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लिज़ ट्रस का अपराध क्या था?

लिज़ ट्रस का असली और अक्षम्य अपराध यह था कि वह पूंजीपतियों के हक में अपनी प्रस्ताविक कर कटौतियों की भरपाई अन्य मदों में सार्वजनिक खर्चों में कटौतियों के जरिए या मेहनतकशों पर करों के बोझ में किसी बढ़ोतरी के जरिए नहीं करने वाली थीं। 
Liz Truss
फ़ोटो साभार: AP

लिज़ ट्रस ने सिर्फ 44 दिन में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। बहरहाल, उनके इस्तीफे के संबंध में सबसे हैरान करने वाला सवाल यह है कि उनके उस आर्थिक कार्यक्रम का क्या होगा, जो ‘बाजार’ यानी वित्तीय पूंजी को हजम नहीं हुआ? इस आर्थिक कार्यक्रम के केंद्र में तो अमीरों के लिए ‘कर कटौतियां’ ही थीं, जिन्हें ‘बाजार’ को हाथों-हाथ लेना चाहिए था। बेशक, इन कर कटौतियों के लिए वित्त राजकोषीय घाटे से जुटाया जाना था, जिसे ‘बाजार’ आम तौर पर पसंद नहीं करता है। चूंकि इस राजकोषीय घाटे के जरिए अमीरों के पक्ष में सीधे संपदा का हस्तांतरण किया जाना था और इसके जरिए राज्य द्वारा प्रत्यक्ष रूप से सकल मांग को कोई उत्प्रेरण नहीं दिया जा रहा था, इसलिए ‘बाजार’ को इसमें तो कोई खास आपत्ति होनी नहीं चाहिए थी।

लिज़ ट्रस की छुट्टी क्यों?

कुछ लोगों ने इसकी ओर इशारा किया है कि चूंकि ये कर कटौतियां ‘गैर-कोषीय’ या अनफंडेड थीं यानी इनके लिए वित्त व्यवस्था, राजकोषीय घाटे से की जानी थी। इसका मतलब था सरकारी बांडों की बिक्री के सहारे इनके लिए वित्त व्यवस्था होनी थी। इसलिए इस प्रस्ताव से आने वाले समय में बांडों के रेट की दिशा को लेकर अनिश्चितता पैदा हो रही थी, जिसके चलते निवेशकर्ताओं ने सरकारी प्रतिभूतियों से पीछा छुड़ाना शुरू कर दिया। इससे बांड के रेट चढ़ गए और ‘बाजार’ में अफरातफरी फैल गयी। लेकिन, ठीक इसी सवाल का तो जवाब चाहिए कि राजकोषीय घाटे के लिए वित्त जुटाने के लिए सरकारी प्रतिभूतियों की वास्तव में कोई बिक्री शुरू भी नहीं हुई थी, उससे पहले ही ‘बाजार’ में ऐसी दहशत क्यों फैल गयी? और अगर बांड के रेट बढऩे की प्रत्याशा थी, तब तो ब्रिटेन की ओर वित्त का प्रवाह बढऩे से पाउंड स्टर्लिंग को पहले से मजबूत ही होना चाहिए था, न कि पाउंड स्टर्लिंग का विनिमय मूल्य बैठना चाहिए था, जैसाकि वास्तव में हुआ था।

वास्तव में लिज़ ट्रस को ठीक इसी का तो आसरा था कि उनके खुलेआम दक्षिणपंथी एजेंडा अपनाने से और अमीरों को कर रियायतें देने से ब्रिटिश वित्तीय पूंजी का अड्डालंदन शहर उनको हाथों-हाथ लेेगा। बेशक, उन्होंने बे्रक्जिट-उत्तर ब्रिटिश अर्थव्यवस्था में नयी जान डालने की भी बात की थी, लेकिन अमीरों के लिए कर रियायतें देने से किसी भी अर्थव्यवस्था में शायद ही कोई नयी जान पड़ती है। अगर उनकी मंशा वाकई अर्थव्यवस्था में नयी जान डालने की होती तो उन्हें सार्वजनिक खर्च में बढ़ोतरी करने की ही जरूरत थी, जिसने निश्चित रूप से तथा सीधे-सीधे सकल मांग को बढ़ाने का काम किया होता। लेकिन, उनकी असली मंशा तो उस वर्ग के बीच अपने समर्थन को मजबूत करने की थी, जिनके हितों की सेवा आम तौर पर वह खुद तथा उनकी टोरी पार्टी करते हैं। विडंबना यह है कि जिन उपायों के सहारे वह इस वर्ग की सेवा करना चाहती थीं, उनके लिए इतनी बुरी तरह से उल्टे पड़ गए कि उन्हें सिर्फ 44 दिन में अपनी कुर्सी छोडऩी पड़ी! लेकिन सवाल तो यही है कि ऐसा हुआ तो हुआ क्यों?

