जब भारत सोता रहा
इस बात को समझने के लिए बेहद सामान्य बुद्धि की आवश्यकता है कि आधुनिक युद्धों को केवल पारम्परिक सैन्य संतुलन की मदद से निर्णायक नहीं बनाया जा सकता। यदि ऐसा संभव होता तो ध्रुवीय शक्तियों को द्वितीय विश्व युद्ध में, सोवियत को शीत युद्ध में या अमेरिकियों को विएतनाम युद्ध के दौरान हार का मुँह नहीं देखना पड़ता। आख़िरकार निर्णायक तौर पर जो चीज मायने रखती है वह यह है कि किसी देश की हुकूमत की आंतरिक शक्ति कितनी सुदृढ़ है। किसी भी प्रतिकूल परिस्थितियों से निपटने के लिए वह कितनी फौलादी दृढ इच्छाशक्ति के साथ मुकाबला करने के लिए तैयार है।
इस सबके पीछे बेहद सुदृढ़ और समतामूलक आर्थिक तौर पर एकीकृत समाज और सटीक अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की भूमिका छिपी होती है। वैसे भी भारत-चीन मुकाबले की अंतिम पटकथा को अभी लिखा जाना शेष है। लेकिन हाल-फिलहाल जो ट्रेलर दिखने को मिला है, उसे देखते हुए भारत के लिए लक्षण ठीक नजर नहीं आ रहे हैं।
बहरहाल असली मुद्दे पर आते हैं। सीमा पर हकीकत में क्या कुछ घटा है इस बीच? क्या वाकई में चीन ने उस क्षेत्र में घुसपैठ की थी, जिसे भारत अपना मानकर चलता आया है या कम से कम जिसे "नो-मैन्स लैंड" कहते हैं वहाँ घुस चुका था? यदि ऐसा है, तो कितने अंदर तक? क्या चीन ने अकेले ही एलएसी (वास्तविक नियन्त्रण रेखा) का उल्लंघन किया था, तो फिर यह “आपसी सहमति से पीछे हटने” वाली बात क्या है, जिसे हम अक्सर सुन रहे हैं? भारत फिर क्यों नहीं साफ़-साफ़ अपनी इस माँग को सामने रखता कि जिन-जिन इलाकों में चीन ने हाल के दिनों में घुसपैठ कर रखी है, वहाँ से “चीनी वापसी” को सुनिश्चित किया जाये?
भारत सरकार ने फिर शुरू-शुरू में भरमाने वाले संकेत क्यों दिए थे, जिससे वह अभी भी मुक्त नहीं हो पाया है? भारत के इस “गलत कदम” के चलते चीन ने इसका भरपूर फायदा उठाते हुए अपने घरेलू समर्थन आधार को मजबूत करने का काम किया है, जो कि इस हबड़-तबड़ में एक सच्चाई जो सामने निकलकर आ रही है और वह यह कि भारतीय पक्ष ने बेहद असावधानी का प्रदर्शन किया है। अगर भदेस भाषा में कहें तो वे चीनी लोरियों को सुनते-सुनते नींद की आगोश उसी प्रकार से बेध्यानी में चले गए; जैसा तकरीबन 60 साल पहले माओ त्से तुंग और चाऊ एनलाइ के द्वारा पंडित नेहरु के साथ देखने को मिला था।
वैसा ही कुछ इस बार शी चिनपिंग द्वारा नरेंद्र मोदी के साथ किया गया है। यहाँ पर बुनियादी प्रश्न यह है कि: हर बार चीन कैसे भारत पर सवारी गांठने में कामयाब हो जाता है? ऐसा क्यों होता है कि हर बार इसे खुद को बचाने या चीन से कथित तौर पर गँवा चुके भूमि को वापस लेने की जुगत में बिताना पड़ता है? हर बार की तरह एक जैसी प्रतिक्रिया क्यों दी जाती है, कोई सक्रिय पहलकदमी क्यों नहीं ले पाते हम? इसका जवाब बेहद आसान है: जहाँ भारत नींद में डूबा रहता है, चीन सक्रिय यहाँ तक कि अति सक्रिय बना रहता है।
