लेनिन को याद करते हुए: बिजली, तर्क और विज्ञान
यह साल, कॉमरेड लेनिन के निधन की शताब्दी का साल है। सभी समाजवादियों और कम्युनिस्टों के लिए सोवियत संघ एक ऐसे नये समाज की स्थापना की आशा का आधार था, जिसमें उत्पादन के साधनों का स्वामित्व मेहनतकश जनता के हाथों में होना था, न कि पूूंजीपति तथा सामंती वर्गों के हाथों में। बहुतों को सोवियत संघ ने एक भिन्न समाज व्यवस्था की और औपनिवेशिक शासकों के शिकंजे से राष्ट्रीय मुक्ति की आशा दी थी।
बोल्शेविक क्रांति ने पूंजीवादी व्यवस्था तथा औपनिवेशिक व्यवस्था को पलट दिया और एक ऐसी दुनिया की संभावना को जन्म दिया, जो लालच तथा उत्पीड़न से मुक्त होगी, जहां श्रम करने वालों को अपनी मेहनत का पूरा फल मिलेगा। उनकी मेहनत का फल ऐसे परजीवी वर्गों को नहीं मिलेगा, जिनका उत्पादन में शायद ही कोई योगदान होता है।
बहरहाल, आज मैं इसके बारे में नहीं लिखने वाला हूं। आज मैं लेनिन के योगदान के दो बहुत ही भिन्न पहलुओं के बारे में लिखूंगा, जो शायद इतने चर्चित नहीं हैं: 1) बिजली का क्षेत्र और समाज में उसकी वृहत्तर भूमिका; 2) विज्ञान तथा दर्शन। यहां मैं सिर्फ कुछ ऐसे मुद्दों की चर्चा करूंगा जिनसे लेनिन ने दो-दो हाथ किए थे और इसकी चर्चा करूंगा कि किस तरह ये मुद्दे आज भी बने हुए हैं, हालांकि उनका रूप बदल गया है।
विज्ञान और दर्शन के क्षेत्रों में योगदान
इन दोनों ही क्षेत्रों में लेनिन की अपनी राय ही नहीं थी बल्कि इन मामलों में अपनी पीढ़ी के विचारों को गढ़ने में उनकी एक सक्रिय हिस्सेदारी रही थी। बिजली के क्षेत्र में वह सोवियत संघ के औद्योगीकरण और कृषि का भविष्य देखते थे। इस हद तक कि उन्होंने तो एलान कर दिया था कि सोवियतें और विद्युतीकरण, समाजवाद के बराबर हो जाते हैं। यह सिर्फ एक नारा ही नहीं था बल्कि वह अर्थव्यस्था, उत्पादक शक्तियों और ज्ञान के बीच, एक गहराई तक सुचिंतित संबंध व्यवस्था को प्रस्तुत कर रहे थे। उनके लिए इसमें विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी भी शामिल हैं और जनता के संगठन भी--उस समय की सोवियतें।
दूसरे पहलू का संबंध नयी भौतिकी यानी सापेक्षता (Theory of relativity ) तथा क्वांटम मैकेनिक्स (Quantum mechanics ) से है। इन दोनों ने ही सिर्फ क्लासिकल भौतिकी के लिए ही नहीं बल्कि तमाम तब मौजूद दार्शनिक व्यवस्थाओं के लिए भी, समस्याएं खड़ी कर दी थीं। हैरानी की बात नहीं है कि न सिर्फ पुरानी चाल के दार्शनिक इन मुद्दों पर विभाजित थे बल्कि मार्क्सवादी भी विभाजित थे, जिनमें से अनेक तो सापेक्षता तथा क्वांटम मैकेनिक्स, दोनों को ही पूंजीवादी विचलनों के रूप में खारिज करते थे। लेकिन, लेनिन के लिए मसला सिर्फ इतना नहीं था कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के खाके में इस यथार्थ की व्याख्या की जाए बल्कि मसला इस खाके का ही विस्तार करने का भी था, ताकि इन नयी चुनौतियों का सामना किया जा सके। हालांकि, वह अपनी शुरुआती कृति, मैटिरियलिज्म एंड एंपिरो क्रिटिसिज्म प्रकाशित कर चुके थे और यह काफी चर्चित हुई, लेकिन उनकी रचना, फिलॉसफिकल नोटबुक्स जिसमें उन्होंने अपनी पहले वाली कृति के सूत्रीकरणों को आगे बढ़ाया है, नोट्स के रूप में ही बनी रही। हालांकि, इस रूप में यह कृति आगे चलकर सोवियत संघ में प्रकाशित हुई थी और दिलचस्पी रखने वाले सभी लोगों को उपलब्ध भी थी, फिर भी इन सूत्रीकरणों ने जो अंतिम रूप निश्चित रूप से लिया होता, उससे हम 53 वर्ष की अपेक्षाकृत कम आयु में उनके निधन के चलते वंचित ही रह गए।
