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उत्पादन का दुनिया भर में प्रसरण और साम्राज्यवाद की अवधारणा

विकासशील दुनिया में प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट और प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता में और भी भारी गिरावट, जिसके पीछे हाल के वर्षों में खाद्यान्नों के जैव-ईंधनों की ओर मोड़े जाने की बढ़ती प्रवृत्ति जिम्मेदार है, इसी जबर्दस्ती के कुफल हैं और पोषणगत वंचितता में देखने को मिल रही बढ़ोतरी इसी की अभिव्यक्ति है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। फ़ोटो साभार :  विकिमीडिया कॉमन्स

विश्व अर्थव्यवस्था में हो रहे उत्पादन का उल्लेखनीय रूप से प्रसरण हुआ है। बहुत से लोग इस परिघटना को, एक अमेरिका-नीत विश्व अर्थव्यवस्था से, एक ‘‘बहुध्रुवीय विश्व अर्थव्यवस्था’’ की ओर बदलाव कहते हैं। बहरहाल, इस तरह के वर्णन के बारे में हमारे विचार चाहे जो भी हों, उत्पादन का प्रसरण होने से इंकार नहीं किया जा सकता है।

उत्पादन का व्यापक प्रसरण

मिसाल के तौर पर 1994 में जी-7 देश (अमेरिका, यूके, जर्मनी, फ्रांस, जापान, इटली और कनाडा) विश्व उत्पाद का 45.3 फीसद पैदा करते थे, जबकि ब्रिक्स में शामिल देश (ब्राजील, रूस, भारत, चीन तथा दक्षिण अफ्रीका और उसके नये सदस्य यूएई, मिस्र तथा इथियोपिया मिलकर) 18.9 फीसद पैदा करते थे। लेकिन, 2022 तक यह अनुपात बदलकर 29.3 फीसद और 35.3 फीसद का हो गया है। (ये आंकड़े विश्व बैंक के हैं, जो अर्थशास्त्री जैफ्री साख्श ने उद्मृत किए हैं।)

अगर हम एक हद तक उक्त ग्रुपिंग से बड़ा समूह लें यानी अमेरिका, यूके, कनाडा, यूरोपीय यूनियन, जापान, दक्षिण कोरिया, आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलेंड, तब भी हम देखते हैं कि विश्व उत्पाद में इस समूह का हिस्सा 1994 के 56 फीसद से घटकर, 2022 में 39.5 फीसद ही रह गया था। उत्पादन के इस प्रसरण के निहितार्थों को पहचानने से अमेरिका इंकार करता है और वह पहले के जमाने में दुनिया पर जिस तरह का दबदबा उसे हासिल रहा था, उसे ही बनाए रखने की कोशिश कर रहा है। यह उसे रूस, चीन, ईरान तथा अन्य देशों के प्रति बहुत ही हमलावर बनाता है। वास्तव में, उसकी आक्रामकता दुनिया को खतरनाक सैन्य टकरावों में धकेल रही है।

इसमें कोई शक नहीं है कि उत्पादन के इस प्रसरण में समाजवाद के उदय ने भारी मदद की है। बात सिर्फ इतनी ही नहीं है कि खुद निरुपनिवेशीकरण में ही समाजवाद की मौजूदगी ने मदद की थी, उत्तर-औपनिवेशिक समाजों में घरेलू कौशलों, प्रौद्योगिकीय योग्यता, बुनियादी ढांचे तथा उत्पादक क्षमता का निर्माण शुरूआत में नियंत्रणात्मक व्यवस्थाओं के अंतर्गत हुआ था, जिन्होंने पश्चिमी शत्रुभाव के खिलाफ खुद को संभाले रखा था, तो उल्लेखनीय सोवियत सहायता के ही सहारे संभाले रखा था। जाहिर है कि आगे चलकर, सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोप में समाजवाद के पराभव के बाद और तीसरी दुनिया की नियंत्रणात्मक व्यवस्थाओं के खत्म हो जाने के बाद, उत्पादन के प्रसरण की इस प्रक्रिया को उत्पादनरत पूंजी के अंतरराष्ट्रीय प्रवाहों ने आगे बढ़ाया। उत्पादनरत पूंजी के इन प्रवाहों को नव-उदारवादी वैश्विक व्यवस्था ने सुगम बनाया था, लेकिन अनेक प्रमुख उदाहरणों में इस तरह के प्रवाहों की पूर्वशर्तें उक्त नियंत्रणात्मक निजामों ने ही निर्मित की थीं। इस समय अमेरिका-नीत गुट से बाहर उत्पादन का जो प्रसरण हो रहा है, पूंजीवाद के तत्वावधान में हो रहा है। (बेशक, चीन का एक अलग ही मामला है।)

