मुद्दा: साम्राज्यवाद की विस्तार की हवस
लेनिन ने अपनी कृति इंपीरियलिज्म में लिखा था, ‘‘वित्तीय पूंजी की अपरिहार्य हवस होती है अपने प्रभाव के दायरे का और यहां तक कि वास्तविक भौगोलिक सीमाओं का भी विस्तार।’’
बेशक, वह एक ऐसी दुनिया में लिख रहे थे, जिसकी पहचान साम्राज्यवाद की आपसी प्रतिद्वंद्विता से होती थी। वहां इस हवस ने प्रतिद्वंद्वी वित्तीय पूंजियों के बीच एक प्रतिस्पर्धात्मक संघर्ष का रूप ले लिया था, जिन्होंने बड़ी तेजी से दुनिया को आपस में बांटने का काम पूरा कर लिया और कोई ‘‘खाली जगहें’’ छोड़ी ही नहीं। यहां से आगे तो प्रतिद्वंद्वी वित्तीय कुलीनतंत्रों के बीच युद्धों के जरिए, दुनिया का पुनर्विभाजन ही किया जा सकता था। बहरहाल, जो युद्ध वास्तव में उन्होंने छेड़े उनके नतीजे में साम्राज्यवाद कमजोर हुआ और दुनिया के कई हिस्से, समाजवादी क्रांतियों के जरिए और निरुपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के जरिए, जिसे लाने में समाजवाद ने मदद की थी, उसके वर्चस्व के दायरे से टूटकर अलग हो गए।
पूंजी के केंद्रीकरण के और विकास ने, जो उसके सुदृढ़ीकरण की ओर ले गया है, एक ओर तो साम्राज्यवाद की आपसी प्रतिद्वंद्विता का शमन कर दिया है, क्योंकि पूंजी को अपनी बेलगाम आवाजाही के लिए, अब पूरी की पूरी दुनिया चाहिए, न कि प्रतिद्वंद्वी शक्तियों के प्रभाव क्षेत्रों में बंटी हुई दुनिया। दूसरी ओर, इसके नतीजे में अब एकजुट साम्राज्यवाद की ओर से इसकी कोशिश भी हो रही है कि जो इलाके पहले उसके दायरे से टूटकर अलग हो गए थे, उन पर फिर से अपना वर्चस्व कायम करे। इस बाद वाले लक्ष्य को हासिल करने के लिए साम्राज्यवाद दो हथियारों का इस्तेमाल करता है : दुनिया पर एक नव-उदारवादी व्यवस्था थोपना, जो मूलत: निरुपनिवेशीकरण के प्रभावों को नकारने का काम करती है और जहां यह पहला हथियार ही उक्त उद्देश्य के लिए काफी नहीं हो, युद्ध छेड़ना।
नव-उदारवाद के दौर में अधि-उत्पादन का संकट
नव-उदारवादी निजाम का मतलब हर जगह मजदूर वर्ग का कमजोर होना रहा है। विकसित देशों में इसने मजदूरों के सामने इसका खतरा खड़ा कर दिया है कि उनके काम को, कम मजदूरी वाले तीसरी दुनिया के देशों में पुनर्स्थापित कर दिया जाएगा, जहां बेरोजगारों की विशाल सेनाएं खड़ी हैं। इसके चलते, विकसित देशों में मजदूरियां गतिरोध की शिकार हैं। लेकिन, तीसरी दुनिया के देशों में भी इस तरह की पुनर्स्थापना से श्रम की सुरक्षित सेना का सापेक्ष आकार कोई कम नहीं हुआ है और इसके चलते वहां भी वास्तविक मजदूरी में गतिरोध बना रहा है। इस तरह जहां दुनिया भर में वास्तविक मजदूरी का वैक्टर गतिरोध में रहा है, श्रम उत्पादकताएं हर जगह बढ़ती रही हैं (आखिरकार इसी वजह से तो तीसरी दुनिया में श्रम की सुरक्षित सेनाएं घट नहीं रही हैं)। इसका नतीजा यह हुआ है कि समग्रता में विश्व अर्थव्यवस्था में भी और अलग-अलग देशों में भी, आर्थिक अधिशेष का हिस्सा बढ़ गया है।
