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यूक्रेन और वैश्विक आर्थिक युद्ध: बर्बरता या सभ्यता?

इतना तो तय है कि दुनिया एक दोराहे पर है। इस सब के चलते या तो रूसी अर्थव्यवस्था पूरी तरह से नष्ट हो जाएगी, या फिर इससे एक नयी विश्व आर्थिक व्यवस्था बनेगी, जिसके आसार पहले से बन रहे थे और जिसमें सैन्य व आर्थिक युद्धों की जगह, सहकारात्मक समाधानों को आगे बढ़ाया जाएगा।
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क्या यूक्रेन युद्ध और अमरीका, यूरोपीय यूनियन तथा यूके के कदम, दुनिया की सुरक्षित या रिजर्व मुद्रा के रूप में डॉलर के अंत की ओर इशारा कर रहे हैं? रूस तथा यूक्रेन के बीच शांति की बातचीत भले ही 15 सूत्री शांति योजना तक पहुंच गयी हो, जैसी कि फाइनेंशियल टाइम्स की खबर है, डॉलर पर इस पूरे घटनाविकास का असर होना ही है। आखिरकार, यह पहली ही बार है कि एक बड़ी नाभिकीय ताकत और एक बड़ी अर्थव्यवस्था के साथ, एक अधीनस्थ देश के जैसा सलूक किया जा रहा है। अमरीका, यूरोपीय यूनियन तथा यूके में रखे उसके 300 अरब डॉलर के विदेशी मुद्रा संचित कोषों को, जब्त कर लिया गया है।

डॉलर के शस्त्रीकरण के खतरे

बहरहाल, डॉलर के वर्चस्व के लिए खतरा पैदा हो जाना तो, इस घटनाक्रम के परिणामों का एक हिस्सा भर है। इसका एक और हिस्सा यह है कि विश्व व्यापार संगठन के सिद्धांतों पर आधारित, एक स्थिर व्यापार व्यवस्था के बने रहने के भरोसे के आधार पर निर्मित जटिल आपूर्ति शृंखलाएं भी दरकती नजर आती हैं। अमरीका को भी अब इसका पता चल रहा है कि रूस महज एक पैट्रोलियम-उत्पादक देश नहीं है, जैसा कि वे समझ रहे थे, बल्कि वह तो अमरीकी उद्योगों तथा सेना की जरूरतों के लिए अनेक अति-महत्वपूर्ण सामग्रियों की आपूर्ति भी करता है। इसके अलावा रूस दुनिया के पैमाने पर गेहूं व उर्वरकों का अति-महत्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता तो है ही।

इस सब की पृष्ठभूमि में पश्चिमी देशों में जमा रूस के धन के जब्त किए जाने का अर्थ इस भरोसे पर ही सवालिया निशान खड़े करना है कि अमरीका दुनिया का बैंकर है और डॉलर विश्व की सुरक्षित मुद्रा है। अगर पश्चिमी देशों में जमा उनका पैसा ये देश अपनी मर्जी से कभी भी  जब्त कर सकते हैं, तो क्यों अन्य देश इन देशों के साथ बचत वाला व्यापार चलाएंगे और अपनी बचत का पैसा इन पश्चिमी देशों की बैंकों में जमा करके रखेेंगे? डॉलर के विश्व की सुरक्षित मुद्रा होने का भरोसा इस बात का तो भरोसा था कि डॉलर में जमाकर के रखा जा रहा सारा का सारा पैसा सुरक्षित रहेगा। 

लेकिन, चंद महीने पहले अफगान सेंट्रल बैंक के 9.5 अरब डॉलर जब्त करके अमरीका ने दिखा दिया कि वह, अमरीकी सेंट्रल बैंक में दूसरे देशों द्वारा डॉलर में जमा करके रखे जा रहे पैसे को, माल ए गनीमत समझता है, जिसे कभी भी लूट सकता है। हो सकता है कि इस तरह की जमा राशियां, संबंधित देशों के खातों में एक आर्थिक परिसंपत्ति की तरह प्रदर्शित होती हों। लेकिन, वास्तव में तो ये जमा-राशियां इन देशों के लिए एक राजनीतिक कमजोरी ही हैं क्योंकि अमरीकी सरकार इन परिसंपत्तियों को अपनी मर्जी से कभी भी जब्त कर सकती है। इससे पहले ऐसा ही इराक, लीबिया, वेनेजुएला के मामले में भी देखने को मिला था। रूस के विदेशी मुद्रा संचित कोषों के जब्त किए जाने का यही अर्थ है कि तथाकथित नियम-आधारित व्यवस्था अब डॉलर को तथा वैश्विक वित्त व्यवस्था पर पश्चिम के नियंत्रण को हथियार बनाए जाने पर ही आधारित व्यवस्था बनकर रह गयी है।

