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सीताराम येचुरी: हमारे ज़माने के कम्युनिस्ट

सीता एक सच्चे आधुनिक कम्युनिस्ट थे, हमारे ज़माने के कम्युनिस्ट, दुनिया में आए बदलाव के प्रति संवेदनशील, किंतु इससे एक कम्युनिस्ट के रूप में अपने अमल के लिए आने वाले ख़तरों के प्रति सचेत।
sitaram yechury

नई दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में 28 सितंबर को हुई शोक सभा में प्रभात पटनायक का संबोधन

सीपीआई (एम) के महासचिव, सीताराम येचुरी, जिनका 12 सितंबर को निधन हो गया, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र के एमए के छात्रों के पहले बैच से थे। तब नये-नये स्थापित हुए सेंटर फॉर इकॉनमिक स्टडीज एंड प्लानिंग की फैकल्टी में छह लोग थे, जिनमें से तीन, जिनमें मैं भी एक था, आयु की बीस की दहाई के ऊपर के छोर पर थे, जिन्हें भारत में पढ़ाने का इससे पहले का कोई अनुभव नहीं था, जबकि हमारे वरिष्ठ सहकर्मी भी उम्र की तीस की दहाई में ही थे। चूंकि ज्यादातर छात्र बीस बरस के करीब के हो रहे थे, शिक्षकों और छात्रों के बीच आयु का अंतर थोड़ा ही था। अपने सेंटर के आयोजन में अगर शिक्षक और छात्र साथ-साथ बैठे नजर आते थे और कोई शिक्षक किसी छात्र से सिगरेट मांग लेता था, तो इसमें किसी को हैरानी नहीं होती थी। यह पारस्परिक क्रिया स्वस्थ्य बनी रही। हरेक ग्रुप अपनी-अपनी व्यस्तताओं में इतना ज्यादा मशगूल होता था कि सीमाएं लांघने की किसी को फुर्सत नहीं थी।

सीता, यही कहकर उन्हें पुकारा जाता था, एक प्रतिभाशाली छात्र थे, हमेशा कई-कई ए ग्रेड हासिल करने वाले और प्रोफेसरगण तापस मजूमदार, कृष्णा भारद्वाज तथा अमित भादुड़ी जैसे कठोर परीक्षकों से भी ए ग्रेड हासिल करने वाले। वह आसानी से ऑक्सब्रिज के पोस्ट-ग्रेजुएट प्रोग्राम में या अमरीका की किसी आइवी लीग यूनिवर्सिटी में जा सकते थे और वहां पढ़ाई करने के लिए आसानी से छात्र वृद्धि हासिल कर सकते थे। लेकिन, उन्होंने और उनके बैच के अन्य प्रतिभाशाली छात्रों ने पीएचडी के लिए इसी सेंटर में रुकने का फैसला लिया, जिससे इस सेंटर और जेएनयू को बहुत बढ़ावा मिला। 

भारत के विश्वविद्यालय अच्छे बीए तथा एमए प्रोग्राम तो चला लेते हैं, लेकिन विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए फिनिशिंग स्कूल बनकर रह जाते हैं। आम तौर पर उनके पास अच्छे शोध कार्यक्रम का अभाव होता है। सीता और उनके बैच के संगियों के जेएनयू में ही बने रहने के फैसले ने, जेएनयू को एक अग्रणी विश्वविद्यालय बनाने में दूर तक काम किया। खेद कि सीता ने अपनी पीएचडी पूरी नहीं की और अपना शोध बीच में छोड़कर पार्टी के होलटाइमर बन गए।

सीता की मिलनसारता, खुद पर हंस सकने वाली विनम्रता, हर प्रकार के अहंकार का अभाव, भलमनसाहत, हाजिर जवाबी और संपूर्ण ईमानदारी के बारे में तो काफी कुछ लिखा गया है, लेकिन उनके जीवन के शुद्ध उल्लास को कम दर्ज किया गया है। प्रख्यात मार्क्सवादी दार्शनिक, जार्ज लूकाच ने एक जगह पर दो अलग-अलग तरह के क्रांतिकारी रुखों के बीच अंतर किया था। पहला रुख, संंन्यासियों जैसे त्याग की पूजा करता है, जिसका उदाहरण यूजीन लेवीन थे, 1918 के थोड़े से समय तक ही चल सके बावेरियाई सोवियत के शहादत पाने वाले नेता, जिनका मशहूर कथन था कि, ‘हम कम्युनिस्ट छुट्टी पर मृत इंसान होते हैं’। दूसरे शब्दों में एक कम्युनिस्ट को सिर पर मौत होने को कभी भूलना नहीं चाहिए। दूसरे रुख का उदाहरण लेनिन थे, जो क्रांति के लिए समर्पित होते हुए भी जीवन को, उल्लास के एक स्रोत की तरह देखते थे। बेशक, हो सकता है कि किसी कम्युनिस्ट के पास, जीवन का पूरा-पूरा आनंद लेने के लिए समय और संसाधन ही नहीं हों। लेकिन, उनकी संस्कृति परित्याग की नहीं थी। सीता मजबूती से इस दूसरी श्रेणी में आते थे। संगीत में, जिसमें फिल्मी संगीत भी शामिल है (वह दिवंगत मदन मोहन के जबर्दस्त फैन थे) और क्रिकेट में उनकी दिलचस्पी (उन्होंने अखबार के अपने स्तंभ के एक संकलन को ‘लैफ्ट हेंड ड्राइव’ के नाम से पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया था), इसे साबित करने के लिए पर्याप्त हैं।