इससे आर्थिक असमानता में तेजी से बढ़ोतरी हुई है और तीसरी दुनिया के बड़े हिस्से में शुद्ध पोषणगत वंचितता की शिकार आबादी का अनुपात तक बढ़ गया है। बहरहाल, आर्थिक असमानता में बढ़ोतरी के चलते ही, अधि-उत्पादन या ओवर प्रोडक्शन की प्रवृत्ति भी दिखाई दे रही है क्योंकि आर्थिक अधिशेष का उपभोग करने वालों की तुलना में, मेहनतकश अपनी आय के कहीं बड़े हिस्से का उपभोग करते हैं।
अधि-उत्पादन के लिए कीन्सियन मानक नुस्खा, कि सरकारी खर्च बढ़ा दिया जाए, नव-उदारवादी व्यवस्था में काम ही नहीं करता है। इसकी वजह यह है कि इस तरह के खर्च में बढ़ोतरी को अगर सकल मांग में बढ़ोतरी करनी है, तो उसके लिए वित्त व्यवस्था करने के दो ही तरीके हो सकते हैं, या तो राजकोषीय घाटा बढ़ाया जाए या फिर अमीरों पर कर बढ़ाया जाए। और नव-उदारवादी निजाम में इन दोनों ही उपायों के लिए दरवाजे बंद रहते हैं। ये दोनों ही उपाय वित्तीय पूंजी की नजरों में अभिशाप हैं और किसी भी राष्ट्र राज्य को, जब उसका सामना ऐसी वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी से होता है, जो पत्ता खड़कने से भी फुर्र हो जा सकती है, इस तरह की वित्तीय पूंजी के मर्जी के आगे सिर झुकाना ही होता है।
नव-फ़ासीवाद का उभार
अब जबकि अधि-उत्पादन की यह प्रवृत्ति, जो नव-उदारवादी पूंजीवाद में अंतर्निहित होती है, विश्व अर्थव्यवस्था को गतिरोध की ओर धकेल रही है, नव-फासीवाद में एक उभार आया है। हो यह रहा है कि कारपोरेट पूंजी नव-फासीवादी तत्वों के साथ गठबंधन करने की ओर झुक रही है क्योंकि ये तत्व ध्यान-बंटाऊ विमर्श मुहैया कराते हैं। इस विमर्श को चिंता जीवन की भौतिक दशाओं को सुधारने की नहीं है बल्कि उसकी चिंता किसी न किसी असहाय धार्मिक तथा इथनिक अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ, जिसे कि ‘‘अन्य’’ बनाकर पेश किया जाता है, नफरत पैदा करने की है।
नव-फासीवादी तत्वों ने कुछ देशों में सत्ता पर कब्जा कर लिया है, जबकि अन्य देशों में वे इसके लिए मौके के इंतजार में हैं। यह दूसरी बात है कि उदार जनतंत्र के दायरे में उनके सत्ता पर काबिज होने से एक फासीवादी राज्य का निर्माण करने की यात्रा कमोबेश लंबी यात्रा बनी हुई है। लेकिन, किसी देश में नव-फासीवादी तत्वों का सत्ता में आना भी, अधि-उत्पादन की प्रवृत्ति से उसे उबार नहीं सकता है। चूंकि इस स्थिति में भी राज्य एक ऐसा राष्ट्र-राज्य ही बना रहता है, जिसका सामना वैश्विक रूप से सचल वित्तीय पूंजी से होता है, नव-फासीवादी राज्य में भी उसकी इसमें असमर्थता बनी रहती है कि सरकारी खर्चों में ऐसी बढ़ोतरी के जरिए सकल मांग को बढ़ाए, जिसके लिए वित्तव्यवस्था या तो राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी के जरिए की जाए या फिर अमीरों पर कर लगाने के जरिए की जाए।
