मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में आदिवासियों पर सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताएं थोपी जा रही हैं
भोपाल: खबर है कि छत्तीसगढ़ के सूरजपुर जिले के एक 22 वर्षीय आदिवासी नौजवान ने 9 अक्टूबर, 2019 को अपने घर पर दुर्गा पूजा मनाने के विरोध के चलते अपनी जान दे दी।मृतक, जितेंद्र मरावी/ सोनू, छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल राज्य सूरजपुर जिले के केताका गाँव का रहने वाला था। जब उसके विरोध के बावजूद भी उसके घर में दुर्गा पूजा का आयोजन किया गया तो उसने इस फैसले के खिलाफ आत्महत्या करने का फैसला लिया।
कारवां द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, जितेंद्र दुर्गोत्सव की परम्परा के खिलाफ था, क्योंकि हिंदू पौराणिक कथाओं की मान्यताओं के अनुसार, देवी दुर्गा द्वारा मारे गए अपने "पूर्वज" महिषासुर को एक राक्षस के रूप में चित्रित करने का वह विरोध करता रहा था।इसी साल 26 सितंबर को, मरावी ने अपने दोस्तों के साथ मिलकर जिलाधिकारी को एक ज्ञापन दिया था जिसमें रावण के पुतला-दहन और महिषासुर की छवि के नकारात्मक चरित्रीकरण किये जाने का विरोध दर्ज किया गया था।
रिपोर्ट में बताया गया है कि मरावी को छोटी उम्र से ही आदिवासियों की विरासत और इतिहास की गहरी समझ बनने लगी थी और उसने हमेशा से ही मुख्यधारा के हिंदू नैरेटिव के थोपे जाने का विरोध किया था। वह फालिया में (गांवों में) में सांस्कृतिक कार्यशालायें, सामुदायिक कार्यक्रमों का आयोजन करता था और स्कूली बच्चों और युवाओं को आदिवासी रीति-रिवाज, उनकी विरासत और इतिहास को सिखाने के काम में लगा था। हालाँकि, उसके पिता ने दुर्गा पूजा के लिए गठित एक स्थानीय कमेटी के दबाव में आकर यह पूजा अपने घर में करवाई थी। रिपोर्ट के अनुसार, कमेटी के लोगों ने मारवी के पिता को अपने घर में दुर्गा पूजा कराने का संकल्प दिलाया और निर्देश दिए थे कि वह अपने बेटे को इसके लिए राजी करे।
जितेंद्र मरावी (सोनू)
इससे पूर्व, अक्टूबर 2018 में, जितेन्द्र के खिलाफ दुर्गा पूजा की परम्परा पर “आपत्तिजनक” पोस्ट सोशल मीडिया में पोस्ट करने के आरोप में सूरजपुर पुलिस स्टेशन में मामला दर्ज कराया गया था। इस मामले में उसे गिरफ्तार कर 55 दिनों तक जेल में रखा गया था।
अपने सुसाइड नोट में मरावी ने लिखा है:
यह मेरी नैतिक क्षति थी और मुझसे यह क्षति बर्दाश्त नहीं हो रही। यह कदम मैं किसी भय से नहीं ले रहा हूँ, बल्कि सिर्फ इन लोगों की आँखें खोलने के लिए ले रहा हूँ। मेरे इस कदम के लिए कमेटी के मेम्बरान पूरी तरह से जिम्मेदार हैं। इस लड़ाई को बीच में ही छोड़ कर जाने के लिए मैं अपने सभी दोस्तों से माफी मांगना चाहता हूं। लेकिन एक बात हमेशा याद रखें कि क्रांति हमेशा बलिदान मांगती है। मैं इस शहादत को हासिल करने की उम्मीद करता हूं। वे लोग जो हमारे पूर्वजों को बदनाम करते आये हैं उन्हें बख्शा नहीं जाना चाहिए। यह दुर्गा पूजा मुझे दिन-रात अंदर से तोड़ रही थी। मुझे