साम्राज्यवाद का सवाल

इससे जो सवाल उठता है वह यह है कि वर्तमान संदर्भ में हम, साम्राज्यवाद की बात किस अर्थ में कर सकते हैं? साम्राज्यवाद की संज्ञा विश्व अर्थव्यवस्था में एक द्विभाजन या फांक पड़ी होने से जुड़ी रही है--एक ओर विकसित मैट्रोपोलिस और दूसरी ओर अविकसित हाशियों के बीच विभाजन। लेकिन, अगर अब यह द्विभाजन मिटता जा रहा है, अगर जो देश हाशिए पर थे उनमें उत्पाद की वृद्धि दरें खुद विकसित देशों से भी तेज चल रही हैं, तो हम अब साम्राज्यवाद की बात कैसे कर सकते हैं?

ऐसा लगता है कि सचाई इसके उलट, देशों के बीच संसृति की ओर इशारा करती है, जहां विकासशील दुनिया या ग्लोबल साउथ में आने वाले देश अब विकसित दुनिया या ग्लोबल नार्थ के देशों के नजदीक आ रहे हैं और इससे भी बढ़कर यह कि (पुन: चीन के अपवाद को छोड़कर) ऐसा पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के अंतर्गत ही कर रहे हैं। इसलिए, पूंजीवाद को अब और इसके लिए दोषी नहीं माना जा सकता है कि वह दुनिया को विकसित और पिछड़े हिस्सों के बीच बांट रहा है। इसलिए, उस पर साम्राज्यवाद का आरोप नहीं लगाया जा सकता है। लेकिन, सवाल यह उठता है कि क्या यह दलील सही है?

सबसे पहली बात तो यह है कि जहां प्रसरण की बात से तो इंकार नहीं किया जा सकता है, वहीं संसृति की कोई भी बात दूर की कौड़ी लगती है। ऐसा आंशिक रूप से इसलिए है कि खुद प्रसरण की परिघटना को बढ़ा-चढ़ाकर नहीं देखा जाना चाहिए। जिन देशों में ऐसा प्रसरण देखने को मिला है, उनकी संख्या अब भी थोड़ी सी ही है और उनमें से अनेक में आने वाले दिनों में भाग्य चक्र पलट भी सकता है। ऐसा इसलिए हो सकता है कि नवउदारवाद का संकट उन्हें कर्ज के फंदों में फंसा रहा है और यह उन्हें ‘राजकोषीय कमखर्ची’, घरेलू आर्थिक संकुचन और इसलिए आर्थिक गतिरोध तथा मंदी की ओर ले जाएगा। इतिहास में ऐसी पलटियों के पर्याप्त उदाहरण मिल जाएंगे। इस तरह के उदाहरण, खनिज-धनी देशों के मामले में खासतौर पर ज्यादा मिलते हैं। म्यांमार, ऐसे देशों का शास्त्रीय उदाहरण है, जिसे एक समय में संपन्नता की दहलीज पर खड़ा समझा जाता था, लेकिन अब ‘सबसे कम विकसित देशों’ की सूची में आता है। खुद अपने पड़ोस में हम देशों को, विदेशी ऋण के बोझ के चलते, पीछे खिसकते देख सकते हैं।

