"आलोचना में स्त्री क्यों नहीं हैं?”, ये सवाल ही बेमानी है
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: आउटलुक
हिंदी आलोचना को लेकर अभी एक बहस चली कि हिंदी आलोचना के क्षेत्र में स्त्रियां क्यों नहीं हैं। आप जब इस सवाल के संस्तर को उघाड़ेंगे तो सवाल ही बेमानी लगेगा क्योंकि हिंदी आलोचना एक क्रमबद्ध अध्ययन और समय के साथ सुविधा सहूलियत माँगती है जो समाज में स्त्रियों को उतनी नहीं मिली जितनी पुरुषों को मिली। ये प्रश्न सीधे-सीधे वही प्रश्न है कि समाज के ज्यादातर संसाधन किसके पास हैं या कोई मुँहजबरई से ये प्रश्न करे कि स्त्रियों , दलितों, आदिवासियों या हाशिये के किसी भी वर्ग के पास उतने संसाधन क्यों नहीं हैं जितने सवर्णों के पास हैं या जैसे आरक्षण को लेकर शिक्षा में प्रवीणता का हवाला दिया जाता कि अधिक मेधावी की जगह औसत अभ्यर्थी का चयन होता है जवाब हमसभी जानते हैं।
आज जरूरत है कि इस सवाल का जवाब प्रतिक्रियावादी तरीक़े से न देकर एक सामन्ती समाज में गहरे असर से पड़ी खाइयों और गढ्ढो को चिह्नित करके दिखाया जाये कि देखो सत्ता के बनाये गैरबराबरी के समाज की रूपरेखा में हम कहाँ हैं।
भारतीय समाज या हिन्दी पट्टी को अपने भीतर झाँकना चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों हुआ। एक समाज जो सदियों से हाशिये पर रहा जिसे पढ़ने लिखने का अधिकार बहुत पीछे से मिला उनका लिखना और इतना व्यापक लिखना उनकी अर्जित की गई बड़ी उपलब्धि है और एकतरह वो उनकी लिखी गयी आलोचना भी है।
जब हम आलोचनात्मक नजरिये से किसी परिघटना को निरखेगें तो जाहिर है उसके हर दृष्टिकोण पर बात करेंगे। आज हिंदी आलोचना का जो वृहत्तर क्षेत्र है वहाँ स्त्रियों की भगीदारी उस तरह से नहीं है जिस तरह से पुरुषों की है या इस तरह कहना कि क्या स्त्रियों की दृष्टि वैश्विक नहीं बन पायी, ये दो सवाल हैं जिनका जवाब हाँ में अगर दिया जाये तो ये महज स्त्रीलेखन को खारिज करने की बात नहीं होगी क्योंकि ये बात आलोचना विधा में लिखने की या आलोचना के सम्पूर्ण आयाम में अपनी भागीदारी दर्ज करने की है।
आलोचना के क्षेत्र में स्त्रियों का हस्तक्षेप कितना हुआ है उसे महज अस्मिता से जुड़े संदर्भों से नहीं आंका जा सकता उसे सम्पूर्ण आलोचना विधा के आधार पर देखा जायेगा तो भी अन्य विधाएं गौण नहीं कही जा सकती है क्योंकि उन्हीं के आधार पर आलोचना विधा का अस्तित्व है।
इस सारी बहस के विभिन्न पक्षों को हम अलग-अलग खंड मे समझ सकते हैं। पहले तो ये बात निश्चित करनी होगी कि स्त्रियों की आलोचना की मुक्त विधा में कितनी भागीदारी है क्या एकदम से आलोचना में स्त्रियां अनुपस्थिति हैं? या जितना उन्होंने कहानी, कविता, उपन्यास पर काम किया है क्या आलोचना में भी उनका कार्य उतना ही है, जवाब है- नहीं आलोचना में वो काम नहीं है, अगर है भी तो स्त्री अस्मिता से जुड़ा कार्य है या वो अस्मिता से जुड़ी आलोचना है।
एक बात और ध्यान देने की है कि स्त्री हो या पुरुष किताबों पर लिखी तारीफ, टिप्पणी या रिव्यू आलोचना नहीं होती।
बात आलोचना विधा की है तो आलोचना के मूलस्वरूप को देखते हुए ही अबतक की स्त्री आलोचना की बात होगी। ये बात तय है कि अगर आपको ठीक-ठीक आलोचना करनी है तो जिस विधा की आलोचना है उस विधा के साहित्य का बहुत विस्तृत अध्ययन करना होगा और उस विस्तृत अध्ययन के लिए बहुत सारा समय होना चाहिए जो स्त्रियों को निश्चित उसतरह से नहीं मिलता जितना पुरुषों को मिलता हैं क्योंकि समाज में घर नाम की संस्था स्त्रियों के भरोसे चलती है। स्त्रियों ने बहुत लिखा, एक वृहद साहित्य संसार है उनका। जो किसी भी मायने में आलोचना विधा से कमतर नहीं है। उपन्यास, कहानी, आलोचना, संस्मरण इत्यादि लिखा गया है आलोचनाएं भी खूब लिखी गयी हैं, बस हो सकता है कि स्वतंत्र आलोचना उतनी वृहद नहीं लिखीं गयी।
