विशेष: क्या संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रासंगिकता समाप्त हो रही है?
24 अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र संघ का स्थापना दिवस होता है। आज से 78 वर्ष पहले 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन किया गया। यह वह समय था जब अभी-अभी द्वितीय महायुद्ध समाप्त हुआ था, विश्वयुद्ध में करोड़ों लोग मारे गए थे, पूरा यूरोप तबाह हो गया था लेकिन अमेरिका इस तबाही से बच निकला था। पर्ल हार्बर पर उसके नौसैनिक बेड़े पर जापानी वायुसेना के हमले के अलावा उसके ऊपर कोई बड़ा हमला नहीं हुआ यही कारण है कि ब्रिटेन की जगह अमेरिका एक नयी महाशक्ति के रूप में उभरा। द्वितीय महायुद्ध में सोवियत संघ एक बड़े विजेता के रूप में उभरा क्योंकि जर्मन फासीवाद को पराजित करने में उसकी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका थी। दुनिया दो खे़मों में तेज़ी से बंट रही थी - एक अमेरिका के नेतृत्व में 'नाटो सैन्य गठबंधन' था और दूसरा सोवियत संघ के नेतृत्व में 'वारसा सैन्य संगठन'।
महायुद्ध तो समाप्त हो गया था लेकिन दोनों खेमों के बीच एक नये शीतयुद्ध के आग़ाज़ की शुरूआत हो चुकी थी। इसी माहौल में संयुक्त राष्ट्र संघ का जन्म हुआ। इस संगठन का तात्कालिक उद्देश्य भविष्य में युद्धों को रोकने के लिए था। 25 अप्रैल 1945 को पचास राष्ट्र के प्रतिनिधि इस सम्मेलन के लिए सैन फ्रांसिसको कैलिफोर्निया अमेरिका में मिले और संयुक्त राष्ट्र चार्टर ड्राफ्ट की तैयारी की शुरूआत हुई जिसे 25 जून 1945 को संशोधित किया गया। चार्टर 24 अक्टूबर 1945 को प्रभावी हुआ उसी दिन से संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यवाहियों की शुरूआत हुई। इस चार्टर के अनुसार संगठन का उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बनाए रखना, मानवाधिकारों की रक्षा करना, मानवीय सहायता प्रदान करना, सतत विकास को बढ़ावा देना और अंतरराष्ट्रीय कानूनों को बनाए रखना शामिल है। इसकी स्थापना के समय संयुक्त राष्ट्र संघ में 51 सदस्य थे 2023 तक इसमें 193 देश हो गए। आज इसमें दुनिया के सभी स्वयंप्रभू राज्य शामिल हैं। 60 के दशक में दुनिया भर में प्रत्यक्ष उपनिवेश समाप्त हो रहे थे नये-नये राष्ट्रों का उदय हो रहा था इसी कारण इसके सदस्यों की संख्या तेज़ी से बढ़ी थी।
इसकी स्थापना के 78 वर्ष बीत जाने के बाद क्या संयुक्त राष्ट्र संघ अपने उद्देश्यों में सफल हुआ? इसका भी एक तथ्यपूर्ण विश्लेषण ज़रूरी है। शीतयुद्ध के दौरान नाटो-वारसा दोनों गुटों में भयंकर सैनिक प्रतिद्वंद्विता चल रही थी। दोनों ही ओर से व्यापक परमाणु हथियार एकत्रित किए जा रहे थे। दुनिया एक बार फ़िर बड़े महायुद्ध के मुहाने पर खड़ी थी। ऐसा लगता था कि तीसरा महायुद्ध छिड़ जाएगा और परमाणु हथियारों के प्रयोग से यह इतना विनाशकारी सिद्ध होगा कि सारी दुनिया ही नष्ट हो जाएगी। साम्राज्यवादी देश दुनिया का विनाश करने पर उतारू थे। क्या शीतयुद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र संघ अपनी भूमिका को निभा सका? वास्तव में संयुक्त राष्ट्र संघ ने निरस्त्रीकरण तथा विश्वशान्ति की काफ़ी कोशिशें कीं। यही कारण है कि एक बड़े महायुद्ध का ख़तरा तो टल गया परन्तु छोटे-छोटे युद्ध दुनिया भर में होते रहे और आज भी हो रहे हैं जो किसी महायुद्ध से कम नहीं हैं। दुनिया भर में अगर कोई तीसरा महायुद्ध नहीं हुआ वो इसका महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि महाशक्तियां भी यह जानती थीं कि अगर महायुद्ध छिड़ा तो सारी दुनिया नष्ट हो जाएगी जिससे वे भी नहीं बचेंगे। व्यापक निरस्त्रीकरण तथा परमाणु हथियारों को समाप्त करने की लगातार वार्ताएं होती रहीं, इसके बावज़ूद संयुक्त राष्ट्र संघ भारत-पाकिस्तान सहित तीसरी दुनिया के अनेक देशों को परमाणु हथियार बनाने से न रोक सका।
1990-91 के बाद सोवियत संघ के विघटन के साथ ही यह माना जाने लगा कि अब शीतयुद्ध का अन्त हो गया है तथा दुनिया एक-ध्रुवीय अमेरिकी वर्चस्व वाली हो गई है। इसका प्रभाव संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यप्रणाली पर भी स्पष्ट दिखाई पड़ता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की गतिविधियों को चलाने के लिए सबसे ज़्यादा आर्थिक योगदान अमेरिका ही देता है। इसका मुख्यालय भी न्यूयॉर्क में है। इन सब कारणों से अमेरिका अक्सर फंड आदि न देने अथवा कटौती करने की बात करके इसे ब्लैकमेल करता रहता है। विश्वबैंक, अंतररार्ष्टीय मुद्राकोष जैसी संस्थाएं संयुक्त राष्ट्र संघ से निर्देशित होती हैं। इसके द्वारा अमेरिका तथा पश्चिमी दुनिया अपने आर्थिक नवनिवेशवाद को स्थापित करते हैं जिसके माध्यम से तीसरी दुनिया के देशों को ऋण के जाल में फंसाकर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं। 