सोवियत संघ के विद्युतीकरण की कहानी
आइए, हम सोवियत संघ के विद्युतीकरण की कहानी से शुरू करें। जब बोल्शेविक क्रांति हुई थी-1918 में-सोवियत संघ की बिजली की स्थापित क्षमता सिर्फ 4.8 मेगावाट की थी, जो ज्यादा से ज्यादा कुछ शहरों की ही जरूरत पूरी करती थी। उस समय लेनिन और कम्युनिस्ट पार्टी ने इस बात को पहचाना था कि बड़े पैमाने पर विद्युतीकरण के बिना न तो उद्योगों का विकास हो सकता है और कृषि का विकास। कृषि को बिजली की जरूरत सिंचाई के लिए भी थी और कृषि उपकरणों के उत्पादन के लिए विनिर्माण उद्योग के लिए भी। इसीलिए, उन्होंने कहा था कि सोवियतें जमा विद्युतीकरण, समाजवाद के बराबर हैं। उनके लिए और बोल्शेविक पार्टी के लिए, इसका अर्थ मशीनों का आयात करना ही नहीं था बल्कि मशीनों का उत्पादन करना भी था। इसलिए, औद्योगीकरण का पहला लक्ष्य तो खुद बिजली का क्षेत्र ही था।
1920 के नवंबर में लेनिन ने बिजली की पहचान कम्युनिज्म के रूस के रास्ते के रूप में की थी: *कम्युनिज्म, सोवियत सत्ता जमा पूरे देश के विद्युतीकरण के बराबर है।* यह घोषणा जीओईएलआरओ द्वारा सूत्रबद्ध की गयी योजना के कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा अनुमोदन की सूचक थी। स्टेट कमीशन फॉर इलैक्ट्रिफिकेशन आफ रशा में इंजीनियरों और वैज्ञानिकों को रखा गया था। बिजली के संबंध में और बोल्शेविक क्रांति के लिए उसके महत्व के संबंध में अपनी समझ को लेनिन ने कोमिंटर्न की तीसरी कांग्रेस (1921) के लिए अपने संबोधन में दोहराया था:
* एक बड़े पैमाने का मशीन उद्योग जो कृषि क्षेत्र का पुनर्गठन करने में समर्थ हो, समाजवाद के लिए एकमात्र यही भौतिक आधार हो सकता है...सोवियत संघ के विद्युतीकरण की ऐसी एक योजना तैयार करने के लिए हमें वैज्ञानिक उद्यम करना पड़ा...रूस के 200 से ज्यादा बेहतरीन वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और कृषि विज्ञानियों की मदद से। अब 1921 के अगस्त में विद्युत इंजीनियरों की एक अखिल रूस कांग्रेस के आयोजन की व्यवस्थाएं कर दी गयी हैं, जहां इस योजना की विस्तार से जांच-पड़ताल की जाएगी और इसके बाद सरकार द्वारा अंतिम रूप से इसका अनुमोदन कर दिया जाएगा।*
औद्योगिक विकास की रीढ़
बाद के अनेक पूंजीवादी विद्वानों ने, जिनमें उत्तर-आधुनिकतावादी भी शामिल हैं, लेनिन को एक यांत्रिक भौतिकतावादी बनाकर पेश करने की कोशिश की है, जिसने प्रौद्योगिकी के उपयोगितावादी खांचे में विज्ञान को भरने की कोशिश की थी। वे यह नहीं देख पाते हैं कि लेनिन तो तकनीकी कर्मियों के किसान जनता के साथ गठबंधन का प्रस्ताव कर रहे थे, जिससे रूस के तेजी से औद्योगीकरण और उसकी कृषि के विस्तार के दुहरे लक्ष्य को हासिल किया जा सके।
