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यूक्रेन में तीन युद्ध और तीनों में इंसानियत की हार के आसार

रूस पर पश्चिम के आर्थिक युद्ध के कारण दुनिया का ग्लोबल वार्मिंग से युद्ध हारने का जोखिम बढ़ जाता है, लेकिन जो सबसे बड़ी चुनौती है वह यह है कि अमेरिका द्वारा डॉलर का हथियार बनाए जाने का कैसे मुकाबला किया जाए।
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यूक्रेन के युद्ध में अब तीन युद्ध आपस में गुंथ गए हैं– भौतिक या सैन्य युद्ध, सूचना युद्ध और आर्थिक युद्ध। अगर हम यह जानना चाहते हैं कि आज के संकर युद्ध की सूरत कैसी होगी, तो यह उसी का उदाहरण है। यही वह युद्ध है जिसकी अमरीका अब तक तैयारियां कर रहा था और जिसे अब दुुनिया के सबसे बड़े डिजिटल प्लेटफार्मों पर अपने नियंत्रण तथा डालर को शस्त्र बनाने के जरिए, अंजाम दे रहा है। उधर रूस धीरे-धीरे किंतु निश्चत रूप से यूक्रेन में अपने सैन्य लक्ष्य हासिल करने की ओर बढ़ रहा है। और मुमकिन है कि रूस तथा यूक्रेन की वार्ताओं के चलते जल्द ही उनके बीच लड़ाई शांत हो जाए, हालांकि अमरीका और नेटो देश इसके लिए पूरी तरह से तैयार हैं कि रूस से यूक्रेन तब तक लड़ते जाए, जब तक एक भी यूक्रेनी बाकी है। आर्थिक युद्ध को शांत करना इससे कहीं मुश्किल साबित होगा क्योंकि पाबंदियां एक बार जब लगा दी जाती हैं, वे अपने ही तरीके से काम करने लग जाती हैं।

ऊर्जा युद्ध और पर्यावरण लक्ष्यों पर चोट

इस आर्थिक युद्ध के केंद्र में है, ऊर्जा युद्ध। रूस, योरपीय यूनियन तथा अमरीका के लिए तेल, प्राकृतिक गैस तथा समृद्ध यूरेनियम तक का एक बड़ा आपूर्तिकर्ता है। पश्चिमी दुनिया यानी यूरोपीय यूनियन, अमरीका, यूके आदि ने प्राकृतिक गैस का चुनाव उस अंतर को पाटने वाले ईंधन के तौर पर किया है, जिसका सहारा नैट जीरो कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य तक पहुंचने तक की दूरी पाटने के लिए किया जाना है। रूस पर पाबंदियां लगाए जाने से, उत्सर्जन कटौती का यह रास्ता ही खतरे में पड़ गया है। रूस से गैस के आयातों में कटौती किए जाने से, ऊर्जा में जो कमी आएगी, उसकी भरपाई करने के लिए, अब कोयले के उपयोग को उत्तरोत्तर खत्म करने का लक्ष्य आगे खिसकाना पड़ सकता है। इससे भी बदतर यह कि रूस से पाइप के जरिए गैस के आयात की जगह पर पश्चिम एशिया, उत्तरी अफ्रीका तथा अमरीका से द्रवीकृत प्राकृतिक गैस (एलएनजी) के आयात की प्रक्रिया, अतिरिक्त मीथेन उत्सर्जनों की नौबत लाएगी। याद रहे कि मीथेन, एक प्रमुख ग्रीन हाउस गैस है और उसका विश्व ताप बढ़ोतरी में योगदान, कार्बन डॉई आक्साइड के उत्सर्जन की तुलना में 80 गुना ज्यादा होता है।

मीथेन, प्राकृतिक गैस का एक प्रमुख घटक होती है और प्राकृतिक रूप से गैस के रूप मेें पायी जाती है। उसे ठंडा कर के द्रव अवस्था में या एलएनजी के रूप में लाया जाता है, ताकि इसके परिमाण को घटाया जा सके। द्रवीकृत रूप में ही उसे टैंकरों में भरकर, आसानी से आपूर्ति के बिंदुओं तक ले जाया जा सकता है। इसके परिवहन के लिए, अपेक्षाकृत थोड़े परिमाण में मीथेन को लगातार गैस बनाकर उड़ाना होता है, ताकि उसके द्रव रूप का ताप ऋण में 160 डिग्री सेंटीग्रेड के स्तर पर बनाए रखा जा सके। इसलिए, एलएनजी का सहारा लेने का अर्थ होगा, वातावारण में और ज्यादा मीथेन का उत्सर्जन करना, जो कि हर प्रकार से एक ग्रीनहाउस गैस है। 

