन इप्टा आज भी अपने महान उद्देश्यों पर क़ायम है। सामाजिक, सांस्कृतिक जागरण के कामों में उसकी कोई कमी नहीं आई है। मनुष्य की वास्तविक आज़ादी, वर्गविहीन समाज और सामाजिक न्याय उसके प्रमुख लक्ष्यों में शामिल है। देश में समाजवाद आए, आज भी उसका एक सपना है।

बहरहाल, आज़ादी के पहले इप्टा के सामने जो चुनौतियां थीं, आज उस तरह की कोई चुनौती नहीं। लेकिन जो भी चुनौतियां हैं, वह कम नहीं। इप्टा के सामने सबसे बड़ी चुनौती, सांगठनिक तौर पर मज़बूत होना है। देश के बंटवारे और कम्युनिस्ट आंदोलन के बिखराव ने संगठन के स्तर पर इसमें बहुत बड़ी शिथिलता आई है। इप्टा को भारी नुकसान पहुंचा है। नये कलाकार, लेखक, निर्देशक इससे जुड़ नहीं रहे और जो जुड़ते हैं, उनमें वह वैचारिकता एवं संगठन के प्रति प्रतिबद्धता नहीं। रंगमंच, टेलीविजन या फ़िल्म में करियर की ख़ातिर वे इप्टा से जुड़ते हैं। थोड़ा सा ही मुक़ाम पाते ही, वे इससे अलग हो जाते हैं। यही नहीं, संगठन की नई इकाईयां बन नहीं रहीं। और जो हैं,वे ठीक ढंग से काम नहीं कर रहीं। उनके ऊपर कई तरह के दबाव हैं। कभी अच्छी स्क्रिप्ट, कलाकार, तो कभी फंड के अभाव में नाटक नहीं हो पाते।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जिस तरह देश के अंदर आए दिन हमले होते रहते हैं, उसने नाट्यकर्म को और भी ज़्यादा मुश्किल बना दिया है। कोई भी हुकूमत हो, वह नहीं चाहती कि कोई उसकी जन विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाए। अवाम को उसके हुक़ूक़ और इंसाफ़ के लिए बेदार करे। यही वजह है कि इप्टा और उस जैसे तमाम जन संगठनों को सत्ता की सरपरस्ती हासिल नहीं। उल्टे हुकूमत इस तरह के जनवादी, प्रगतिशील संगठनों और उससे जुड़े लेखकों—कलाकारों को परेशान करने का कोई मौक़ा अपने हाथ से जाने नहीं देती। उनकी हर गतिविधि पर नज़र रखी जाती है। आगे इस माहौल में कोई तब्दीली आएगी, इस बात का इंतज़ार किए बिना, इप्टा और इप्टा से जुड़े सभी लेखक, कलाकारों, निर्देशकों का दायित्व है कि वे अपने इंक़लाबी इतिहास से प्रेरणा लेकर एक सुनहरे भविष्य के निर्माण की दिशा में आगे बढ़ें। जनपक्षीय सांस्कृतिक आंदोलन का पूरे देश में विस्तार करें। क्योंकि मौजूदा सियासी हालात में यह आंदोलन पहले से भी कहीं ज़्यादा ज़रूरी है।

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