डॉलर की सुरक्षित विश्व मुद्रा का रुतबा अब खतरे में

अर्थशास्त्रीगण, प्रभात पटनायक, माइकेल हडसन तथा क्रेडिट सुईस जोल्टन पोट्सर जैसे वित्त विशेषज्ञ अब एक ऐसी नयी विश्व वित्त व्यवस्था के अवतरण की भविष्यवाणी कर रहे हैं, जिसमें चीन की मुद्रा युआन या उसका कोई स्वरूप, दुनिया की नयी सुरक्षित मुद्रा बनकर उभर सकता है। और ये भविष्यवाणियां क्यों की जा रही हैं?

दूसरे विश्व युद्ध के बाद, ब्रेटन वुड्स समझौते के चलते, डॉलर को दुनिया की सुरक्षित मुद्रा बनने का मौका मिला था। तभी डॉलर ने ब्रिटिश पाउंड की यह जगह ले ली थी और उसकी कीमत को सोने के साथ बांध दिया गया था–35 डॉलर यानी एक आउंस सोना! बहरहाल, 1971 में अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन ने अमरीकी डॉलर को सोने  के मानक से अलग करा दिया यानी अब डॉलर के पीछे सोने की निश्चित मात्रा नहीं, बल्कि सिर्फ अमरीकी सरकार या अमरीकी खजाने की गारंटियों का ही बल था। दूसरे विश्व युद्ध के बाद के वर्षों में, डॉलर के दुनिया की सुरक्षित मुद्रा बनने और बने रहने के पीछे तीन कारक थे। एक तो उसके पीछे अमरीका की ताकत थी, जो कि दुनिया का सबसे बड़ा औद्योगिक उत्पादनकर्ता है। दूसरा, इसके पीछे दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य ताकत थी, हालांकि तब सोवियत संघ इस सैन्य ताकत को चुनौती दे रहा था। तीसरा, इसके पीछे पश्चिम एशिया के तेल की ताकत थी। तेल, अकेला ऐसा माल था जिसका व्यापार दुनिया भर में सबसे बड़ा था और जिसके दाम डॉलर में लगाए जाते थे।

पश्चिम एशिया के तथा खासतौर पर साऊदी अरब के तेल का डॉलर में निर्धारित किया जाना, अमरीका के लिए अति-महत्वपूर्ण था और यह अमरीका की सैन्य शक्ति से ही तय होता था। ईरान में प्रधानमंत्री मुसद्देह के खिलाफ तख्तापलट, इराक में 1963 के तख्तापलट और दूसरी अनेक घटनाओं को समझना कहीं आसान होगा, अगर हम यह याद रखते हैं कि अमरीका के लिए तेल कितना महत्वपूर्ण था। यही तो कार्टर सिद्धांत का आधार था, जो फारस की खाड़ी क्षेत्र तक मुनरो सिद्धांत का एक तरह से विस्तार करता था। या हम इसे उस कार्टर की नजर से समझ सकते हैं जो कहता था: “हमारा तेल, उनकी रेत के नीचे दबा है!”  पश्चिम एशिया के तेल पर अमरीका के नियंत्रण और उसकी औद्योगिक व सैन्य शक्ति ने ही यह सुनिश्चित किया था कि डॉलर, दुनिया की सुरक्षित मुद्रा बना रहे।

