ख़बरों के आगे-पीछे: नूपुर पर कार्रवाई करने की एक्टिंग करती भाजपा
ऐसे निलंबन-निष्कासन का कोई मतलब नहीं
भारत में वामपंथी दलों के अलावा बाकी राजनीतिक दलों और उनमें भी खासकर भारतीय जनता पार्टी में किसी नेता के निलंबन या निष्कासन का कोई खास मतलब नहीं होता है। अगर कोई नेता पार्टी की मूल विचारधारा या पार्टी के शीर्ष नेता के खिलाफ कुछ नहीं बोल रहा है तो उसके खिलाफ की गई कार्रवाई बेमतलब होती है। इसलिए भाजपा ने अभी भले ही नूपुर शर्मा को निलंबित और नवीन कुमार जिंदल को निष्कासित कर दिया है लेकिन इससे उनकी स्थिति पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ेगा। भाजपा के कई बड़े नेता, सांसद और विधायक जिस तरह नूपुर और नवीन के समर्थन में सामने आ रहे हैं, उससे साफ है कि पार्टी ने इन दोनों के खिलाफ दिखावे के लिए कार्रवाई की है। दोनों की जल्दी ही पार्टी में वापसी होगी और तब तक वे परदे के पीछे से पार्टी के लिए काम करते रहेंगे। इसका कारण यह है कि वे मूल रूप से पार्टी की मूल विचारधारा को ही फॉलो करते हैं। पार्टी ने पहले भी कई नेताओं को इसी तरह निकाला है और बाद में वापस उनको ले लिया है। अभी भाजपा बयान जारी करके कुछ भी कहे लेकिन उसे राजनीति तो हिंदू-मुस्लिम और मंदिर-मस्जिद के मसले पर ही करनी है। इस सिलसिले में याद किया जा सकता है कि 2016 में बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती के खिलाफ बेहद अपमानजनक टिप्पणी करने के लिए उत्तर प्रदेश के नेता दयाशंकर सिंह को कैसे पार्टी से निकाला गया था। फिर उसके अगले ही साल 2017 में उनकी पत्नी स्वाति सिंह को भाजपा ने विधानसभा का टिकट दिया और जीतने के बाद उनको योगी आदित्यनाथ की सरकार में मंत्री भी बनाया। इसके थोड़े दिन बाद ही दयाशंकर सिंह की पार्टी में वापसी हो गई और उन्हें प्रदेश भाजपा का उपाध्यक्ष बना दिया गया। इस बार भाजपा ने उनकी पत्नी के बजाय उनको टिकट दिया और अब वे योगी सरकार में मंत्री है। उन्होंने तो कोई माफी भी नहीं मांगी। उनके द्वारा किए गए दलित अपमान की बात भी आई-गई हो गई। नूपुर शर्मा और नवीन कुमार जिंदल ने तो माफी भी मांग ली है। इसलिए जल्दी ही दोनों की पार्टी में वापसी होगी।
खाड़ी देशों से खेद और पाक-ओआईसी को फटकार
पैगंबर हजरत मुहम्मद पर भाजपा प्रवक्ता नूपुर शर्मा की अपमानजनक टिप्पणी के मामले में भारत सरकार और भाजपा के रवैए में दोहरापन दिख रहा है। कतर, कुवैत, बहरीन, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात आदि खाडी देशों के साथ-साथ इंडोनेशिया और मालदीव की ओर से विरोध दर्ज कराए जाने पर भारत सरकार बैकफुट पर रही। उसने खेद जताया और बयान जारी करके कहा कि वह दूसरे धर्मों का अपमान करने वाले विचार का समर्थन नहीं करती है। लेकिन जैसे ही इस्लामिक देशों के समूह ओआईसी और पाकिस्तान ने यह मुद्दा उठाया, भारत ने तीखी प्रतिक्रिया दी। ओआईसी के बयान को भारत ने खारिज किया और पाकिस्तान पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि जो देश खुद ही अपने यहां अल्पसंख्यकों के प्रति दुर्भावना रखता हो उसे भारत के मामले में बोलने की जरूरत नहीं है। ध्यान रहे पाकिस्तान ने भी भारत को राजनयिक को बुला कर विरोध दर्ज कराया था। असल में यह दोहरी प्रतिक्रिया विशुद्ध रूप से