नवोदित विद्युत क्षेत्र का विस्तार करने के इस कार्यक्रम के साथ तकनीकी बुद्धिजीवी--इंजीनियर तथा वैज्ञानिक--भी क्रांतिकारी शक्तियों के साथ जुड़ रहे थे। यह सिर्फ विद्युतीकरण के विस्तार तक ही सीमित मामला नहीं था बल्कि बिजली का उत्पादन करने वाली मशीनों--हाइड्रो टर्बाइनों--के निर्माण की सामर्थ्य विकसित करने का मामला भी था। इसी को मार्क्स ने उद्योग का डिपार्टमेंट नंबर-1 कहा था यानी उन मशीनों का निर्माण करने की सामर्थ्य, जो वस्तुओं/ मालों का उत्पादन करने जा रही हैं। जल-विद्युत से लोगों तथा उद्योगों को बिजली मिलने जा रही थी औैर इसके लिए बनाए जाने वाले बांधों से किसानों के खेतों की सिंचाई के लिए पानी मिलने जा रहा था। खुद जल-विद्युत परियोजनाओं के गिर्द मजदूरों और किसानों का गठबंधन निर्मित होने जा रहा था। सोवियत जमा बिजली बराबर समाजवाद का लेनिन का नारा, जितना राजनीतिक नारा था, उतना ही ज्यादा तकनीकी-आर्थिक नारा भी था। यह सोवियत संघ के औद्योगिक विकास की रीढ़ बन गया क्योंकि बिजली के बिना बड़े पैमाने का कोई औद्योगीकरण संभव ही नहीं था। इसने मजदूरों तथा तकनीकविदों का एक कॉडर भी खड़ा किया, जो सोवियत संघ के औद्योगीकरण को गति देने जा रहे थे।
यह दिलचस्प है कि भारत में भी बिजली का क्षेत्र ही वह मैदान था जिसमें नेहरूवादी, समाजवादी-साम्यवादी और अंबेडकरवादी दृष्टियां, स्वतंत्र भारत में एकजुट हुई थीं। जिस तरह लेनिन ने बिजली के क्षेत्र और जल-विद्युत परियोजनाओं की पहचान समाजवादी परियोजना की रीढ़ के रूप में की थी, वैसे ही नेहरू और अंबेडकर ने इसकी पहचान की थी। जैसा कि हम जानते ही हैं नेहरू ने जल-विद्युत परियोजनाओं को आधुनिक भारत के *मंदिर* कहा था, हालांकि आगे चलकर उनकी यह भी सोच बनी थी कि छोटे बांधों तथा छोटी औद्योगिक परियोजनाओं की बड़ी तादाद, गिनी-चुनी बड़ी परियोजनाओं का विकल्प हो सकती हैं। (When the big dams came up: The Hindu, March 20, 2015)।
बहरहाल, जिस चीज के बारे में लोग कम जानते हैं, वह है अंबेडकर का योगदान और 1943 की पॉलिसी कमेटी ऑन पब्लिक वर्कर्स एंड इलेक्ट्रिक पॉवर के अध्यक्ष के रूप में और 1948 में भारत के इलेक्ट्रिसिटी एक्ट को सूत्रबद्ध करने में उनकी पुरोधा की भूमिका। इस कानून के निर्माता के रूप में उन्होंने बिजली की संकल्पना एक जरूरी अनिवार्यता के रूप में की थी, जिसका सार्वजनिक क्षेत्र में रखा जाना और मुनाफे से संचालित होने से मुक्त रखा जाना जरूरी था। (अंबेडकर्स रोल इन इकॉनमिक प्लानिंग, वाटर एंड पॉवर पॉलिसी, सुखदेव थोराट, शिप्रा पब्लिकेशन्स, 2006)। उन्होंने खुद को एक मार्क्सवादी के रूप में तो नहीं, पर समाजवादी के रूप में परिभाषित भी किया था (इंडिया एंड कम्युनिज्म, बीआर अंबेडकर, आनंद तेलतुम्बडे की भूमिका के साथ, लैफ्टवर्ड बुक्स)
विज्ञान के दर्शन में योगदान
लेनिन को याद करते हुए हमें न सिर्फ राजनीतिक कार्रवाइयों के लिए और एक क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण के लिए उनके बहु-पक्षीय योगदान को याद करना होगा बल्कि दर्शन के लिए, जिसमें विज्ञान का दर्शन भी शामिल है, उनके योगदान को भी याद करना होगा।
उनकी विज्ञान के दर्शन की पहली प्रमुख कृति मेटीरियलिज्म एंड एंपिरियो-क्रिटिसिज्म है, जिससें वह क्वांटम मैकेनिक्स की कोपेनहेगन व्याख्या को अनालोचनात्मक तरीके से स्वीकार कर लेने वालों की आलोचना करते हैं। निस्संदेह, क्वांटम मैकेनिक्स और सापेक्षता सिद्धांत या थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी ने दर्शन की सभी धाराओं के लिए गंभीर चुनौती पेश की थी। विज्ञान की किसी भी महत्वपूर्ण प्रगति की यही प्रकृति होती है। विज्ञान की इस तरह की प्रकृति न सिर्फ प्रकृति की हमारी समझ को चुनौती देती है बल्कि प्रकृति की इस समझ के आधार पर हमने जो दर्शन खड़े किए हैं, उन्हें भी चुनौती देती है।