संभव है कि जिस प्रकार से इस बीच राजनयिक पहल जारी हैं उसमें अंततः भारत चीन को इस बात के लिए राजी कर ले कि वह अप्रैल वाली पूर्व की यथास्थिति के लिए अंततः राजी हो जाये (अब लाख पते की बात यह है कि किस प्रकार से दोनों देश इस नए विकास के बारे में अपने-अपने यहाँ इसका अर्थ निकालते हैं)। लेकिन क्या इतना सबकुछ करके भी इस कड़वी हकीकत को भुलाया जा सकता है कि वास्तविक अर्थों में आज के दिन भारत की तुलना में चीन मीलों आगे निकल चुका है? क्योंकि अंततः दुनियाभर में खुद को “विश्वगुरु” जैसी हास्यास्पद उपमा से नवाजने के सिवाय भारत ने इस लगातार-बढती जा रही खाई को पाटने के लिए शायद ही कोई सार्थक कदम उठाने के बारे में ध्यान दिया हो।
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की दुनिया में गलाकाट प्रतियोगिता जारी है। आपकी ताकत का इजहार मात्र आपकी भलमनसाहत से नहीं बल्कि समूची ताकत से अपने आप जाहिर हो जाता है। भारत में हममें से ज्यादातर या कहें कि बाकी अन्य जगहों पर भी देशों के बीच की तुलना जीडीपी या सैन्य संतुलन के घिसे-पिटे मापदण्डों के आधार पर करने के आदी हो चले हैं। माना कि ये महत्वपूर्ण संकेतक हैं, लेकिन अक्सर जिस चीज को वे इस गणना के दौरान हमेशा से उपेक्षित करते चले आये हैं, जबकि इसे सबसे प्रमुख आधार के तौर पर लेना चाहिए, वह है किसी भी देश की जनता कितने गहरे स्तर पर अपने देश से जुड़ाव महसूस करती है।
दशकों तक दक्षिण एशियाई राजनीति विषय का विद्यार्थी होने के नाते और इस सम्बंध में अपने समकक्षों से इस क्षेत्र में लगातार विचार-विमर्श करते हुए मैं बात को लेकर आश्वस्त हूँ कि चाहे भले ही हम कितनी भी कोशिशें अपने पड़ोसियों को इस बात पर मनाने की कर लें कि चीन का प्रभाव इस क्षेत्र पर लगातार बढ़ता जा रहा है, वे टस से मस होने नहीं जा रहे हैं।
उनके लिए तो भारत और चीन दोनों ही राक्षस के समान हैं। जब आप हाथियों के बीच में सो रहे होते हैं तो आप अपनी नींद में भी लगातार इस बात को लेकर आशंकित रहते हैं कि न जाने कब यह पहाड़ किस करवट ले। ऐतिहासिक और नस्लीय वजहों से भी स्वाभाविक तौर पर ये देश बीजिंग के बजाय नई दिल्ली के प्रति कहीं अधिक आशंकित रहते हैं। एक बात तो यह भी है कि अगला तुलनात्मक तौर पर काफी दूर पर स्थित है, और किसी भी परिस्थितयों में देखें तो भारत इन सबके बीच में एक बफर के तौर पर कायम है। जो भी झटका चीन की ओर से आएगा, हर हाल में भारत को ही उसे पहले-पहल इस झटके को जज्ब करना पड़ेगा। जहाँ तक पाकिस्तान का सवाल है तो उसके लिए यह किसी भी सूरत में भू-रणनीतिक हितों से जुड़ा मसला है।
ज्यादा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि छोटे दक्षिण एशियाई देश अपने विकास के एजेंडा को आगे बढ़ाने के नज़रिये से वे लगातार इस फ़िराक में रहते हैं कि भारत और चीन एक दूसरे से इस बात को लेकर प्रतिद्वंदिता करते रहे कि कौन उनका बेहतर दोस्त साबित हो सकता है। यदि सम्भावित दान-दाता के तौर पर देखें तो चीन इस लिहाज से भारत से काफी बेहतर स्थिति में है।