विकासशील दुनिया में बढ़ती गरीबी

विकसित और विकासशील दुनिया के बीच ‘संसृति’ का सवाल ही नहीं उठने की दूसरी वजह, ठीक साम्राज्यवाद ही है। इसे समझने के लिए हमें एक दूसरी परिघटना को दर्ज करना होगा, जो विश्व अर्थव्यवस्था की पहचान कराती है। लेकिन, इस परिघटना पर जिस तरह से ध्यान दिया जाना चाहिए उसके बजाए, विश्व बैंक जैसे संगठनों द्वारा जो कि प्रसरण के तथ्य पर ही जोर देते हैं, इस परिघटना को ढांपने की ही कोशिश की जाती है। यह विशेषता इस तथ्य में निहित है कि नव-उदारवाद के दौर में, जब पूंजीवाद के तत्वावधान में, विकसित दुनिया से विकासशील दुनिया की ओर आर्थिक गतिविधियों का प्रसरण हुआ है और विकासशील दुनिया में औसतन जीडीपी की वृद्घि दर, विकसित दुनिया के मुकाबले ज्यादा बनी रही है, इसके साथ ही साथ विकासशील दुनिया में पोषणगत वंचितता का पैमाना बढ़ता रहा है। और अगर पोषणगत वंचितता को कुल मिलाकर वंचितता का संकेतक माना जाए, जिसके लिए विकासशील दुनिया की आय के स्तरों पर काफी ज्यादा साक्ष्य मौजूद हैं, तब इसका अर्थ यह हुआ कि निरपेक्ष गरीबी के पैमाने में बढ़ोतरी हुई है। इस तरह, इसमें तो शक नहीं कि विकासशील दुनिया के लोगों को, इस सब के क्रम में निर्मित बेहतर सडक़ों, बिजली तथा अन्य ढांचागत सुविधाओं का लाभ हासिल हुआ है। लेकिन, ठीक इसी दौर में जब समाजवाद तथा समाजवाद-समर्थित अपेक्षाकृत स्वायत्त नियंत्रणात्मक निजामों का पतन हो गया है और विश्व अर्थव्यवस्था पर नव-उदारवादी पूंजीवाद का वर्चस्व कायम हो गया है, विकसित दुनिया के लोगों के निजी उपभोग में कमी आयी है।

इसलिए, ‘संसृति’ की संकल्पना प्रस्तुत करना, हालात को समझने में गलती करना है। हम तो सिर्फ यही कह सकते हैं कि पूंजीवादी दुनिया में पहले विकसित देशों और हाशिए के देशों के बीच जो विभाजक रेखा हुआ करती थी, अब भौगोलिक रूप से खिसक कर हाशिए के देशों के अंदर ही आ गयी है; विकासशील दुनिया में बड़े पूंजीपति तथा अभिजन अब, उसी पाले में आ गए हैं, जिसमें विकसित दुनिया की पूंजी है। अब वे उस पाले में नहीं रह गए हैं, जिसमें विकासशील दुनिया की जनता आती है, जबकि उपनिवेश-विरोधी संघर्ष के दौर में आम तौर पर वे उसी पाले में हुआ करते थे, जिसमें विकासशील दुनिया की जनता हुआ करती थी।

साम्राज्यवाद माने हाशिए के साथ जोर-जबर्दस्ती

बहरहाल, साम्राज्यवाद की संज्ञा का अभिप्राय तो वैसे भी कभी किसी भौगोलिक विभाजन से नहीं था। इसका संबंध तो जबर्दस्ती से ही था, जो पूंजीवादी उत्पादन पद्धति द्वारा अपने इर्द-गिर्द के साथ की जाती है। दूसरे शब्दों में साम्राज्यवाद का प्रस्थान बिंदु हमेशा ही, राजनीतिक अर्थशास्त्र में रहा है, न कि भौगोलिक सीमाओं में। इस राजनीतिक अर्थशास्त्र के कुछ नुक्तों को यहां दुहरा देना उपयुक्त रहेगा।

पूंजीवादी उत्पादन पद्धति, औद्योगिक क्रांति के साथ परिपक्व हुई थी और यह क्रांति ब्रिटेन में सूती कपड़ा उद्योग में आयी थी। लेकिन, ब्रिटेन को कपास पैदा कर ही नहीं सकता था। इसलिए, पूंजीवादी उत्पादन पद्धति का परिपक्व होना तो खुद ही, ऐसे अनेक कच्चे मालों तक उसको पहुंच हासिल होने पर निर्भर था, जिन मालों को उसके पूंजीवादी पद्धति के घरेलू आधार क्षेत्र में या तो बिल्कुल ही पैदा नहीं किया जा सकता था या पर्याप्त मात्रा में पैदा नहीं किया जा सकता था या पूरे साल पैदा नहीं किया जा सकता था। और इन मालों को सामान्य रूप से दुनिया के गर्म या सम-शीतोष्ण इलाकों में करोड़ों किसानों तथा लघु उत्पादकों द्वारा पैदा किया जाता था और ये इलाके ऐतिहासिक रूप से घनी आबादी के इलाके रहे हैं और आज भी हैं। ये क्षेत्र मोटे तौर पर हाशिए के समानार्थी हैं और जब पूंजीवाद इन क्षेत्रों में अपना प्रसार भी करता है, तब भी यह स्थानीय पूंजीवाद भी और विकसित दुनिया का पूंजीवाद भी, दोनों ही इस पर निर्भर बने रहते हैं कि इन करोड़ों गैर-पूंजीवादी उत्पादकों से, अनेकानेक प्राथमिक मालों की बढ़ती हुई आपूर्ति हासिल की जाए और ऐसे दामों पर हासिल की जाए, जो बढ़ते तो नहीं ही हैं, वास्तव में जिनमें दशकों के दौरान इकाई डॉलर मूल्य के पैमाने से वास्तव में गिरावट ही होती गयी है।