2003 में खाड़ी युद्ध के समय अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डबलू बुश ने इराक़ पर झूठे आरोप लगाकर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा उस पर हर तरह के आर्थिक प्रतिबंध लगवा दिए कि इराक़ के पास व्यापक विनाश के हथियार हैं। इराक़ की व्यापक तबाही और सद्दाम हुसैन को फांसी पर लटका देने के बाद भी वहां पर तबाही के कोई हथियार नहीं मिले। वास्तव में उस दौर में अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र संघ को एक तरह से बंधक बना लिया था। अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने वाले जो भी शासक रहे चाहे वो सद्दाम हुसैन या कर्नल गद्दाफ़ी हों अथवा अफ्रीका,एशिया या लैटिन अमेरिकी देशों के अनेक अन्य शासक रहे हों, इन सबको हटाने या उनका तख़्तापलट करवाने में अमेरिका की महत्वपूर्ण भूमिका रही। वह इन देशों के शासकों पर मानवाधिकारों को हनन का आरोप लगातार लगाता रहा परन्तु अमेरिका के मानवाधिकारों के हनन पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने हमेशा चुप्पी लगाकर रखी।
1948 में संयुक्त राष्ट्र संघ में अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों ने यहूदियों के लिए एक स्वतंत्र इज़राइल राष्ट्र की स्थापना करवा दी। मध्य एशिया में फिलिस्तीनी अपनी ज़मीन से बेघर कर दिए गए तब से लेकर आज तक फिलिस्तीन में युद्ध, हिंसा तथा लगातार मानवाधिकारों का हनन होता रहा लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ फिलिस्तीनियों के लिए स्वतंत्र राष्ट्र की मांग को पूरा नहीं करवा सका। रूस-यूक्रेन युद्ध में भी संयुक्त राष्ट्र संघ युद्ध को रोकने में असफल रहा। यही चीज़ें हम वर्तमान में चल रहे इज़राइल और हमास के संघर्ष में भी देखते हैं।
2020 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने संस्मरण 'ए प्रामिस्ड लैंड' में लिखा है कि,"शीतयुद्ध के बीच किसी भी आम सहमति तक पहुंचने की संभावना बहुत कम थी। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र संघ निरुद्देश्य खड़ा था। क्योंकि सोवियत टैंक हंगरी में या अमेरिकी विमान वियतनामी ग्रामीण इलाक़ों में नेपाम बम गिरा रहे थे। शीतयुद्ध के बाद भी सुरक्षा परिषद के भीतर विभाजन ने संयुक्त राष्ट्र संघ की समस्याओं से निपटने की क्षमता को बाधित करना ज़ारी रखा। इसके सदस्य देशों के पास सोमालिया जैसे असफल देशों के पुनर्निर्माण के लिए अथवा श्रीलंका जैसी जगहों पर नस्लीय हिंसा को रोकने के लिए या तो साधन या सामूहिक इच्छाशक्ति की कमी थी।"
इन सबके बावज़ूद संयुक्त राष्ट्र संघ की विभिन्न संस्थाओं ने दुनिया भर में युद्ध, ग़रीबी, भुखमरी या फ़िर दैवी आपदाओं से निपटने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। कोरोना महामारी के दौरान विश्व स्वास्थ्य संगठन की दुनिया भर के ग़रीब देशों को कोरोना वैक्सीन उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण भूमिका थी। रेडक्रॉस संस्था ने अनेक युद्धरत और महामारी से ग्रस्त इलाक़ों में अपनी जान जोखिम में डालकर लोगों को चिकित्सा और स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराईं। बच्चों को भूख, ग़रीबी और विस्थापन की त्रासदियों से उबारने में यूनीसेफ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसके अलावा यूनेस्को दुनिया भर में प्राचीन धरोहरों और स्मारकों रक्षा एवं संरक्षण का काम भी कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ की शांति सेना ने अनेक युद्धरत क्षेत्रों तथा देशों में शांति स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज दुनिया भर में बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। हर जगह दक्षिणपंथी फासीवादी सरकारें सत्ता में आ गई हैं जो अल्पसंख्यकों तथा समाज के मुखर तबकों का दमन कर रही हैं। 1789 की फ्रांसीसी क्रांति में ज़ारी मानवाधिकारों के घोषणापत्र के आधार पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी एक मानवाधिकारों का चार्टर लागू किया गया था जिसमें यह घोषणा की गई थी कि,"हर अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना और प्रतिरोध करना मानव का नैसर्गिक अधिकार है।" इसमें अत्याचारी शासकों के ख़िलाफ़ हथियार तक उठाने की बात की गई है। यही कारण है कि अपनी तमाम सीमाओं और कमियों के बावज़ूद संयुक्त राष्ट्र संघ की आज भी प्रासंगिकता बनी हुई है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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