एक दशक पूर्व अपने अर्थशास्त्री मित्र प्रो. तारानाथ भट के साथ मिलकर मैंने भारत-चीन का तुलनात्मक चार्ट तैयार करने की कोशिश इस बात को समझने के लिए की थी, कि विकास के संदर्भ में तुलनात्मक तौर पर हम कहाँ खड़े हैं। चार्ट को सुसंगत तौर पर दर्शाने के लिए हमने जीडीपी-पीपीपी या सैन्य खर्चों और हथियारों पर खर्चों के घिसे-पिटे ट्रैक से अलग हटकर इसे जानने का फैसला लिया। इसके बजाय हमने दोनों देशों की जनता की दैनिक जरूरतों की पूर्ति की उनकी प्रतिबद्धताओं की ओर निगाह डालना बेहतर समझा। यहाँ पर विश्व बैंक और यूएनडीपी के तथ्य-पत्रकों, चीन सीमा शुल्क सांख्यिकी वर्ष 2011 और भारतीय आर्थिक सर्वेक्षण से 2010, 2011 और 2012 से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर कुछ दिलचस्प खुलासे देखने को मिलते हैं।
एक दशक पूर्व चीन की आबादी जहाँ 1.35 अरब थी वहीं भारत की 1.21 अरब हुआ करती थी। पीपीपी के सन्दर्भ में भारत की जीडीपी जहाँ 3.91 ट्रिलियन डॉलर थी, उसकी तुलना में चीन की जीडीपी 9.87 ट्रिलियन डॉलर थी; वहीं पीपीपी की तुलना में प्रति व्यक्ति वार्षिक जीडीपी की दर 3,425 डॉलर की तुलना में 7,599 डॉलर और रक्षा बजट के मामले में जहाँ भारत 40.5 बिलियन डॉलर खर्च कर रहा था वहीं चीन उस दौरान 106.4 बिलियन डॉलर खर्च कर रहा था। अब इन विकास संकेतकों को इन देशों के लोगों के कल्याण के सन्दर्भ में देखने की कोशिश करते हैं। चीन में जहाँ 29.8% जनसंख्या 2 डॉलर प्रतिदिन से कम में अपना गुजर-बसर कर रही थी, भारत में यह 54% तक बना हुआ था। प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में चीन जहाँ 96% साक्षरता हासिल कर चुका था, भारत में यह 76% के आसपास था। मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) के मामले में चीन 101 वें तो भारत 134वें स्थान पर काबिज था।
चीन में जहाँ विज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में प्रति वर्ष 16,200 डॉक्टरेट की उपाधि से लोग नवाजे जा रहे थे, वहीं भारत में यह आँकड़ा मात्र 7,300 लोगों का था। इसी तरह चीन में जहाँ 5,20,000 व्यावसायिक और प्रशिक्षण संस्थान संचालित हो रहे थे, इसकी तुलना में भारत सिर्फ 12,260 संस्थानों से काम चला रहा था। चीन में वर्ष 2010 में शिशु मृत्यु दर (5 वर्ष से कम के हर 1,000 की संख्या पर) भारत के 63 की तुलना में मात्र 18 थी। इसी तरह बिजली की खपत के मामले में चीन में प्रति व्यक्ति खपत जहाँ यह 2631 kWh थी, जबकि भारत में यह 597 kWh थी। स्टील उत्पादन के क्षेत्र में जहाँ चीन 68.33 करोड़ टन का उत्पादन कर रहा था, उसकी तुलना में भारत का 7.22 करोड़ टन अत्यंत बौना प्रतीत होता है। सीमेंट के उत्पादन में यह यह अनुपात 180 करोड़ टन की तुलना में 22 करोड़ टन बैठता था। पिछले दस वर्षों में जबसे हमने ये आंकड़े इकट्ठा कर रखे थे, इन रुझानों को परिवर्तित किया गया है, अभिसरण नहीं हो सका है।