विश्व औद्योगिक शक्ति: नीचे खिसकता अमरीका

विश्व औद्योगिक शक्ति के रूप में अमरीका का नीचे खिसकना और चीन का उदय, साथ-साथ चलते आए हैं। चीन की औद्योगिक शक्ति के उभार को, एक सरल से आंकड़े से समझा जा सकता है, जो विश्व व्यापार के आइएमएफ के आंकड़ों का प्रयोग कर के लोवी इंस्टीट्यूट ने निकाला है। 2001 में, 80 फीसद देशों का मुख्य व्यापार सहयोगी अमरीका था। 2018 तक यह आंकड़ा घटकर 30 फीसद से जरा सा ही ऊपर रह गया और 190 देशों में से 128 का मुख्य व्यापार सहयोगी चीन हो गया, न कि अमरीका। यह नाटकीय बदलाव सिर्फ 20 साल में हुआ है! इस बदलाव का कारण है, औद्योगिक उत्पादन। चीन 2010 में ही अमरीका को पछाड़कर दुनिया का सबसे बड़ा औद्योगिक उत्पादक बन चुका था (स्टेटिस्टा.कॉम)। भारत भी 5वां सबसे बड़ा औद्योगिक उत्पादक बन चुका है, लेकिन विश्व औद्योगिक उत्पादन में भारत का हिस्सा 3.1 फीसद ही है, जबकि चीन का हिस्सा 28.7 फीसद है और अमरीका का 16.8 फीसद। हैरानी की बात यह नहीं है कि व्यापार, औद्योगिक उत्पादन के पीछे-पीछे चलता है।

इस संदर्भ में हाल की दो घटनाएं महत्वपूर्ण हैं। चीन और यूरेशियाई इकॉनमिक यूनियन, जिसमें रूस, कजाखस्तान, किर्गीजिस्तान, बेलारूस तथा आर्मीनिया शामिल हैं, एक नयी अंतर्राष्ट्रीय तथा मौद्रिक प्रणाली की ओर बढ़ते दिख रहे हैं। भारत और रूस भी, रूसी हथियारों, उर्वरकों तथा तेल के आयात की भारत की जरूरत के आधार पर, रुपया-रूबल विनियम व्यवस्था स्थापित करते लग रहे हैं। भारत इससे पहले ईरान से तेल खरीदने के लिए ऐसी ही व्यवस्था आजमा चुका है। इस तरह की व्यवस्था से रूस के लिए भारत के निर्यातों में बढ़ोतरी को ही उछाला मिल सकता है। साऊदी अरब ने हाल ही में इसका इशारा किया है कि वह भी चीन के लिए तेल की अपनी बिक्री को डॉलर की जगह पर, युवान में प्रदर्शित करना शुरू कर सकता है। इसका मतलब युवान को तत्काल उछाला मिलना होगा क्योंकि साऊदी अरब के तेल का 25 फीसद हिस्सा चीन को ही बेचा जाता है।

छिन्न-भिन्न होतीं आपूर्ति शृंखलाएं

सेवाओं, बौद्धिक संपदा तथा सूचना प्रौद्योगिकी के बाजारों में अमरीका का बोलबाला है। लेकिन, ये सभी क्षेत्र जटिल आपूर्तियों पर और इसलिए जटिल वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं पर निर्भर हैं। अगर पश्चिमी आर्थिक युद्ध का मतलब, रूस की आपूर्तियों को वैश्विक बाजार से बाहर करना है, तो इससे अनेक आपूर्ति शृंखलाएं ही छिन्न-भिन्न हो जाएंगी। मैं पहले ही इस आर्थिक युद्ध के ऊर्जा युद्ध वाले पहलू पर लिख चुका हूं और यह भी कि कैसे यूरोपीय संघ, रूस से पाइपलाइन के जरिए योरप पहुंचायी जा रही गैस पर निर्भर है। बहरहाल, दूसरे भी बहुत से ऐसे माल हैं, जो रूस के खिलाफ पाबंदियां लगाने  वाले देशों के लिए ही बहुत ही महत्वपूर्ण नहीं हैं बल्कि जो दूसरे अनेक ऐसे देशों के लिए भी बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिनके लिए, पश्चिम की पाबंदियों के चलते रूस के साथ व्यापार करना मुश्किल हो जाएगा।

काफी विचित्र है कि चिपों के उत्पादन की आपूर्ति शृंखला में काम आने वाला एक कुंजीभूत तत्व, रूस की आपूर्तियों पर ही निर्भर है। ये हैं नीलम सबस्टे्रेट्स, जिनमें कृत्रिम नीलम का उपयोग किया जाता है और जिनका उपयोग चिपों में होता है। इस क्षेत्र में लगता है कि रूस की लगभग इजारेदारी है। दूसरा खतरा, चिप निर्माताओं के लिए नियोन गैस की आपूर्तियों के लिए है। नियोन गैस के मुख्य आपूर्तिकर्ता दक्षिणी यूक्रेन में हैं। एक मरिऊपूल में और दूसरा ओडेस्सा में। दुनिया की नियोन गैस आपूर्ति का करीब 50 फीसद और दुनिया के चिप निर्माताओं के लिए नियोन गैस की आपूर्ति का 75 फीसद, इन्हीं दोनों कारखानों से आता है।