अगर रूस से पाइप गैस के आयात में जितनी कटौती की जाती है, ठीक उतनी ही मात्रा में एलएनजी हासिल भी कर ली जाती है, तब भी इस अदला-बदली में जो अतिरिक्त मीथेन वातावरण में छोड़ी जा रही होगी, उसका नतीजा यह होगा कि प्राकृतिक गैस का कमी की भरपाई करने के लिए ईंधन के तौर पर इस्तेमाल करने के जरिए, विश्व ताप वृद्धि में कमी करने के योरपीय यूनियन के जो लक्ष्य थे, उन पर भारी चोट पड़ेगी। चूंकि योरपीय यूनियन का, विश्व ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में योगदान खासा बड़ा है, नामुमकिन नहीं है कि रूस के खिलाफ पश्चिम के आर्थिक युद्ध के गौण नतीजे के रूप में, मानवता प्रकृति तथा वैश्विक ताप वृद्घि के खिलाफ अपनी लड़ाई ही हार बैठे।

प्राकृतिक गैस के आयात के आंकड़ों पर एक सरसरी नजर डालने से ही स्पष्ट हो जाएगा कि यूरोपीय यूनियन के लिए रूसी गैस कितनी महत्वपूर्ण है। यूरोपीय यूनियन रूस से 155 अरब घन मीटर यानी अपनी प्राकृतिक गैस की कुल जरूरत का करीब आधा (45 फीसद) हासिल करता है। अगर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में एलएनजी उपलब्ध भी हो तब भी, योरपीय यूनियन के पास फिलहाल इतनी मात्रा में अतिरिक्त एलएनजी का उपयोग करने के लिए, पुनर्गैसीकरण की तथा बंदरगाहों से पाइपलाइनों की व्यवस्था उपलब्ध नहीं है। इसीलिए, वर्तमान पाबंदियों के बावजूद, योरपीय यूनियन ने अपने लिए गैस की आपूर्ति करने वाली रूसी संस्थाओं को और उनकी गैस की आपूर्ति के लिए भुगतानों को संभालने वाले बैंकों, दोनों को पाबंदियों के दायरे से बाहर रखा है।

तेल की कीमतों की चौतरफा मार

अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार, रूस दुनिया भर में कच्चे तेल का दूसरा सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है और साऊदी अरब ही इस मामले में उससे आगे बैठता है। इतना ही नहीं, अगर इस हिसाब में कंडेंसेटों को तथा अन्य पैट्रोलियम उत्पादों जैसे ईंधन तेल, नाफ्था आदि को भी जोड़ लिया जाए तो, इंटरनेशनल इनर्जी एजेंसी के अनुसार रूस दुनिया का सबसे बड़ा तेल निर्यातक बन जाता है। इसलिए, रूस के वित्तीय संसाधनों पर तो पश्चिम आसानी से हमला कर सका है और उसने डालर पर अमरीका के नियंत्रण का सहारा लेकर आसानी से पश्चिमी बैंकों में जमा रूस के पैसे को जाम कर दिया है या व्यावहारिक मानों में जब्त कर लिया है, योरप में रूस से पाइप के जरिए गैस के निरंतर प्रवाह के बिना गुजरा करना या रूस से अन्य सभी पैट्रोलियम आधारित ऊर्जा व अन्य उत्पाद आपूर्तियों को विश्व बाजार से बाहर रखने के नतीजों को संभालना कहीं मुश्किल हो रहा है। चालू पाबंदियों के चलते पहले ही तेल की कीमतें, पिछले साल के 60 डालर प्रति बैरल के स्तर से बढक़र, 133 डालर प्रति बैरल पर पहुंच गयी हैं। हां! अमरीका द्वारा अपने रणनीतिक संचित तेल भंडार में से कुछ तेल बाजार में निकाले जाने और ओपेक के अपना तेल उत्पादन बढ़ाने के लिए तैयार होने के बाद, तेल के दाम में मामूली कमी भी आयी है। बहरहाल, तेल के दाम बढक़र 120-130 डालर प्रति बैरल हो जाने को, इस तथ्य के साथ जोडक़र देखना होगा कि पिछले साल के ज्यादातर हिस्से में, तेल के दाम 60-65 डालर प्रति बैरल ही बने रहे थे। बेशक, अमरीका का इसमें निहित स्वार्थ भी है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम बढ़ जाएं। उसका अपना फ्रैकिंग गैस उत्पादन आर्थिक रूप से सिर्फ उसी सूरत में लाभकर हो सकता है, जब तेल की अंतर्राष्ट्रीय बाजार की कीमतें ऊंची रहेंगी।