आर्थिक हितों से जुड़ी है। कतर में करीब 30 लाख भारतीय रहते है। वहां की स्थानीय आबादी के बाद सबसे ज्यादा भारतीय लोग हैं। अन्य अरब देशों में भी बड़ी संख्या में भारतीय रहते हैं। इसी तरह संयुक्त अरब अमीरात भारत का तीसरा सबसे बड़ा कारोबारी सहयोगी है। ऐसे में इन देशों के साथ टकराव बढ़ाना समझदारी की बात नहीं होती। इसके उलट पाकिस्तान से भारत का कोई कारोबारी रिश्ता नहीं है और उसके खिलाफ हमलावर रहना भाजपा के लिए राजनीतिक रूप से भी फायदेमंद रहता है।
किसकी रणनीति से मुस्लिम नेताओं का टिकट कटा
भारतीय जनता पार्टी ने राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव में 22 उम्मीदवार उतारे हैं, लेकिन उनमें एक भी मुस्लिम नहीं है। भाजपा के तीन मुस्लिम सांसद रिटायर हो रहे हैं, लेकिन उसने किसी को रिपीट नहीं किया। एमजे अकबर और जफर इस्लाम तो कुछ समय पहले भाजपा से जुड़े थे लेकिन केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी तो दशकों से भाजपा और संघ से जुड़े रहे हैं और शिया मुस्लिम हैं। फिर भी पार्टी ने उनको टिकट नहीं दिया। इस साल के शुरू में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए, जिसमें भाजपा करीब पौने चार सौ सीटों पर लड़ी लेकिन उसमें भी किसी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया। उसके बाद राज्यसभा की आठ टिकटों में भी किसी मुस्लिम को शामिल नहीं किया। जाहिर है कि भाजपा ने रणनीति के तहत ऐसा किया है। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और झारखंड से चुने गए तीनों मुस्लिम राज्यसभा सदस्यों को टिकट नहीं देना और फिर रामपुर के लोकसभा उपचुनाव में भी नकवी को टिकट नहीं देना अनायास नहीं है। सवाल है कि यह किसकी रणनीति है? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने यह रणनीति बनाई या इसके पीछे कोई और कहानी है? जानकार सूत्रों के मुताबिक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राज्यसभा चुनाव की घोषणा से पहले ही साफ कर दिया था कि वे अपने यहां से किसी मुस्लिम को उम्मीदवार नहीं बनाना चाहेंगे। 'हिंदू हृदय सम्राट’ की अपनी छवि को और मजबूत करने के लिए वे इन दिनों कई काम कर रहे हैं। विधानसभा चुनाव में भी वे लगातार 80 बनाम 20 फीसदी की बात करते रहे थे। वे साफ तौर पर दिखाना चाहते हैं कि भाजपा 80 फीसदी वालों की पार्टी है और उसको 20 फीसदी की जरूरत नहीं है। बताया जा रहा है कि इस मसले पर योगी का दो टूक स्टैंड देखने के बाद ही भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने मुस्लिम सांसदों के बारे में फैसला किया। अगले साल मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव है और झारखंड में केंद्रीय एजेंसियों, चुनाव आयोग और न्यायपालिका की कार्रवाई से जैसे हालात बने हैं, उसमें भाजपा किसी भी समय विधानसभा के मध्यावधि चुनाव की संभावना देख रही है। इसलिए इन राज्यों से चुने गए मुस्लिम नेताओं की राज्यसभा का टिकट कटा और पार्टी ने उन्हें किसी अन्य राज्य से भी राज्यसभा में नहीं भेजा। जाहिर है कि मुख्यमंत्री योगी ने जो 80 और 20 का जो दांव चला है, उसका संदेश पूरे देश में देने के लिए ही भाजपा ने किसी मुसलमान को राज्यसभा का टिकट नहीं दिया।
राष्ट्रवादियों की फिल्में क्यों पिट रहीं?