पूछा जा सकता है कि आर्थिक गतिरोध की प्रवृत्ति का और इसलिए नव-फासीवाद के उभार का भी मुकाबला करने में राष्ट्र-राज्य की इस असमर्थता का दोष, साम्राज्यवाद पर कैसे डाला जा सकता है? इस सवाल का सरल सा जवाब यही है कि कोई भी देश अगर खुद को वैश्विक वित्तीय पूंजी के जाल से काटने की और राज्य का उपयोग मांग को बढ़ाने के लिए करने की कोशिश करता है, तो उसको अमरीका के नेतृत्व में, साम्राज्यवादी देशों की पूरी फौज द्वारा लगायी जाने वाली आर्थिक पाबंदियों का सामना करना पड़ेगा। संक्षेप में यह कि अपने दबदबे का फिर से प्रदर्शन करने के लिए साम्राज्यवाद द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला पहला हथियार, हर जगह जनता के लिए भारी बदहाली और नव-फासीवादी परिणति की ओर ले जाता है।
साम्राज्यवाद का युद्ध का हथियार
दुनिया के उन हिस्सों पर, जो साम्राज्यवाद के दायरे से बाहर हो गए थे, उसके अपनी दादागारी दोबारा कायम करने का दूसरा तरीका है, युद्धों का सहारा लेना और यही इस समय दुनिया को सर्वनाश की ओर धकेल रहा है। जो दो युद्ध इस समय चल रहे हैं, दोनों ही साम्राज्यवाद द्वारा सहारा देकर चलाए जा रहे हैं तथा आगे बढ़ाए जा रहे हैं और बढ़कर नाभिकीय टकराव का रूप लेने की संभावनाओं को लिए हुए हैं। पहले यूक्रेन युद्ध को ही ले लिया जाए। जब सोवियत संघ का पराभव हुआ था, मिखाइल गोर्बाचोव को यह वचन दिया गया था कि नाटो का पूर्व की ओर विस्तार नहीं होगा। लेकिन, नाटो का पूर्व की ओर विस्तार हुआ और वह यूक्रेन तक पहुंच गया।
यूक्रेन खुद नाटो में शामिल नहीं होना चाहता था। लेकिन, उसके वैध रूप से निर्वाचित राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को, जो ऐसे किसी भी विचार के विरोधी थे, एक तख्तापलट के जरिए हटा दिया गया। यह तख्तापलट, अमरीकी आला अफसर विक्टोरिया नूलांड की देखरेख में कराया गया था और इस तख्तापलट के जरिए उस स्तेपान बंदेरा के समर्थकों की सरकार आयी, जिसने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हिटलर की सेनाओं के साथ मिलीभगत की थी। इस नयी सरकार ने न सिर्फ नाटो में शामिल होने की इच्छा जतायी बल्कि रूसी-भाषी दोनबाश के इलाके से लड़ाई भी छेड़ दी, जिसमें रूस के हस्तक्षेप करने से पहले तक हजारों लोग मारे जा चुके थे।
आइए, हम वह सवाल पूछें जिससे दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा, कि कौन यूक्रेन टकराव में शांति समझौते के पक्ष में है और कौन उसके खिलाफ है? फ्रांस और जर्मनी की मदद से, रूस और यूक्रेन के बीच जो मिंस्क समझौता हुआ था, उसमें अमरीका और ब्रिटेन ने पलीता लगा दिया। तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री, बोरिस जॉन्सन तो उड़कर कीव पहुंचे ताकि यूक्रेन को यह समझौता स्वीकार न करने के लिए तैयार किया जा सके। लेकिन, कोई यह न समझे कि अलग-अलग साम्राज्यवादी ताकतें इस मामले में अलग-अलग सुर में बोल रही थीं; तब की जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल ने बाद में यह कबूल किया कि मिंस्क समझौता तो सिर्फ एक बहाना था, यूक्रेन के लिए कुछ समय हासिल करने का, जिससे वह युद्ध के लिए तैयार हो सके। इससे यह असंंदिग्ध रूप से दिखाई देता है कि यूक्रेन में युद्ध बुनियादी तौर पर रूस को साम्राज्यवाद के वर्चस्व के आधीन लाने का ही उपाय है। सोवियत संघ के पराभव के बाद से साम्राज्यवाद की यही परियोजना रही थी और बोरिस येल्त्सिन के राष्ट्रपतित्व में उनकी यह परियोजना करीब-करीब पूरी भी हो गयी थी।