कोविड-19 महामारी के परिपेक्ष्य में दोनों देशों ने स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में जिन कठिनाइयों का सामना किया है, उसमें इस बात को याद रखना काफी शिक्षाप्रद होगा कि स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में चीन में किया जाने वाला खर्च तुलनात्मक तौर से काफी अधिक था। 2010 में स्वास्थ्य के क्षेत्र में चीन में प्रति व्यक्ति औसत खर्च जहाँ 265 डॉलर किया जा रहा था, उसकी तुलना में भारत में मात्र 122 डॉलर प्रति वर्ष ही खर्च किया जा रहा था। वहीं डब्ल्यूएचओ सांख्यिकी के अनुसार वर्ष 2017 के लिए ये आंकड़े 441 बनाम 69 डॉलर (जी हाँ, भारत ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में अपने खर्चों को पूर्व की तुलना में काफी कम कर दिया है!) थे। ऐसे में यदि भारत इस फ़िराक में है कि वह चीन से बराबरी के स्तर पर निपटे तो इनमें से प्रत्येक मैट्रिक्स मायने रखता है।
एक अंतिम बिंदु। दुनिया में सबसे आसान काम यह है कि खुद को राज्य परिभाषित राष्ट्रवादी घोषित कर दिया जाए। जिस क्षण कोई इंसान इस प्रकार का राष्ट्रवादी स्वरूप धारण कर लेता है, उसकी आलोचनात्मक वैचारिकी नींद की आगोश में चली जाती है और इंसान अपने राष्ट्र की महानता के गौरव की आभा में खो जाता है। उसकी अंधभक्ति तभी विचलित हो पाती है जब उसे इस बात का आभास होता है कि उसके दीवारों के पार की दुनिया इस बीच अकर्मण्य नहीं बैठी पड़ी है, बल्कि उसने लगातार उसके घर पर अतिक्रमण करना शुरू कर दिया है। लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी होती है। उसके घर में सेंधमारी हो चुकी होती है और उसके मिथ्या गौरव का कचूमर निकल चुका होता है।
मेरे हिसाब से सामाजिक विज्ञान अनुसंधान के क्षेत्र में सबसे अधिक यदि कोई क्षेत्र हताश करने वाला है तो यह अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को लेकर है। इसके पीछे की कई वजहें हैं, लेकिन हमारे मतलब के हिसाब से यहाँ पर दो प्रमुख चीजें पर्याप्त रहेंगी। इसमें पहला है अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर काम कर रहे विद्वानों को आधिकारिक लाइन पर ही खुद को बनाए रखने की अंतर्निहित मजबूरी के तहत काम करना पड़ता है; और दूसरा इसकी बुनियादी कमजोरी हमेशा मानकों के अनुरूप बने रहने की होती है, भले ही कितना ही दूर क्यों न हो। ठीक यही सब भारत की चीनी नीति के सन्दर्भ में भी देखने को मिलती है। हमारे राज्य-प्रायोजित राष्ट्रवाद ने हमे इस कदर सुस्त बनाकर रख दिया है कि हमने अपनी सुरक्षा को अकल्पनीय स्तर तक नीचे गिरा डाला है।
इस बात में कोई बुराई नहीं यदि नरेंद्र मोदी गर्मजोशी के साथ शी चिनपिंग को गले लगाते हैं या ख़ुशी-ख़ुशी उनके साथ साबरमती के बाग़ के झूला झूलने का फैसला लेते हैं। लेकिन यह तो भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर हैं जिन्हें इस बात का ख्याल निश्चित तौर पर रखना चाहिए था कि ऐसे सभी कार्य-कलापों को उन्हें फेस-वैल्यू के स्तर पर नहीं लेना है। वास्तव में अपने बचपन की शिक्षा के दौरान उन्होंने पर्याप्त मात्रा में इसे सीखा होगा। भारत के अंतर्राष्ट्रीय रणनीतिक अध्ययन के पितामह रहे श्री के. सुब्रमणियम के सुपुत्र के तौर पर जयशंकर ने निश्चित तौर पर भलीभांति अपने बाल्य जीवन में ही इस बात को जान लिया होगा कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में जो चीज मायने रखती है वह है विपक्षी की ताकत, न कि उसके इरादे। इसके अलावा हर किसी को यह मानकर चलना चाहिए कि लोकतंत्र में विदेश मंत्री अपने प्रधान मंत्री के कान के बतौर काम करता है।