उनकी इस योग्यता को व्यापक रूप से दर्ज किया गया है कि वह विभिन्न विचारधाराओं वाली राजनीतिक पार्टियों के साथ गठबंधन निर्मित कर सकते थे और उनकी यह योग्यता इंडिया ब्लाक का निर्माण करने के जरिए, नव-फासीवादी हमलों से हमारी राजनीतिक व्यवस्था की धर्मनिरपेक्ष तथा जनतांत्रिक प्रकृति की हिफाजत करने के हाल के संघर्ष के दौरान, खासतौर पर सामने आयी थी। लेकिन, यह योग्यता एक खास सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य से निसृत होती थी। किसी क्रांतिकारी को, जो मौजूदा समाज को बदलने के लिए प्रतिबद्ध हो, जाहिर है कि ज्ञान मीमांसात्मक या प्रतिमानिक रूप से, उससे बाहर होना ही होता है। लेकिन, ऐतिहासिक रूप से क्रांतिकारी  शारीरिक अर्थ में भी समाज से बाहर बने रहे थे क्योंकि इस तरह के समाजों की पहचान जिन दमनकारी निजामों से होती थी, वे अपने दायरे में उनकी मौजूदगी को बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। रूसी क्रांतिकारियों के बहुमत को देश से बाहर प्रवास में जाना पड़ा था और फरवरी क्रांति के बाद वे एक सीलबंद ट्रेन में रूस में वापस आए थे, ताकि क्रांति को आगे ले जा सकें। चीनी क्रांतिकारियों को च्यांंग काई शेक के दमन से बचने के लिए, येनान की गुफाओं में छुपना पड़ा था। क्यूबा के क्रांतिकारियों को बाटिस्टा निजाम के खिलाफ सिएरा मेस्ट्रा की पर्वत श्रृंखलाओं से अपनी गतिविधियां संचालित करनी पड़ी थीं। संक्षेप में पहले के क्रांतिकारी, ज्ञान मीमांसात्मक और शारीरिक, दोनों ही रूप से उन समाजों से बाहर रहे थे, जिन्हें वे बदलना चाहते थे।

वर्तमान स्थिति को अलग करने वाली बात यह है कि अब अनेक देशों में क्रांतिकारियों को, अपने समाजों से शारीरिक रूप से बाहर रहने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ रहा है। उन्हें शारीरिक रूप से अपने समाजों के अंदर बने रहते हुए, ज्ञान मीमांसात्मक रूप से बाहर रहना होता है और यह उनकी रणनीति तथा कार्यनीति में एक बदलाव का तकाजा करता है। इसका इंतजार करने के बजाए कि कोई सामाजिक संकट उनके काम को सुगम बनाएगा, उन्हें भांति-भांति के ग्रुपों से और अपने से भिन्न विचारधाराओं से, रोजमर्रा के आधार पर भिडऩा होता है और बावस्ता होना होता है। अपनी सामान्य कार्य पद्धति के रूप में विविध ग्रुपों के साथ गठबंधन तथा संयुक्त मोर्चे बनाने की जरूरत, इसी से निकलती है। जब देश के सामने नव-फासीवादी खतरा उपस्थित हो, ऐसे ग्रुपों का दायरा बहुत बढ़ जाता है, जिन्हें गठबंधन में शामिल करने की जरूरत होती है। लेकिन, गठबंधनों की जरूरत, नव-फासीवाद के उभार के दौरों तक सीमित नहीं रहती है।

सीता का सैद्धांतिक रुख यही था। बेशक, इसका खतरा हमेशा बना रहता है कि जो पार्टी शारीरिक रूप से समाज के अंदर बनी हुई हो, उसकी कार्य पद्धति उसके ज्ञान मीमांसात्मक बाहरीपन को नकार ही दे और वह रोजमर्रा की राजनीति में इस तरह घुल-मिल जाए कि समाज का रूपांतरण करने के अपने बुनियादी लक्ष्य को ही निगाहों से ओझल हो जाने दे। सीता इस खतरे के प्रति खबरदार थे और इससे लड़ने का प्रयास करते थे। उन्होंने अपनी प्रकांड बुद्धि का उपयोग एक ऐसी पार्टी के अमल को तय करने के लिए किया था, जो शारीरिक रूप से समाज के अंदर बनी रहे, किंतु ज्ञान मीमांसात्मक रूप से उससे बाहर रहे। सीपीआई (एम) के अंतरराष्ट्रीय संबंधों को संभालने के वर्षों के दौरान उन्होंने अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों का जो गहरा ज्ञान विकसित किया था, उसने भी इस मुद्दे पर अपने विचारों को गढ़ने में उनकी मदद की थी।

इस तरह वह एक सच्चे आधुनिक कम्युनिस्ट थे, हमारे जमाने के कम्युनिस्ट, दुनिया में आए बदलाव के प्रति संवेदनशील, किंतु इससे एक कम्युनिस्ट के रूप में अपने अमल के लिए आने वाले खतरों के प्रति सचेत। उनका जाना, एक अपूरणीय क्षति है।   

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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