जाहिर है कि ऊर्जा की कीमतों में इस बढ़ोतरी की मार विकासशील देशों पर पड़ रही है, जिनमें से ज्यादातर अपनी जरूरत के तेल का आयात करते हैं। इन देशों में भारत भी आता है। अगर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें बढक़र 200-250 डालर प्रति बैरल तक पहुंच जाती हैं यानी पिछले साल के स्तर से तीन गुनी से भी ज्यादा हो जाती हैं, जैसाकि कुछ तेल विशेषज्ञों का अनुमान है, तो यह इन देशों की अर्थव्यवस्थाओं को और भी तबाह कर देगा। इन हालात में वैश्विक अर्थव्यवस्था का और भी ज्यादा संकुचन होने जा रहा है और आर्थिक मंदी तथा मुद्रास्फीति, दोनों की चोट झेलनी पड़ रही होगी। पैट्रोलियम तथा तेल उत्पादों का एक बड़ा आयातकर्ता होने के चलते, भारत खासतौर पर वेध्य स्थिति में है। उसकी अर्थव्यवस्था तो पहले ही मोदी के राज में धीमी ही पड़ती गयी है और इसके ऊपर से इस समय मुद्रास्फीति की दरें ऊंचाई पर पहुंची हुई हैं।

डालर के वैश्विक प्रभुत्व की चुनौती

उधर अमरीका, यूके तथा योरपीय यूनियन में ईरान, लीबिया, वेनेजुएला, अफगानिस्तान और अब रूस के विदेशी मुद्रा संचित कोषों के जब्त किए जाने से, हमारी दुनिया पर अमरीका तथा उसके सहयोगियों को जिस तरह का वित्तीय नियंत्रण हासिल है, उसके खतरे खुलकर सामने आ जाते हैं। अगर ऐसा तीसरी दुनिया  के किसी छोटे-मोटे देश के साथ नहीं बल्कि दुनिया की चंद सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक के साथ किया जा सकता है, जिसके विशाल विदेशी मुद्रा संचित कोष हैं, तो इससे वर्तमान दौर में वित्तीय पूंजी और साम्राज्यवाद के संबंध में बहुत कुछ पता चलता है। जिन देशों का भी विदेशी मुद्रा खाता बचत दिखाता है, वे इस बचत को अपनी ताकत समझेंगे तो गलती करेंगे। उनके डालर, पाउंड या यूरो के संचित भंडार तो वास्तव में पश्चिम के हाथों में रेहन रखे हुए हैं। यह कुछ ऐसे ही है जैसे आधीन-शासकों को अपने बच्चे जमानत के तौर पर, पालन-पोषण के लिए सामराजी दरबार के हवाले करने पड़ते थे।

ऊर्जा का मुद्दा देशों के बीच के भेदों से और किस देश का दुनिया पर दबदबा होता है, इससे आगे तक जाता है। हमारे पास अब थोड़ा सा ही समय है, जिसके अंदर-अंदर ही हम विश्व ताप वृद्धि की बदतरीन संभावनाओं को, अपरिहार्यता का रूप लेने से रोक सकते हैं। लेकिन, चूंकि पश्चिम का सारा का सारा जोर रूस को और फिर चीन को भी अपने आधीन करने पर है, इतना तो साफ ही है कि वैश्विक ताप वृद्घि का मुकाबला करने के लिए, मानवता के एक सहकारपूर्ण भविष्य का निर्माण तो उनके एजेंडे पर है ही नहीं।