स्त्री आलोचना के सवाल पर सबसे पहले जो कारण दिखता है वो ये कि उन्होंने बहुत पीछे से लिखना शुरू किया और जब लिखना शुरू किया तो उनके अपने इतने दुःख, इतनी पीड़ाएं थीं कि वे वही कहतीं रहीं जिसे कहना स्वाभाविक और जरूरी था। जाहिर सी बात है कि एक शोषित और उपेक्षित समाज पहले अपना ही दुःख लिखेगा । बाद में वो और भी चीजें दर्ज कर सकता है लेकिन सुविधा और सहूलियत कहने-सुनने के लिए बहुत बड़ी चीज होती है स्त्रियों को लिखने पढ़ने की कितनी सहूलियत मिलती है हमसब जानते हैं। इन दुश्वारियों के बावजूद वो लगातार लिख रही हैं और बहुत बेहतर लिख रही हैं और अपनी अन्य जिम्मेदारी को निभाते हुए लिख रही हैं। आलोचना के क्षेत्र में उन्होंने रामविलास शर्मा, नामवर सिंह या मैनेजर पांडेय जैसा काम नहीं किया तो इसे किसी क्षति या बहुत अपरिमेय विधा में कार्य न होने की बात की तरह नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि कविता, कहानी, उपन्यास जिस सहजता और रोचकता से अपनी बात जनमन तक पहुँचा देते हैं उसे शायद ही आलोचना कर पाती है। विमर्श की कठिन भाषा से बचते हुए जब कविता, कहानी, उपन्यास जनपक्षधरता की बहुत बड़ी बात को उस जमीन तक ले जाते हैं जहाँ जरूरत है तो वो बहुत बड़ी परिघटना होती है। एक समाज जहाँ लम्बे समय तक बल्कि कुछ हद तक अब भी स्त्रियों का पढ़ना लिखना उनके भोग-विलास की तरह देखा जाता था तो उन्हें ये कार्य करने की कितनी सहूलियत मिल सकती है अनुमान कर सकते हैं।
स्त्री के आलोचना पक्ष को देखते उनका सम्पूर्ण जीवन और कठिनाई दिखने लगती है। बहुत वृहद नोट्स बनाते हुए पढ़ना उनके लिए सहज नहीं होता आलोचना के एक लेख लिखने के लिए तुलनात्मक अध्ययन के लिए कितनी किताबें पढ़ना आदि यहाँ जो सबसे सबसे व्यापक समस्या है संसाधनों तक उनकी पहुँच का न होना है। और कायदे से आलोचना यूँ ही नहीं लिखी जाती कि आप सबकी प्रशंसा करते चले जा रहे हैं सबका लिखा कालजयी बता रहे हैं ये कसौटी नहीं है आलोचना की। नीर क्षीर की पड़ताल और यह गहरे पैठने का काम है। खूब समय और कहने के धैर्य का काम है। अगर ध्यान से देखा जाये तो कितने पुरुष लेखक ही आलोचना का काम उसकी कसौटी पर कर रहे हैं।
ये कोई दूर की भी बात नहीं है अब भी स्त्रियों के पास पुरुषों जैसा संसाधन और वक़्त कहाँ है आलोचना में कार्य करने के लिए। उपन्यास कविता, कहानी में हमेशा बहुत मेहनत, समय और अर्थ की ज़रूरत नहीं पड़ती क्योंकि बहुधा ये चीजें जीवन के अनुभव से निःसृत होती हैं। वे अक्सर अपने आसपास जो देखती हैं, महसूस करती हैं या सहती हैं उसे दर्ज करती हैं और दूसरों का देखा सहा भी कहती हैं। ये बात एकदम सच है कि हिंदी साहित्य में जब स्त्रियों की प्रचुर भगीदारी है तब भी अधिक संख्या में उपन्यास, कविता और कहानी ही लिख रही हैं स्त्रियाँ, और ये कोई आलोचना लिखने से छोटी बात है। अपने अनुभवों और जीवन के रास्ते आयीं चीजें बहुत विस्तृत अध्ययन के रास्तों से आये साहित्य से कमतर तो नहीं हो सकतीं।
रही बात स्त्री आलोचना की तो उसे पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता है। अस्मिता के एक विस्तृत क्षेत्र में उनका बहुत जरूरी व लम्बा कार्य है। और रही बात अकादमिक संसार की तो वहाँ भी देखा जाता रहा है कि अधिकतर स्त्रियों को आलोचना और शोध से विमुख करने की रणनीतियाँ अपनाई जाती हैं जो बहुत अदृश्य तरीक़े से कार्य करती हैं।