समूचा बॉलीवुड पिछले कुछ समय से घनघोर राष्ट्रवादी हो गया है। बॉलीवुड में रहकर सेक्युलर एजेंडे पर सोशल मीडिया में सक्रिय कुछ लोगों के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई हुई तो उसके बाद से वे सब लोग भी चुप हैं। लेकिन हैरानी की बात है कि राष्ट्रवादी निर्माता-निर्देशकों और कलाकारों की फिल्में लगातार बुरी तरह पिट रही हैं। सबसे ताजा मिसाल प्रखर राष्ट्रवादी अभिनेता अक्षय कुमार की है। उनकी फिल्मों का वैसा हस्र कभी नहीं हुआ, जैसा अभी हो रहा है। उनकी 'बच्चन पांडे’ फिल्म आई और पिट गई। उसके बाद हिंदू राजा पृथ्वीराज के जीवन पर बनी 'सम्राट पृथ्वीराज’ फिल्म आई, जिसमें हिंदुत्व, राष्ट्रवाद आदि का तड़का है फिर भी फिल्म की कमाई औसत रही। अंदेशा है कि फिल्म की लागत भी नहीं निकल पाएगी। पिछले दिनों राष्ट्रवादी अभिनेत्री कंगना रनौत की बहुप्रचारित फिल्म 'धाकड़’ रिलीज हुई, जिसमें उन्होंने अपनी छवि के अनुरूप अभिनय किया, लेकिन बुरी तरह से फ्लॉप हुई। यह हिंदी सिनेमा के इतिहास की सबसे फ्लॉप पांच फिल्मों में शामिल हो गई। करीब 80 करोड़ की लागत से बनी फिल्म महज पांच-छह करोड़ की ही कमाई कर पाई। इसी तरह पिछले दिनों अजय देवगन की फिल्म आई थी 'रनवे 34’ यह फिल्म भी बुरी तरह फ्लॉप हुई। हालांकि फिल्म रिलीज से पहले उन्होंने हिंदी और दक्षिण भारतीय भाषाओं के बीच विवाद खड़ा करने वाला बयान देकर अपने को हिंदी, हिंदू, हिदुस्तानी बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कितनी दिलचस्प बात है कि कहां तो हिंदुवादी संगठन मुस्लिम अभिनेताओं की फिल्में फ्लॉप कराने की अपील करते थे और कहां कट्टर हिंदुत्व की बात करने वालों की ही फिल्में पिट रही हैं।
बिहार में भाजपा के साथ सबका दम घुट रहा
बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए में कुछ दिनों पहले तक चार पार्टियां थीं, जिनमें से एक हाल ही में बाहर हो गई है और बाकी बची तीन में से दो को घुटन महसूस हो रही है तीसरी पार्टी भाजपा अपनी सहयोगी पार्टियों की घुटन से हैरान-परेशान है। एनडीए में शामिल और राज्य सरकार में भी हिस्सेदार पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने कहा है कि एनडीए में उनका दम घुट रहा है। वे पहले भी इस तरह का बयान दे चुके है। इस बार माना जा रहा है कि एमएलसी के चुनाव की वजह से उन्होंने बयानबाजी की है। उनके अलावा सरकार की कमान संभाल रहे जनता दल (यू) के नेता और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बारे में नेता विपक्ष तेजस्वी यादव ने कहा कि एनडीए में उनका दम घुट रहा है। इस पर जनता दल (यू) की ओर से कोई सफाई नहीं दी गई, जिससे माना जाना चाहिए कि उसका भी दम घुट रहा है। जनता दल (यू) और भाजपा के नेताओं के बीच जैसी जुबानी जंग पिछले दिनों हुई, उसे देखते हुए यह हैरानी की बात नहीं है। एनडीए से हाल ही में बाहर हुए मुकेश सहनी की अलग कहानी है। उनकी पार्टी का कहना है कि एनडीए में दम घुट रहा था लेकिन भाजपा ने तो उसका गला ही घोंट दिया। गौरतलब है कि सहनी की पार्टी वीआईपी के चार विधायक थे। एक विधायक मुसाफिर पासवान के निधन से खाली हुई बोचां विधानसभा सीट पर उपचुनाव में भाजपा ने भी अपना प्रत्याशी उतार दिया। सो, राजद, भाजपा और मुकेश साहनी की पार्टी की लड़ाई में राजद ने बाजी मारी। इस बीच भाजपा ने सहनी के बचे हुए तीन विधायको को अपनी पार्टी में शामिल करा लिया। इस तरह वीआईपी का विधानसभा में प्रतिनिधित्व समाप्त हो गया। मुकेश सहनी खुद अगले महीने विधान परिषद से रिटायर हो रहे हैं तो वहां भी उनकी पार्टी का प्रतिनिधित्व समाप्त हो जाएगा। एनडीए से बाहर होने के बाद से वे मुख्य विपक्षी राजद के संपर्क में हैं, लेकिन साथ ही नीतीश कुमार से भी उन्होने संपर्क समाप्त नहीं किया है। इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि बिहार के एनडीए में सभी नेताओं के दम घुटने की राजनीति आगे किस दिशा में बढ़ती है।