मानवता के सर्वनाश की ओर
अब दूसरे युद्ध पर आ जाएं जो हैरान करने वाली नृशंसता तथा निर्ममता से इस्राइल ने फिलिस्तीनियों के खिलाफ और अब लेबनान के भी खिलाफ छेड़ा है। इस्राइल के लिए अमरीकी साम्राज्यवाद का पूर्ण समर्थन पहली नजर में अपने आप में किसी साम्राज्यवादी मंसूबे का हिस्सा न होकर, अमेरिकी राजनीति में यहूदीवादी लॉबी के प्रभाव का प्रतिबिंब लग सकता है। लेकिन, यह धारणा भ्रांतिपूर्ण है। साम्राज्यवाद की उस सैटलर उपनिवेशवाद में सिर्फ मिलीभगत ही नहीं है, जिसे आगे बढ़ाने के लिए इस्राइल आज नरसंहार कर रहा है और कल के लिए जन इथनिक सफाए की तैयारियां कर रहा है। साम्राज्यवाद की परियोजना इस्राइल के मार्फत इस पूरे क्षेत्र पर ही नियंत्रण हासिल करने की है।
इस मामले में भी दूध का दूध, पानी का पानी करने वाला सवाल वही है--आज शांति के आड़े कौन आ रहा है? अमरीका औपचारिक रूप से ‘‘दो राज्यों वाले समाधान’’ को स्वीकार करता है। लेकिन, जब भी फिलिस्तीन को संयुक्त राष्ट्र संघ में 194वें सदस्य-राज्य के रूप में स्वीकार किए जाने का प्रस्ताव जनरल एसेंबली में आया है, जो कि ‘‘दो राज्यों वाले’’ समाधान को लागू करने की दिशा में पहला कदम होगा, हर बार अमरीका ने इस प्रस्ताव के खिलाफ वोट किया है। साफ है कि वह सुरक्षा परिषद में ऐसे किसी भी प्रस्ताव को वीटो कर देगा। इसलिए, एक प्रामाणिक दो-राज्यों वाले समाधान का उसका समर्थन एक ढोंग है।
इतना ही नहीं, जब भी इस्राइल और उसके विरोधियों के बीच युद्ध विराम की बातचीत किसी महत्वपूर्ण मुकाम पर पहुंची है, चाहे इस्माइल हनीह का मामला हो या हसन नस्रउल्ला का, इन नेताओं की इस्राइल द्वारा हत्या कर दी गयी। संक्षेप में युद्ध विराम की बातचीत थी, इस्राइल की ओर से तो एक ढोंग ही है और अमरीकी साम्राज्यवाद की इस स्वांग में साफ तौर पर मिलीभगत है। इस्राइल का अपना सैटलर उपनिवेशवाद, उसे अमरीकी साम्राज्यवाद द्वारा दी गयी इस भूमिका में बिल्कुल फिट बैठता है कि साम्राज्यवाद का स्थानीय दारोगा बनकर रहे। और युद्ध के तेज होने के साथ, हर रोज नाभिकीय टकराव को बढ़ाता जाता है।
मैंने शुरू में ही कहा था कि एक नव-उदारवादी आर्थिक व्यवस्था को थोपना और लड़ाइयां छेड़ना, ये दो हथियार हैं जिनका अब-एकजुट साम्राज्यवाद, अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए इस्तेमाल करता है। लेकिन, अगर इनमें से एक हथियार नव-फासीवाद की ओर ले ले जा रहा है, तो दूसरा मानवता को सर्वनाश की ओर ही धकेल रहा है।
(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें–
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