हम पहले ही रेखांकित कर चुके हैं कि यूरोपीय यूनियन की पर्यावरण परिवर्तन से निपटने की योजनाओं के लिए और उसके संक्रमणकालीन ईंधन के तौर पर प्राकृतिक गैस के उपयोग पर जाने के मंसूबों के लिए, आर्थिक युद्ध से कैसा खतरा पैदा हो गया है। इतना ही नहीं, नवीकरणीय या अक्षय ऊर्जा के रास्ते पर बढ़ने के लिए, ऊर्जा के भंडारण की सुविधाओं के मामले में निकल एक कुंजीभूत तत्व है और इस मामले में भी रूस निर्भरता काफी ज्यादा है। बिजली की बैटरियों के निकल बहुत महत्वपूर्ण होता है और रूस ही दुनिया का निकल का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है। अब जबकि अमरीका तथा यूरोपीय यूनियन ने, रूस के खिलाफ पाबंदियां लगा दी हैं, इसका नतीजा यह भी हो सकता है कि चीन, जो पहले ही दुनिया का सबसे बड़ा बैटरी आपूर्तिकर्ता बन चला है, इस मामले में अपनी बढ़त को और भी पुख्ता कर ले।

दोराहे पर है दुनिया

आपूर्ति शृंखलाओं को प्रभावित करने वाले अन्य तत्व पैलेडियम, प्लेटीनम, टिटीनियम तथा रेयर तत्व हैं। उन्नत उद्योगों में इनकी जरूरत होती है और इससे दुनिया भर में आपूर्ति शृंखलाओं में बाधाएं पैदा हो रही हैं। ये सभी उन 50 रणनीतिक सामग्रियों की सूची में भी हैं, जिनकी अमरीका को जरूरत होती है। हम यह याद कर लें कि कैसे कोविड-19 के दौरान आपूर्ति शृंखलाएं रुंध गयी थीं। आने वाला संकट उससे भी बदतर हो सकता है। इसके अलावा पाबंदियां लगाना  तो आसान होता है, पर उन्हें उठाना कहीं मुश्किल होता है। और पाबंदियां उठाए जाने के बाद भी, आपूर्ति शृंखलाएं कोई पहले की तरह फिर से सुचारु तरीके से नहीं चल पड़ेंगी। याद रहे कि ये आपूर्ति शृंखलाएं, धीरे-धीरे करके दसियों साल में कायम हुई थीं। पाबंदियों के हथौड़े से उन्हें छिन्न-भिन्न करना तो आसान है, लेकिन उन्हें फिर से खड़ा करना काफी मुश्किल होने जा रहा है।

विश्व खाद्य आपूर्तियों पर इस सब के बीच और भी भारी चोट पड़ने जा रही है। यूक्रेन तथा बेलारूस, दुनिया भर के किसानों की जरूरत के उर्वरकों का उल्लेखनीय रूप से बड़ा हिस्सा बनाते हैं। रूस और यूक्रेन, गेहूं के दुनिया के सबसे बड़े निर्यातकों में से हैं। अगर रूस के गेहूं पर पाबंदी लगा दी जाती है और यूक्रेन की फसल पर युद्ध की मार पड़ती है, तो पूरी दुनिया के लिए खाद्यान्न की गंभीर तंगी से बचना आसान नहीं होगा।

इतना तो तय है कि दुनिया एक दोराहे पर है। इस सब के चलते या तो रूसी अर्थव्यवस्था पूरी तरह से नष्ट हो जाएगी, चाहे यूक्रेन में रूस जल्दी से शांति हासिल करने में कामयाब हो जाए या फिर चाहे नाटो-रूस युद्ध चाहे न भी हो। या फिर इससे एक नयी विश्व आर्थिक व्यवस्था बनेगी, जिसके आसार पहले से बन रहे थे और जिसमें सैन्य व आर्थिक युद्धों की जगह, सहकारात्मक समाधानों को आगे बढ़ाया जाएगा।

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