लग रहा है कि जैसे मेरे 55 दिनों का बलिदान व्यर्थ चला गया है। मैं चाहूंगा कि मेरे साथी मेरी इस अधूरी लड़ाई को पूरे जूनून के साथ लड़ें। मैं हमेशा आप सबके साथ हूं। मैं उन सभी लोगों से एक बार फिर से माफी मांगना चाहूंगा जो मुझसे जुड़े रहे हैं। मैं अपने परिवार के सदस्यों से भी माफी मांगना चाहता हूँ क्योंकि उन्हें मेरी वजह से शर्मिंदगी उठानी पड़ी। मैं उन्हें एक बार फिर आखिरी बार कष्ट दे रहा हूं। इसके बाद मैं और कोई कष्ट नहीं दूंगा। मेरे शरीर की चीर-फाड़ न की जाये, यही मेरी इच्छा है।
जय गोंडवाना।
सोनू
सांस्कृतिक वर्चस्व का थोपा जाना
मरावी द्वारा प्रस्तुत ज्ञापन की तर्ज पर मध्य प्रदेश के विभिन्न इलाकों जैसे डिंडोरी, मंडला और शहडोल में भी उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं।2017 में, मध्य प्रदेश के बैतूल के आदिवासियों ने रावण का पुतला जलाने वालों पर कानूनी कार्रवाई करने की धमकी दी थी।
मंडला जिले के एक बुजुर्ग आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता गुलजार सिंह मरकाम का कहना है, "सिर्फ अपने राजनीतिक फायदे के लिए, हिंदू दक्षिणपंथी संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आदिवासियों को हिंदू धर्म की ओर ठेल रहा है और उन्हें हिंदू संस्कृति अपने अंदर लील रही है।"
हिंदू धर्म को आदिवासियों पर थोपे जाने को सूचीबद्ध करते हुए, मरकाम ने बताया कि किस प्रकार से दक्षिणपंथी समूह एक रणनीति के तहत आदिवासी क्षेत्रों में हिंदू देवी-देवताओं के मंदिरों को स्थापित कर रहे हैं। “हिंदू देवी-देवताओं के गीत यहां बजाये जा रहे हैं और दैनिक कर्म के रूप में आरती (एक पूजा अनुष्ठान) हो रही है। आदिवासियों के पवित्र स्थलों पर जय श्री राम और जय माता दी के उद्घोषों के साथ हिंदू देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित की जा रही है। बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद के कार्यालय इन इलाकों में आबाद हो रहे हैं।
इसके अलावा, पिछले कुछ वर्षों से आदिवासियों के बीच हिंदू त्योहारों जैसे राम नवमी, दुर्गा पूजा, गणेश पूजा, दीवाली आदि को बड़े उत्साह से बढ़ावा दिया गया है। “वे उन लोगों पर दबाव डालते हैं जो ऐसा करने से इनकार करते हैं। ईसाई मिशनरी भी कुछ कम नहीं हैं; वे भी दिन-रात इसी में लगे हैं। नतीजतन, आज का आदिवासी नौजवान अपनी विरासत, संस्कृति, रीति-रिवाजों और देवताओं को भूलकर उनके प्रति आकर्षित हो रहे हैं।हालाँकि, भारतीय संविधान के अनुसार आदिवासी समुदाय जन्म से हिंदू नहीं हैं और उनके धर्म परिवर्तन से भी क़ानूनी तौर पर उनकी संवैधानिक दर्जे में कोई परिवर्तन नहीं होता है।
कई दशकों से मध्यप्रदेश में आदिवासियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे मरकाम के अनुसार, “यहां तक कि जब संविधान ने हमें हिंदुओं से अलग स्थान दिया है तो फिर, हम हिंदू देवताओं की पूजा क्यों करें या उनके भजन गायें? अपने क्यों नहीं? हम प्रकृति (जल, जंगल और ज़मीन) की पूजा करते हैं। हमारे यहाँ किसी प्रकार के मंदिरों के निर्माण का चलन नहीं है और ना ही हम हिंदू और मुसलमानों के जैसे धार्मिक ही हैं। हमारे रीति-रिवाज इन बहुसंख्यक समुदायों से बिलकुल भिन्न हैं। ”