स्त्री आलोचना के पक्ष पर बात करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन करतीं कथाकार सविता पाठक कहती हैं कि आलोचना पर काम करना- एक 'पौरूषीय क्षेत्र' का मामला बना दिया गया है। यानी यह कठिन है, इसकी विशिष्ट शब्दावली है यह विशिष्ट अध्ययन (जो कि स्त्रियों के बूते से बाहर है) की मांग करता है। यानी आलोचना पर काम करने का ख्याल श्रेष्ठताबोध से ग्रस्त लगता है। यह उस गणित की तरह है जिसके बारे में पहली धारणा की यह महान कठिन विषय है और दूसरी धारणा की यह स्त्रियों की समझ से परे है, की तरह का लगता है। जबकि इन दोनों धारणाओं की मिट्टी कबकी पलीद हो चुकी है।
उनका मानना है कि मारजिन से पैदा हुआ लेखन अपने आप में एक आलोचना है। वहां अनुभवजन्य कारणों से एक सहज दृष्टि विकसित होने की पूरी संभावना होती है।
आलोचना को बाकी लेखन से मजबूत समझने की समझ पर भी विचार करने की जरूरत है। आलोचना किसी रचना का वैज्ञानिक तरीके से डिसेक्शन है अमूमन वह कम ही दिख रहा है। उसमें पौरूषीय, सामंती, अभिजात्यपन और श्रेष्ठताबोध छलकने लगता है
जो स्त्रियां आलोचना के क्षेत्र में हैं उनका मानना है कि पुरुषों के समकक्ष उनके लिखे को तरजीह नहीं दी जा रही है। ये बात काफी हद तक सच भी हो सकती है क्योंकि सत्ता के अपने मानदंड होते हैं।
समाज का एक अंग जिनके पास अकथ किस्से कहानियों का भंडार था जिनके लोकगीतों में समाज को आईना दिखाते हुए बेहद सटीक अर्थ दिए आज उन्हें आलोचना के संदर्भ में संदेह से देखा जा रहा है। ये बात सच भी है प्रबंध आलोचना जैसा काम उनके पास उस तरह से नहीं है जिस तरह से पुरुषों के पास है तो ये लोकतांत्रिक राज्य-समाज के लिए खेद की बात है न कि स्त्रियों के लिए या किसी भी हाशिये के समुदाय के लिए क्योंकि हम जन्म से लेखक आलोचक नहीं होते सब यहीं अर्जित करते हैं।
अक्सर घरों में देखा जाता है एक ही वय के भाई-बहन बचपन साथ पढ़ते लिखते समान होते हैं कभी-कभी लड़कियाँ ज्यादा कुशाग्र होती हैं फिर बड़े होने पर दोनों की दिशाएं बदलती हैं और वो अध्ययन में तेज लड़की एक कुशल गृहणी बन जाती है अगर नौकरी आदि में है भी तो अलग तरह की जिम्मेदारियों से बंधी हुई होती है।
ऐसा नहीं है स्त्रियों में आलोचनात्मक दृष्टि नहीं है लेकिन दर्ज करने की वो सहूलियत या शायद बरती जा रही परिष्कृत भाषा आदि उनके पास न हो तो पहले ज़रूरी है कि उन कठिनाइयों को समझा जाए जो स्त्रियों के पठन-पाठन के सामने अनचाहे ही आ जाती हैं और वहाँ समझौते करके लिखतीं पढ़ती रहती हैं। वर्जिनिया वुल्फ, अपना कमरा किताब में शेक्सपियर की बहन की बात करते हुए सुविधाओं की यह बात बहुत सहज और रोचक तरीके से सत्यापित करती हैं।
लेकिन सब तेजी से बदल रहा है। स्त्रियों ने साहित्य के क्षेत्र में बहुत कुछ अर्जित किया है। अब स्त्री अपने हिस्से का सच ही नहीं सारे सच कह रही हैं । स्त्री लेखन में बहुत से ऐसे नाम हैं जिनके लिए कहा जा सकता है कि साहित्य में कोई महाश्वेता क्यों नहीं है या गायत्री चक्रवती क्यों नहीं है ऐसे जाने कितने नाम हैं जिन्हें अगर इस सवाल की भाषा में कहा जाए तो कौन है उनके जैसा। स्त्रियों ने सब कहा और कह रही हैं। विधा उनका हाथ नहीं पकड़ सकती और ये बात कहीं रुकेगी नहीं जैसे सारी विधाओं पर उनका मजबूत हस्तक्षेप है उसी तरह मुख्यधारा की आलोचना में उनकी भागीदारी ही नहीं एक मजबूत हस्तक्षेप भी होगा।
(लेखिका एक कवि और संस्कृतिकर्मी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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