क्या था ट्रस का अक्षम्य अपराध?

यहां विचार करने वाली एक बात और है। अमीरों को कर छूटें देने के उनके कार्यक्रम के बारे में सब को काफी पहले से पता था। वास्तव में, प्रधानमंत्री पद के लिए अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी ऋषि सुनाक के खिलाफ अपने प्रचार मेंयही तो उनका मुख्य चुनावी प्लेटफार्म था। इसके बावजूद, जो दक्षिणपंथी मीडिया और तथाकथित विशेषज्ञ, ट्रस के प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद अपने ठोस प्रस्तावों का एलान करते ही उनके पीछे पड़ गए थे। उनके चुनाव अभियान के दौरान उनका जोर-शोर से समर्थन करते रहे थे। आखिरकार, इसी के बल पर तो उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए चुना गया था। सवाल यह है कि चुनाव प्रचार के दौरान वह जो-जो वादे कर रही थीं और प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद उन्होंने जो कुछ करने का प्रस्ताव किया था, उनमें क्या कोई अंतर था और अगर था भी तो क्या? बेशक, यह अंतर यह तो हो नहीं सकता था कि कर कटौतियां, अमीरों के हक में दी जानी थीं।

लिज़ ट्रस का असली, अक्षम्य अपराध यह था कि वह पूंजीपतियों के हक में अपनी प्रस्ताविक कर कटौतियों की भरपाई, अन्य मदों में सार्वजनिक खर्चों में कटौतियों के जरिए या मेहनतकशों पर करों के बोझ में किसी बढ़ोतरी के जरिए नहीं करने वाली थीं। बेशक, मेहनतकशों पर करों में इस तरह की किसी बढ़ोतरी का मजदूर वर्ग द्वारा कड़ा विरोध किया गया होता। और ब्रिटेन मेें मजदूर वर्ग तो पहले ही बहादुरीपूर्ण हड़ताली संघर्षों में जुटा हुआ है। फिर भी, लिज़ ट्रस का समर्थन करने वाले उनसे सार्वजनिक खर्चों में कटौतियों की उम्मीद कर रहे थे, जो कि मजदूर वर्ग पर अप्रत्यक्ष रूप से हमला किए जाने का मामला होता। कर कटौतियों के लिए उनका समर्थन करने वालों की नजरों में, उनका इन कटौतियों की भरपाई करने के लिए सार्वजनिक खर्चों मेंं कटौतियां नहीं करना ही उनका अपराध था।

दूसरे तरीके से कहें तो वित्तीय पूंजी और वास्तव में समूचा पूंजीपति वर्ग ही उनसे सिर्फ अमीरों के पक्ष में संपदा के हस्तांतरण की ही उम्मीद नहीं कर रहा था बल्कि इसके साथ ही साथ राजकोषीय औजार का सहारा लेकर, बेरोजगारी बढ़ाने के कुछ कदमोंं की भी उम्मीद लगाए हुए था क्योंकि पूंजीपतियों की नजर में मुद्रास्फीति का मुकाबला करने का एक यही तरीका है। इन प्रस्तावित कर कटौतियों के गैर-कोषीय या अनफंडेड होने का उनके खिलाफ जो आरोप लग रहा था, उसका ठीक यही अर्थ था। शिकायत यही थी कि इन कटौतियों के लिए वित्त व्यवस्था, राजकोषीय घाटे के जरिए की जाने वाली थी और यह वित्त व्यवस्था का ऐसा रास्ता था जो सकल मांग में कटौती करने के लिए तो कुछ करने वाला ही नहीं था। जबकि इन कटौतियों की भरपाई अन्य मदों में सरकारी खर्चों में कटौती करने जैसे कदमों से की जा रही होती तो, उसने सकल मांग में वास्तविक कटौती करने का काम किया होता। इस तरह, वित्तीय पूंजी की नजरों में लिज ट्रस की नाकामी इतनी ही नहीं थी कि पूंजीपतियों के हक में उनकी कर कटौतियों के लिए वित्त व्यवस्था राजकोषीय घाटे के जरिए की जानी थी बल्कि उनकी विफलता यह भी थी कि उनके प्रस्तावों में मुद्रास्फीति से लडऩे के लिए इस माने में कुछ भी नहीं था कि पूंजी की नजरों में मुद्रास्फीति से लडऩे का एक ही उपाय है और वह है बेरोजगारी पैदा करना, जिसके लिए इन प्रस्तावों में कुछ नहीं था। बेशक, ब्याज की दरों में बढ़ोतरी से भी इस लक्ष्य को हासिल कर लिया गया होता। फिर भी लिज़ ट्रस का ऐसी राजकोषीय नीति अपनाना, जो इस लक्ष्य के खिलाफ जाती थी, उनका ‘अक्षम्य’ अपराध माना गया।