क्वांटम की दुनिया और उसकी सापेक्षतावादी प्रकृति की खोज ने, जिस तरह सूर्य-केंद्रित दुनिया की संकल्पना को हिला दिया, उसी प्रकार दर्शन की दुनिया को भी हिला दिया। दार्शनिकों ने आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। उनकी दलील थी आइंस्टीन ने काल की दार्शनिक प्रकृति को समझा ही नहीं था। इस पर आइंस्टीन का जवाब था कि उन्होंने नापे जा सकने वाले वाले काल को ही समझा था, न कि दार्शनिक काल को। इसकी अभिव्यक्ति पेरिस में आइंस्टीन और हेनरी बर्गसां के बीच एक बड़ी बहस में हुई थी ((The Physicist and the Philosopher, Jimena Canales, 2015)। हालांकि इतिहास ने साबित किया कि बर्गसां की काल की मनोगत दृष्टि के विपरीत, आइंस्टीन की ही काल की दृष्टि वस्तुगत थी, फिर भी नोबेल कमेटी में बर्गसां की ही दृष्टि की चली और इस कमेटी ने आइंस्टीन को फोटोइलैक्ट्रिक इफैक्ट के लिए नोबल पुरस्कार दिया, न कि उनके सापेक्षता के सिद्धांत के लिए, जिसके लिए सारी दुनिया उन्हें जानती थी। यह निर्णय इस बात तो ध्यान में रखते हुए किया गया था कि *...पेरिस में प्रसिद्ध दार्शनिक बर्गसां ने इस सिद्धांत को चुनौती दी थी।*
लेनिन की फिलासफिकल नोटबुक्स से, जो बेशक एक पुस्तक के रूप में नहीं लिखी गयी थी बल्कि अपने लिए नोट्स के रूप में ही लिखी गयी थी, यह साफ हो जाता है कि वह एंद्रिक संवेदन को बाहरी दुनिया का प्रतिबिंब मानने के पहले के सूत्रीकरण से आगे निकल चुके थे। बहरहाल, उनकी कृति मेटीरियलिज्म एंड इंपिरो-क्रिटिसिज्म के आलोचक गलत तरीके से उक्त सूत्रीकरण के लिए ही उनकी स्थूल भौतिकवादी के रूप में आलोचना करते हैं। यह उसी तरह से है जैसे मार्क्स के विपरीत, जो सही मार्क्सवादी हैं, एंगेल्स को स्थूल भौतिकवादी कहकर उनकी निंदा की जाए। लेनिन इसे पहचानते थे कि वैज्ञानिक नियम सिर्फ आंशिक तथा वेध्य या फैलिएबल होते हैं। स्वयं गति की ही उनकी समझ कि यह एक साथ दो जगहों पर होना है, एक द्वंद्वात्मक चीज के रूप में जिसे उसे देखती है, जिसे द्विध्रुवीयता (हां/ ना) के अरिस्तुई तर्क से नहीं पकड़ा जा सकता है। इसे नोटबुक्स में साफ तौर पर बताया गया है। हालांकि बहुत से बहु-मूल्यित तर्क के सूत्रीकरण मौजूद हैं, द्वंद्वात्मक तर्क की ऐसी व्याख्या अब भी एक चुनौती बनी हुई है, जो अरिस्तुई द्विध्रुवीयता के तर्क को प्रस्थापित भी कर सके और फिर भी इस अरिस्तुई तर्क के ढांचे पर निर्मित गणित को बनाए भी रख सके। दूसरे शब्दों में गणितीय तर्क के वर्तमान प्रतिमान में जेनो की विडंबना कि क्यों अकिलीज़ (Achilles) कछुए को नहीं पकड़ सकता है, अब भी एक समस्या बनी हुई है, हालांकि हम अच्छी तरह से जानते हैं कि अकिलीज़, कछुए से आगे निकल ही जाएगा!
हमें तो खुश होना चाहिए कि लेनिन ने क्रांतिकारी व्यवहार और इतिहास, अर्थशास्त्र तथा दर्शन, दोनों की जितनी समस्याएं हल की हैं, उनसे ज्यादा हमारे हल करने के लिए छोड़ी हैं। यह हमारे लिए चुनौती है और तमाम जीवंत विज्ञान व दर्शन के लिए यह चुनौती होनी ही चाहिए। बाकी सब जड़सूत्र हैं, जिन्हें त्यागकर ही प्रकृति तथा समाज की गतिकी को समझा जा सकता है।
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख आप नीचे दिए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं–
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