अमरीकी साम्राज्यवाद का खतरनाक खेल

रूस एक तेल राज्य भर नहीं है, जैसाकि अमरीका दुनिया ने मनवाना चाहता है। येल्त्सिन के चोरी-चकारी प्रधान वर्षों के बाद से, उसे कहीं ज्यादा आत्मनिर्भरता का रास्ता अपनाना पड़ा है और रूस अपनी लगभग पराधीनता की स्थिति को छोडक़र, फिर से एक अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी बनकर उभरने की कोशिश कर रहा है। आज भी अमरीका, उपने उपग्रह प्रक्षेपणों के लिए उन्नत रॉकेट इंजनों की बड़ी संख्या रूस से ही खरीदता है। हथियारों व सैनिक साज-सामान के मामले में रूस, पश्चिमी ताकतों के बराबर ही है, जिसका सबूत सीरिया में मिल चुका है।

नेटो का विस्तार, अमरीका का एंटी-बैलेस्टिक मिसाइल संधि से तथा उसके बाद ओपन स्काईज़ समझौते से तथा इंटरमीडिएट रेंज बैलेस्टिक मिसाइल संधि से हटना, रूमानिया तथा पोलेंड में मिसाइलें तैनात करना; इन सभी को रूस इसी रूप में देखता है कि अमरीका एक जीते जा सकने वाले नाभिकीय युद्ध की अपनी रणनीति को ही आगे बढ़ा रहा है। इस लिहाज से यूक्रेन पर युद्ध की भविष्यवाणी तो जार्ज कीनन, हैनरी किसिंगर तथा जॉन मिअर्शेमर ने पहले ही कर दी थी। उन्होंने पहले ही इसकी भविष्यवाणी कर दी थी कि अगर अमरीका, पूर्व की ओर नेटो को बढ़ाने की अपनी नीति पर चलता रहता है, तो नेटो और रूस के बीच टकराव होना अपरिहार्य है। याद रहे कि इनमें से किसी को भी न तो प्रगतिशील माना जा सकता है और न ही साम्राज्यवादविरोधी विचारों का व्यक्ति माना जा सकता है। उल्टे इनमें से दो--कीनन तथा किसिंगर--तो पक्के साम्राज्यवादी हैं, जिनका मौजूदा अमरीकी साम्राज्य को खड़ा करने में अपना भी हाथ रहा है।

मौजूदा यूक्रेन युद्ध में, खुद यूक्रेन के अलावा अगर देशों के किसी समूह का नुकसान हो रहा है, तो योरपीय यूनियन का और उसमें खासतौर पर जर्मनी तथा फ्रांस का नुकसान  हो रहा है। इस झगड़े के चक्कर में वे अमरीका पर और ज्यादा निर्भर होकर रह जाएंगे क्योंकि उन्हें अब अमरीका तथा पश्चिम एशिया से एलएनजी के आयात का सहारा लेना पड़ रहा है। रूस के खिलाफ आर्थिक पाबंदियां लगाने तथा उससे गैस के अपने आयातों को छोडऩे के जरिए, जिनका रास्ता विली ब्रांट के ओस्टोपोलिक दौर में बनाया गया था, जर्मनी ने यूरोप में भी और विश्व मामलों में भी, अपनी स्वतंत्र भूमिका का ही त्याग कर दिया है।

यूक्रेन युद्ध, दुनिया के लिए एक ऐतिहासिक क्षण है। अमरीका ने यूक्रेन के प्रसंग मेें रूस पर जिस तरह के डालर वर्चस्व का प्रदर्शन किया है, कि समर्पण कर दो वर्ना..., उससे दुनिया के हरेक देश को दो-चार होना पड़ेगा। यह अब दुनिया के लिए अस्तित्वगत चुनौती ही हो गयी है कि एक कहीं ज्यादा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय ढांचे का निर्माण किया जाए या फिर डालर के वर्चस्व के सामने समर्पण कर दो। इस चुनौती का देशों द्वारा किस तरह से सामना किया जाता है, उसी से 21वीं सदी का भविष्य तय होगा।    

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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