अंतर्निहित जबर्दस्ती का रिश्ता

हालांकि, इन मालों का विनिमय मूल्य अपेक्षाकृत थोड़ा होता है, जोकि समय के साथ इन मालों के लघु उत्पादकों पर थोपे गए, निचोड़े जाने के बहुत भारी दबाव की विरासत का ही हिस्सा है, और इससे यह पूरी तरह से झूठी छवि बनती है जैसे पूंजीवादी व्यवस्था के लिए ये माल बिल्कुल महत्वहीन हैं। लेकिन, पूंजीवाद का उपयोग मूल्यों के रूप में इन मालों के बिना काम चल ही नहीं सकता है। अब इन मालों की और खासकर गर्म तथा सम-शीतोष्ण इलाकों के कृषि उत्पादों की जरूरत भर आपूर्तियां हासिल करने के लिए और ये आपूर्तियां उन जमीनों से हासिल करने के लिए जो पहले ही कमोबेश उपयोग में हैं, थोड़े-बहुत दबाव या जबर्दस्ती की जरूरत होगी या फिर इन जमीनों पर काबिज लघु उत्पादकों द्वारा भूमि संवर्धनकारी यानी भूमि की पैदावार बढ़ाने वाले नवाचारों तथा तौर-तरीकों के अपनाए जाने की जरूरत होगी। लेकिन, चाहे सिंचाई के इंतजाम हों या ज्यादा उपज देने वाले उन्नत नस्ल किस्म के बीजों के विकास के लिए शोध तथा इन बीजों के उपयोग का प्रसार हो, इसके लिए सामान्य तौर पर उल्लेखनीय रूप से बड़े पैमाने पर राजकीय प्रयास की जरूरत होती है। लेकिन, पूंजीवाद और खासतौर पर नव-उदारवादी पूंजीवाद को, इस तरह का राजकीय प्रयास नापसंद होता है। वह चाहता ही नहीं है कि राज्य किसी भी ऐसी गतिविधि में शामिल हो, जो अंतर्राष्ट्रीय पूंजी और उसके स्थानीय सहयोगियों यानी खुद विकासशील दुनिया के कारपोरेट-वित्तीय कुलीनतंत्र को छोड़कर, किसी के भी हितों को आगे बढ़ाती हो। पूंजीवाद यह तो हर्गिज नहीं चाहता है कि शासन, किसानों तथा लघु उत्पादकों के हितों को आगे बढ़ाए। इसीलिए, भूमि-संवर्धनकारी कदमों से परहेज किया जाता है और प्राथमिक मालों की जिन आपूर्तियों की जरूरत होती है उन्हें स्थानीय लोगों की आमदनियों को और इस तरह, खुद विकासशील दुनिया के अंदर इन मालों की स्थानीय मांग को, सिकोडऩे के जरिए हासिल किया जाता है। इस तरह का मांग का संकुचन, कम से कम अंतर्निहित जबर्दस्ती के बिना तो हो नहीं सकता है।

विकासशील दुनिया में प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट और प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता में और भी भारी गिरावट, जिसके पीछे हाल के वर्षों में खाद्यान्नों के जैव-ईंधनों की ओर मोड़े जाने की बढ़ती प्रवृत्ति जिम्मेदार है, इसी जबर्दस्ती के कुफल हैं और पोषणगत वंचितता में देखने को मिल रही बढ़ोतरी इसी की अभिव्यक्ति है। इस तरह, विकासशील दुनिया की ओर उत्पादन का प्रसरण किसी भी तरह से साम्राज्यवाद की परिघटना को नकारता नहीं है।

मूलतः अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

World Economy Seeing Notable Diffusion of Production

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