महाराष्ट्र: आख़िर क्यों ‘समृद्धि हाईवे’ बन रहा ‘मौत की सड़क’ ?
निर्माण के कुछ महीनों में ही 400 से ज़्यादा हादसों की ख़बरों के बाद अब इस सड़क को लेकर सवाल उठ रहे हैं। साभार: महाराष्ट्र स्टेट रोड डेवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड
बीते दिसंबर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नागपुर से मुंबई के बीच करीब 800 किलोमीटर की दूरी को महज़ दस घंटे में पूरी करने के लिए 'समृद्धि हाईवे' के पहले चरण का उद्घाटन किया गया था। लेकिन, महज़ इतने कम समय के दौरान सैकड़ों की संख्या में हुए सड़क हादसों और कई लोगों की मौत के चलते यही सड़क अब 'मौत की सड़क' कही कहा जा रही है। सवाल है कि ऐसा क्यों हो रहा है?
दरअसल, यह महाराष्ट्र राज्य सरकार की लापरवाही का स्पष्ट प्रमाण है। इसकी पुष्टि शनिवार तड़के एक बार फिर हुई जब एक हादसे में 25 लोगों की जान चली गई। चिंता की बात यह है कि पिछले 11 दिसंबर से शुरू हुए इस मार्ग पर अब तक 449 दुर्घटनाएं हो चुकी हैं और कुल 97 लोगों की जान जा चुकी है।
पिछले छह महीने से यह रोना रोया जा रहा है कि इस सड़क के डिज़ाइन और निर्माण में खामी है। लेकिन, 150 किलोमीटर प्रति घंटा की गति से डिज़ाइन की गई इस सड़क को लेकर राज्य सरकार 'समृद्धि' लाने वाले तरीके की दोबारा जांच नहीं करना चाहती। दुनिया भर में शोध से साबित हुआ है कि एक सीधी रेखा 'हाइवे गति सम्मोहन' हादसों के लिए निमंत्रण है। यदि इससे बचना है तो मार्ग में निश्चित दूरी पर आकर्षक पैनल और विश्राम स्थल बनाना ज़रूरी है। दूसरी ओर, वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव का लाभ उठाने के लिए उद्घाटन की जल्दबाज़ी में राज्य की शिंदे सरकार ने इस सरल, लेकिन महत्वपूर्ण मामले को स्पष्ट रूप से नज़रअंदाज़ कर दिया। इससे आम जनजीवन की हानि हुई है।
क्या सरकार यह सोचती है कि सिर्फ दुख जताने और लाखों का मुआवज़ा दे देने से ज़िम्मेदारी खत्म हो गई? या उसे हादसों को रोकने के लिए हादसों से जुड़े भयावह आंकड़ों और उसके पीछे की वजह जानने को प्राथमिकता देनी चाहिए?
भारी पड़ रही सरकार की यह अनदेखी
जैसा कि कई जानकारों का अनुभव है कि डामर वाली सड़कों की तुलना में सीमेंट की सड़कों पर तेज़ गति से चलने वाले वाहनों के टायर फटने का खतरा अधिक होता है। इसलिए दुनिया में हर जगह डामर वाली सड़कें ज़्यादा पसंद की जा रही हैं और निर्माण के लिए ऐसी सड़कों को प्राथमिकता दी जा रही है। लेकिन, भारत में स्थिति दूसरी है। यहां इस तर्क के साथ सीमेंट की सड़कें बनाई जा रही हैं कि सीमेंट निर्माता कंपनियों के अस्तित्व का ध्यान रखना भी जैसे सरकारों की ज़िम्मेदारी है। इसका दुष्परिणाम लगातार दुर्घटनाओं के माध्यम से देखने को मिल रहा है।
राज्य सरकार यह सामान्य बहाना बनाकर कि 'ड्राइवर लापरवाह हैं', अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकती। वजह, आरटीओ की रिपोर्ट में कहा गया है कि ताज़ा हादसे की चपेट में आई बस 70 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से दौड़ रही थी। ज़ाहिर है कि वह अपेक्षा से आधी स्पीड से चल रही थी, बावजूद इसके यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी, जबकि 54 हज़ार करोड़ रुपए की लागत से बनी इस सड़क पर 150 किलोमीटर प्रति घंटे की स्पीड तय की गई है, लेकिन देखा गया है कि कई सारे वाहन इस स्पीड तक नहीं दौड़ रहे हैं।
वहीं, इस मार्ग पर वाहन किस स्पीड से दौड़ रहे हैं और कैसे हादसों का शिकार हो रहे हैं तो इसकी निगरानी के लिए कोई तंत्र स्थापित नहीं किया गया है। यहां तक कि कहीं भी सीसीटीवी कैमरा तक नहीं लगाए गए हैं। सवाल यह है कि इतनी बड़ी और विशेष परियोजना को लागू करते समय सरकारी स्तर पर साधारण सीसीटीवी कैमरों पर विचार नहीं किया गया तो क्यों इसके लिए राज्य की सरकार दोषी नहीं है?