मनोज द्विवेदी जो एक स्वतंत्र शोधार्थी हैं और जिन्होंने मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विभिन्न जनजातीय इलाकों में काम किया है, के अनुसार, "धार्मिक प्रचार पर जोर के साथ-साथ अब आरएसएस के विचारकों ने आदिवासियों के बीच हिन्दुओं के प्रति प्रेम और दलितों सहित अन्य समुदायों के प्रति नफरत फ़ैलाने का इंजेक्शन धीरे-धीरे लगाना शुरू कर दिया है।"
वे बताते हैं कि अपने शोध के दौरान उन्हें पता चला है कि छतीसगढ़ के बस्तर जिले में, चार लोगों के एक परिवार में जिसमें माता-पिता और दो पुत्र जो एक ही छत के नीचे रहते हैं, अलग-अलग धर्मों का पालन करते हैं। छोटा बेटा हिन्दू धर्म में आस्था रखता है जबकि बड़ा बेटा ईसाई और माता पिता आदिवासी रीति-रिवाजों का पालन कर रहे हैं। छोटा बेटा हिंदू धर्म का पालन कर रहा है, बड़ा बेटा ईसाई है, जबकि माँ पिता अपने आदिवासी रीति-रिवाजों का पालन कर रहे हैं। द्विवेदी के अनुसार, पूरे इलाके में अब यह एक आम परिघटना है।
आगे बताते हुए वे कहते हैं, “यह तथ्य मेरे लिए बेहद चौंकाने वाला था। मैं इस बात से हैरान था कि यह कैसे संभव है। यह सब शायद इसलिये घटित हो रहा है क्योंकि इस पूरे इलाके में बेहद आक्रामक तरीके से धार्मिक अभियान चलाए जा रहे हैं। इस आधार पर ढेर सारे परिवार, गाँव, आदिवासी समुदाय और कई इलाके आपस में विभाजित हो चुके हैं। विभिन्न धार्मिक आस्थाओं के चलते आदिवासी समुदाय के भीतर से अंतर्विरोध उभर कर सामने आ रहे हैं।”
जब न्यूज़क्लिक की टीम ने मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों का दौरा किया तो उसने पाया कि नए नए मंदिरों का निर्माण हुआ है, और बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद के नवनिर्मित कार्यालयों पर केसरिया झंडों को लहराते देखा जा सकता है।वहीँ दूसरी ओर, पिछले दो दशकों के दौरान इस इलाके में गोंडवाना आंदोलन के उदय के साथ, आदिवासी अब सक्रिय रूप से राजनीति में भाग ले रहे हैं और आदिवासियों के लिए समुदाय आधारित कार्यशालाओं का आयोजन हो रहे हैं।
जय आदिवासी युवा संगठन (JAYS) के संस्थापक डॉ हीरालाल अलवा ने न्यूज़क्लिक को बताया कि, “शिक्षा और जागरूकता की कमी के चलते, सालों-साल से आदिवासियों शोषण होता रहा है। लेकिन अब, आदिवासी समुदाय जाग गया है और वह अपने अस्तित्व की भविष्य में रक्षा हो सके उस स्तर पर आ चुका है। "
अलवा के अनुसार आदिवासियों के नागरिक समूहों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह है कि किस प्रकार उन लोगों के बीच आदिवासी रीति-रिवाजों और मान्यताओं को जिन्दा रखा जाए जो या तो पढ़ लिख गए हैं या शहरी क्षेत्रों में पलायन कर चुके हैं। वे खुद को हिंदू मानने लगे हैं और उस धर्म का अनुसरण करने लगे हैं।
क्या ईसाइयत कमजोर पड़ रही है?
मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल जिलों जैसे झाबुआ, बालाघाट, अलीराजपुर, शहडोल, मंडला और डिंडोरी के कुछ इलाकों में ईसाई मिशनरी सक्रिय हैं। अपनी धार्मिक मान्यता को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने इन इलाकों में भव्य चर्चों, स्कूलों और शैक्षणिक संस्थानों का निर्माण किया है। इसके चलते इन चर्चों के आसपास के इलाकों में कई आदिवासियों ने धर्मान्तरण कर लिया है।
झाबुआ (एमपी) के एक आदिवासी सांस्कृतिक कार्यकर्ता मान सिंह भूरिया, जिन्होंने आदिवासी संस्कृति को अपनाने के लिए अपने ईसाई धर्म से नाता तोड़ लिया है, ने बताया कि ईसाइयत की सफलता के पीछे यहाँ की अशिक्षा, गरीबी और अपने सांस्कृतिक और मौलिक अधिकारों के बारे में अनभिज्ञता मूल कारक रही हैं। वे आगे बताते हैं, “कई दशक पहले मेरे माता-पिता ने ईसाई धर्म अपना लिया था। लेकिन जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ और मुझे अपने पुरखों की संस्कृति और इतिहास के बारे में पता चला, मैंने धर्म परिवर्तन का फैसला लिया। अब, न तो मैं अब ईसाई हूं और न ही हिंदू; मैं अब एक आदिवासी हूं जो प्रकृति की पूजा पर विश्वास करता है। ”
भूरिया के अनुसार, “हिंदुओं और आदिवासियों के बीच एक बुनियादी अंतर है। वे शक्ति की पूजा करते हैं, जबकि हम प्रकृति को पूजते हैं। हिंदुओं के लिए जहाँ अग्नि पवित्र है, वहीं हमारे लिए पानी और पेड़ पवित्र हैं।“
गोंडवाना आंदोलन
गोंडवाना आंदोलन की शुरुआत दो दशक पूर्व मध्य प्रदेश के महाकौशल क्षेत्र में जनजातीय अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने, आदिवासी विरासत और रीति-रिवाजों की रक्षा करने और उन्हें बहाल करने के लिए हुई थी।गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का उदय भी इसी आंदोलन का एक हिस्सा रहा है। पार्टी ने 2003 के चुनावों में तीन विधानसभा क्षेत्रों में जीत हासिल की थी और उसे कुल 3.23% वोट प्राप्त हुए थे।
मरकाम के अनुसार, धर्म का मुकाबला धर्म ही कर सकता है। हमने इसका विकल्प तैयार किया। हिंदू मंदिरों के स्थान पर हमने बाड़ा देव (आदिवासियों के लिए सर्वोच्च देवता) का मंदिर स्थापित किया। हिन्दू देवी-देवताओं के स्थान पर आदिवासी देवताओं के मंदिर बनवाये। लोकप्रिय आदिवासी गीतों को रिकॉर्ड करवाया और आरती के बजाय उन्हें प्रसारित किया।
जनजातीय समूहों ने राष्ट्रव्यापी जनजातीय अधिकार आंदोलन भी चलाये हैं, और उन्होंने क्षेत्रवार सम्मेलनों और सेमिनारों का आयोजन करना जारी रखा है।
आदिवासी बचाओ मंच, सिओनी के वरिष्ठ नेता मदन मसकोले के अनुसार, “हमारी मांगें बेहद सरल हैं: ‘आदिवासी’ को एक धर्म के रूप में मान्यता मिले, क्योंकि वे देश की कुल आबादी का 25% हिस्सा हैं। आदिवासियों के लिए हिंदू पर्सनल लॉ और मुस्लिम पर्सनल लॉ की तर्ज पर आदिवासी पर्सनल लॉ का गठन किया जाए।“
मरकाम अपनी बात में जोड़ते हुए कहते हैं, "हमारा उद्देश्य सभी आदिवासी नेताओं को उनके विभिन्न दलों में मौजूदगी के बावजूद एक जगह पर लाने का है जिससे कि हम अपनी मांगों को दृढ़ता से सामने रख सकें और हमारी आदिवासी संस्कृति, विरासत और इतिहास को बचाया जा सक।
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आपने नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
Tribals Subjected to Cultural and Religious Imposition in MP and Chhattisgarh
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