वित्त बाज़ार की तीखी प्रतिक्रिया

इसी से हम पूरे घटनाक्रम को भी समझ सकते हैं। ब्रिटेन में इस समय मुद्रास्फीति की दर 10 फीसद से ऊपर चल रही है। राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी, इसे बढ़ाने का ही काम कर सकती है और इससे डालर के मुकाबले पाउंड स्टर्लिंग का और ज्यादा अवमूल्यन हो सकता है क्योंकि अमरीका की मुद्रास्फीति की दर उससे कम है। पाउंड स्टर्लिंग का और अवमूल्यन होने की यह प्रत्याशा, खुद वास्तव में उसका अवमूल्यन बढ़ा देगी, जैसाकि हुआ भी और वित्त का प्रवाह खींचकर ब्रिटिश अर्थव्यवस्था की ओर लाए जाने के बजाए, इससे ब्रिटेन से बाहर की ओर वित्त का उत्प्रवाह ही बढ़ जाएगा। यही कारण था कि ब्रिटिश सरकार के बांड, जिनके मूल्य में राजकोषीय घाटा बढऩे के चलते गिरावट होने की प्रत्याशा थी, बैंक आफ इंग्लेंड की ओर से किसी भी प्रतिसंतुलनकारी कदम के अभाव में खासतौर पर तेजी से अस्थिर हो गए और यह लिज ट्रस के प्रस्तावों की घोषणा होने मात्र से ही हो गया।

दूसरे शब्दों में, लिज़ ट्रस के प्रस्तावों पर ‘बाजार’ ने इसके बावजूद तीखी नकारात्मक प्रतिक्रिया की कि ये प्रस्तावों अमीरों के पक्ष में हस्तांतरण करने जा रहे थे, जो बाजार की नजरों में आम तौर पर एक बढ़े हुए राजकोषीय घाटे के उचित माने जाने के लिए काफी होना चाहिए था। बाजार की नकारात्मक प्रतिक्रिया की वजह यह थी कि अमीरों के हक में उक्त हस्तांतरणों की संकल्पना, मुद्रास्फीति की पृष्ठïभूमि में की गयी थी और मुद्रास्फीति की पूंजीवाद की नजरों में इसके सिवा कोई काट है ही नहीं कि बेरोजगारी बढ़ा दी जाए। लेकिन, लिज़ ट्रस के प्रस्तावों में बेरोजगारी बढ़ाने के तो कोई कदम थे ही नहीं। और मुद्रास्फीति का जारी रहना या बढऩा, वित्तीय पूंजी के लिए कलंक है क्योंकि यह सभी वित्तीय परिसंपत्तियों के वास्तविक मूल्य को घटा देता है, जिसके बैंकों, पेंशन फंडों तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं की बैलेंस शीटों के लिए गंभीर परिणाम होंगे।

लिज ट्रस इसी मामले में मार्गरेट थैचर से भिन्न थीं, जिन्होंने जान-बूझकर दसियों लाख मजदूरों के लिए बेरोजगारी पैदा करायी थी, ताकि ट्रेड यूनियनों को कमजोर किया जा सके और मुद्रास्फीति को पछाड़ा जा सके। यही करने के लिए लंदन शहर मार्गरेट थैचर से प्यार करता था। यह दूसरी बात है कि बाद में लंदन शहर उनके खिलाफ हो गया और उसने उन्हें प्रधानमंत्री पद से तब हटवा ही दिया, जब उनकेे अलग-अलग चलने के आग्रह से इसका खतरा पैदा हो गया कि लंदन की जगह पर फ्रेंकफर्ट योरप का प्रमुख वित्तीय केंद्र बन सकता था। इसलिए अचरज की बात नहीं है कि ट्रस, अमीरों के लिए तगड़ी कर कटौतियों का प्रस्ताव करने के बावजूद, लंदन शहर को अपने पक्ष में नहीं रख पायीं।

वित्तीय पूंजी को मुद्रास्फीति किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं

विडंबना यह है कि अमीरों के लिए कर कटौतियोंं के लिए वित्त व्यवस्था अगर राजकोषीय घाटे के जरिए की जाती है, तो उससे पूंजीपतियों को मिलने वाला फायदा, बाकी सब कुछ अगर ज्यों का त्यों रहे तो वही कर कटौतियां अगर मजदूरों पर ज्यादा कर लगाने या अन्य मदों में सरकारी खर्चों में कटौतियां करने के जरिए वित्त व्यवस्था कर के दी जाती हैं, तो उससे ज्यादा ही होगा। इसकी वजह यह है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में अगर उदाहरण को सरल बनाए रखने के लिए हम यह मान लें कि उसमें अन्य उत्पादन पद्घतियों की कोई मिलावट ही नहीं है और मजदूर अपनी मजदूरी की पूरी की पूरी कमाई का उपभोग कर लेते हैं; कुल करोपरांत मुनाफे निवेश, पूंजीपतियों के उपभोग, भुगतान संतुलन में चालू खाता बचत और राजकोषीय घाटे के योग के बराबर होते हैं। इसलिए, पूंजीपतियों के पक्ष में मिसाल के तौर पर 100 पाउंड स्टर्लिंग का हस्तांतरण, अगर पूंजीपतियों के उपभोग में 50 पाउंड स्टर्लिंग की बढ़ोतरी करता है, तो उससे करोपरांत मुनाफे में 50 पाउंड स्टर्लिंग की ही बढ़ोतरी होगी, बशर्ते उक्त हस्तांतरण के लिए वित्त व्यवस्था दूसरी मदों में सरकारी खर्चों में उतनी ही कटौती करने के जरिए की जाए यानी इसके लिए राजकोषीय घाटे में कोई बढ़ोतरी नहीं हो रही हो। जाहिर है कि ऐसी सूरत में निवेशों में फौरन किसी बदलाव का तो कोई कारण ही नहीं होगा और हम यह माने लेते हैं कि चालू विदेशी भुगतान संतुलन में कोई बदलाव नहीं हो रहा है। इसके विपरीत, उसी हस्तांतरण के लिए वित्त व्यवस्था अगर राजकोषीय घाटे के सहारे की जा रही हो, तो इससे करोपरांत मुनाफे में पूरे 150 पाउंड स्टर्लिंग की बढ़ोतरी हो जाएगी। इसके बावजूद, वित्तीय पूंजी का अमीरों के हक में कर कटौतियों के लिज़ ट्रस के प्रस्तावों से नाराज होना, यही दिखाता है कि उसे मुद्रास्फीति की वर्तमान ऊंची दर से कितनी ज्यादा नफरत है।

यहां तक हम दो वैकल्पिक पूंजीवादी रणनीतियों की ही चर्चा कर रहे थे, जिनमें से एक का पालन करते हुए लिज़ ट्रस, राजकोषीय घाटे बढ़ाने के सहारे, पूंजीपतियों के पक्ष में संपदा का हस्तांतरण करना चाहती थीं और दूसरी रणनीति वह थी जिसकी मांग उनके आलोचक कर रहे थे यानी राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी होने दिए बिना ही पूंजीपतियों के पक्ष में उक्त हस्तांतरण करना, जिसे तथाकथित गैर-कोषीय हस्तांतरणों से बचने की रणनीति कहा जा सकता है। जाहिर है कि ये दोनों ही रणनीतियां, दक्षिणपंथी, बड़ी-पूंजीपरस्त रणनीतियां हैं, जो अलग-अलग हद तक मजदूर वर्ग के खिलाफ हैं और इसलिए अलोकतांत्रिक हैं। वास्तव में वक्त का तकाजा तो अर्थव्यवस्था में प्राण फूंकने के लिए एक सचमुच जनतांत्रिक रणनीति के अपनाए जाने का ही है, जिसमें सार्वजनिक खर्चों में बढ़ोतरी के जरिए, अर्थव्यवस्था में नयी जान डाली जाए तथा सार्वजनिक खर्चों में उक्त बढ़ोतरी के लिए वित्त व्यवस्था, संपदा पर या पूंजीपतियों के मुनाफों पर और ज्यादा कर लगाने के जरिए की जाए। इसके साथ ही मुद्रास्फीति पर काबू पाने के लिए बेरोजगारी पैदा करने के बजाए, कीमतों पर सीधे-सीधे नियंत्रण लागू किए जाएं और जाहिर है कि इसके साथ ही यूक्रेन के टकराव के शांतिपूर्ण समाधान के लिए जोर लगाते रहा जाए।

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