निर्माण की गुणवत्ता को लेकर उठ रहे सवाल
पड़ताल करने पर पता चलता है कि इस मार्ग पर सबसे ज़्यादा दुर्घटनाएं राज्य के वाशिम और बुलढाणा इलाके में हुईं हैं। सवाल है कि खासतौर पर यदि इस इलाके में ज़्यादा हादसे हो रहे हैं और इन हादसों में लोग मर रहे तो यहां सड़क निर्माण की गुणवत्ता का स्तर क्या है और जिस कंपनी को इस इलाके में सड़क निर्माण का ठेका मिला था क्या उसने अपना कार्य निर्माण के निर्धारित मानदंडों को ध्यान में रखते हुए पूरा किया है? मामला इसलिए भी गंभीर है कि इस मार्ग के शुरू होते ही इस पर बने मेहराबों के ढहने से तीन लोगों की मौत हो गई थी। यही वजह है कि इन हादसों के पीछे कई लोगों ने कार्य की गुणवत्ता पर सवाल उठाए हैं।
यहां तक कि जब इन हादसों को लेकर मीडिया कवरेज हुई तो यह बात भी सामने आई कि राज्य सरकार के सड़क निर्माण विभाग के अधिकारी भी गुणवत्ता को लेकर शंकित दिख रहे हैं। अब जबकि बड़े पैमाने पर सड़क हादसे हो रहे हैं और आम आदमी की जानें जा रही हैं तो सड़क निर्माण की गुणवत्ता कठघरे में आ गई है। हादसे खुद गवाही दे रहे हैं कि सड़क को यातायात के लिए खोलने के बाद हादसों की वजह से बढ़ता मौत का आंकड़ा दोषपूर्ण निर्माण का परिणाम भी है। यहां यह बात भी पूछे जानी लगी है कि क्या कुछ लोगों को लाभ पहुंचाने और कुछ लोगों की ज़मीन बचाने के लिए भी क्या रूट प्लान बदला गया था?
इसी के साथ यह सवाल भी उठ रहे हैं कि सड़क हादसे की गुणवत्ता को लेकर क्या सरकार जांच या समीक्षा के नाम पर कुछ कदम उठा सकेगी? दरअसल, ऐसे सवालों के जवाब तलाशने का एक सरल प्रयास भी उन कारणों को उजागर कर सकता है जो वास्तव में समृद्धि के नाम पर गलत के लिए ज़िम्मेदार हैं। लेकिन, छह महीने के दौरान इस मार्ग पर जिस संख्या में हादसे और मौतें हुई हैं और जिस दृष्टिकोण से राज्य सरकार ने लापरवाही पूर्ण रवैया अपनाया हुआ है, लगता नहीं है कि राज्य सरकार ऐसी तत्परता दिखाएगी। वहीं, राज्य सरकार इस मामले में तत्परता नहीं दिखाती है तो यह भी ज़ाहिर है कि समाधान नहीं निकलेगा।
देखा जाए तो पिछड़े क्षेत्रों के विकास के लिए बड़े पैमाने पर राजमार्गों के निर्माण की मांग की जाती रही है। हादसों के डर से सड़क नहीं बननी चाहिए तो ऐसी दलील का कोई तुक नहीं है। लेकिन, सड़क निर्माण के समय नीति-निर्धारकों और योजनाकारों से अपेक्षा की जाती है कि वे लोगों की जान से खेलने वाली किसी भी तरह की आशंका को न्यूनतम करने की कोशिश करें और ऐसे निर्माण करें जिसकी गुणवत्ता पर संदेह खड़े न हो जाएं।
यदि 'मौत की सड़क' को धूमिल करना है तो राज्य सरकार को तुरंत आवश्यक कदम उठाना चाहिए और इस सड़क का नए सिरे से ऑडिट कराना चाहिए। साथ ही राज्य सरकार इस सीमा तक तो संवेदनशीलता ज़ाहिर करें कि बड़े हादसों में सिर्फ दुख व्यक्त करने और मुआवज़ा देने से काम नहीं चलेगा। यदि ऐसा किया तो 'समृद्धि' का मार्ग राज्य सरकार के लिए कांटों का रास्ता भी बन सकता है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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