कांग्रेस मुक्त हो सकता है गोवा
गोवा में विधानसभा का चुनाव हारने के बाद कांग्रेस के लिए एक नई परेशानी खड़ी हो गई है। वहां भाजपा की ओर से कांग्रेस में बड़े पैमाने पर तोड़-फोड़ की नई कोशिश शुरू हो गई हैं जिसके सफल होने पर गोवा जल्द ही कांग्रेस मुक्त हो सकता है। पार्टी के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम गोवा के चुनाव प्रभारी थे, लेकिन वहां अब उनकी कोई भूमिका नहीं बची है। पार्टी के दूसरे नेता भी बुरी तरह हारने के बाद वहां से गायब हो गए हैं। पार्टी के प्रभारी दिनेश गुंडूराव भी अपने राज्य मे व्यस्त हैं। इसीलिए कांग्रेस की वहां चिंता बढ़ी है। बताया जा रहा है कि भाजपा के प्रादेशिक नेता एक बार फिर कांग्रेस में तोड़-फोड़ की प्लानिंग कर रहे हैं। वहां कांग्रेस के अभी 11 विधायक हैं, जिनकी कमान पार्टी ने माइकल लोबो को दी है। ध्यान रहे माइकल लोबो चुनाव से ऐन पहले भाजपा छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हुए थे। वे 2012 से भाजपा के विधायक थे। लेकिन 2022 के चुनाव से ऐन पहले कांग्रेस में शामिल हो गए थे। कांग्रेस के कई नेता इस बात से भी नाराज है कि पार्टी ने दलबदल करने वाले माइकल लोबो को विधायक दल का नेता क्यों बनाया। गौरतलब है कि 2017 के चुनाव में कांग्रेस के 17 विधायक जीते थे लेकिन पांच साल बाद कांग्रेस में सिर्फ दो विधायक बचे थे। बाकी पाला बदल कर भाजपा, तृणमूल कांग्रेस और अन्य पार्टियों में चले गए थे। तब दिगंबर कामत जैसे कुछ गिने-चुने नेता ही कांग्रेस के साथ रह गए थे। उनकी अनदेखी करना कांग्रेस को भारी पड़ सकता है। भाजपा के नेता पिछले इतिहास दोहराने की तैयारी में लगे हैं। प्रदेश के नेताओं का दावा है कि अगर केंद्रीय नेतृत्व मंजूरी दे तो भाजपा के विधायकों की संख्या 30 हो जाएगी। वहां भाजपा के अभी 20 विधायक हैं।
जो भाजपा ने चाहा वही आजम खान ने किया
समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान को जब से मुकदमों में राहत मिलनी शुरू हुई और 27 महीने बाद जेल से रिहाई हुई तभी से कहा जा रहा था कि वे समाजवादी पार्टी से दूरी बनाएंगे और भाजपा की मदद करेंगे। अब ऐसा लग रहा है कि उन्होंने भाजपा की मदद कर दी। उन्होंने अपने इस्तीफ़े से खाली हुई रामपुर लोकसभा सीट पर अपने परिवार के किसी सदस्य के लड़ने से इंकार कर दिया। पार्टी की ओर से उनकी पत्नी और पूर्व राज्यसभा सदस्य तंजीम फातिमा का नाम तय कर दिया गया था। लेकिन नामांकन दाखिल करने से एक घंटे पहले आजम खान ने पार्टी के दूसरे नेता और अपने करीबी आसिम रजा को उम्मीदवार बनाने की घोषणा की। आजम खान खुद पार्टी कार्यालय पहुंचे और यह घोषणा की। जानकार सूत्रों का कहना है कि भाजपा यही चाहती थी कि आजम खान के परिवार का कोई सदस्य चुनाव न लड़े। अगर उनके परिवार का कोई सदस्य चुनाव लड़ता तो तस्वीर अलग होती। उनके 27 महीने जेल मे रहने से जो सहानुभूति पैदा हुई है उसका लाभ उनके उम्मीदवार को मिलता। अब वह नहीं होगा। रामपुर के मतदाताओं में यह मैसेज चला गया है कि आजम खान की सपा से दूरी है। इसलिए भी सपा उम्मीदवार के पक्ष में उनके समर्थको का ध्रुवीकरण नहीं होगा। चूंकि बसपा और कांग्रेस ने उम्मीदवार नहीं उतारा है इसलिए आजम खान के परिवार का सदस्य नहीं होने के बावजूद भाजपा के घनश्याम लोधी के लिए मुकाबला आसान नहीं होगा। फिर भी यह तो तय है कि आजम खान ने अपना काम कर दिया।
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