उपसंहार: यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध के एक वर्ष पूर्व सन् 1938 में, विंस्टन चर्चिल ने एक पुस्तक व्हाइल इंग्लैंड स्लेप्ट लिखी थी। उनका कथन बेहद आसान था। नाज़ी जर्मनी के आर्थिक और सैन्य बल से निपटने के लिए इंग्लैंड ने खुद को पर्याप्त तौर पर तैयार नहीं कर रखा था। यह पुस्तक नेविल चेम्बरलेन की तथाकथित "तुष्टिकरण की नीति" के अभियोग पत्र के तौर पर थी। इसके पाठकों में से एक नौजवान जॉन ऍफ़. केनेडी भी थे, जो आगे चलकर अमेरिकी राष्ट्रपति बने। 1940 में केनेडी ने हार्वर्ड कॉलेज से स्नातक की डिग्री हासिल की, जिसमें उन्होंने अपनी थीसिस “एपीजमेंट एट म्युनिक” नामक शीर्षक से लिखी थी। यह थीसिस काफी हद तक चर्चिल की पुस्तक से प्रेरित थी।
और उसी साल उन्होंने कोशिश की कि इसे एक पुस्तक की शक्ल में प्रकाशित कर दिया जाए। अपनी इस पुस्तक के लिए उन्होंने इसका शीर्षक भी इस बात को ध्यान में रखकर चुना, जिससे कि जिस किताब से प्रेरित होकर इसे लिखा गया था, उसके प्रति कृतज्ञता प्रेषित हो सके। इसलिए पुस्तक का शीर्षक दिया गया: व्हाई इंग्लैंड स्लेप्ट। उस समय के लंदन के अमेरिकी राजदूत पिता जोसफ पी. केनेडी के ऑफिस का रौबदाब और उनका धनाड्य और प्रभावशाली हस्ती होने के चलते इस पुस्तक के प्रकाशन को लेकर कोई खास मुश्किल नहीं होने जा रही थी। पिता केनेडी ने तो उस समय के प्रसिद्ध राजनीति विज्ञानी हेरोल्ड लास्की से इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखने के लिए संपर्क तक साधा था। लेकिन लास्की ने पुस्तक को “एक अविकसित दिमाग” की उपज बताकर प्रस्तावना लिखने से इंकार कर दिया था। लास्की इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि इस पाण्डुलिपि को छापने के लिए कोई भी प्रकाशक राजी नहीं होता, यदि इसे “बेहद अमीर बाप के बेटे द्वारा” न लिखा गया होता।
हालाँकि बाज़ी आख़िरकार नौजवान कैनेडी के ही हाथ लगी। व्हाई इंग्लैंड स्लेप्ट (इंग्लैंड क्यों सोता रहा) की 80,000 प्रतियाँ अमेरिका और इंग्लैंड में हाथोंहाथ बिक गई और रायल्टी के तौर पर उन्हें 40,000 डॉलर की कमाई हुई। इस कमाई का एक हिस्सा कैनेडी ने युद्ध में क्षतिग्रस्त ब्रितानी शहर प्लाईमाउथ के जीर्णोद्धार के लिए दान में दे डाला। बाकी के बचे धन से उन्होंने खुद के लिए ब्यूक कन्वर्टिबल खरीद ली थी।
लेखक सामाजिक विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली में सीनियर फेलो हैं। आप पूर्व आईसीएसएसआर नेशनल फेलो और जेएनयू में साउथ एशियन स्टडीज के प्रोफेसर रह चुके हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
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