भुखमरी की कड़वी हक़ीक़त की क़ीमत पर गुठली का भूत ओडिशा के कंधमाल में फिर से आया
हरी पहाड़ियों की गोद में बसे एक छोटे से गांव के दोनों ओर मिट्टी से बने मकानों की कतारें, जो वस्तुतः उस निवास स्थान का मुकुट हैं जो उस क्षेत्र में रहने वाले लोगों की हृदय विदारक वास्तविकताओं को बमुश्किल ही उजागर कर पाती हैं।
वर्ष 2001 की बात है जब हम ओडिशा के रायगढ़ जिले के काशीपुर ब्लॉक में गए थे। तब पूरा इलाका गम में डूबा हुआ था।
आम की गुठली में जहर होने के कारण 24 लोगों की मौत हो गई थी और यह कहा जा सकता है कि 2001 में भूख ने ही उन्हें ऐसा खाना खाने पर मजबूर किया था।
संयोग से, आम की गुठली खाना इस इलाके के आदिवासियों के बीच एक पारंपरिक प्रथा है, खासकर सितंबर से दिसंबर के दौरान ऐसा किया जाता है। यह अत्यधिक गरीबी के दौरान भूख से निपटने का एक हताश उपाय है।
तब से अब तक कुछ खास नहीं बदला है। 2024 में, यानी 23 साल बाद, एक ऐसी ही घटना की खबर आ रही है, जिसमें कई लोगों की जान चली गई है।
ओडिशा में मोहन चरण माझी के नेतृत्व वाली “डबल इंजन” भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार को अपने पांच महीने के शासन में राजनीतिक निराशावाद का सामना करना पड़ा है।
इस वर्ष एक नवंबर को आठ लोग (महिलाएं) आम की गुठली के जहर का शिकार हो गए, जबकि दो महिलाओं की मौत हो गई।
अगस्त 2001 में ओडिशा में आम की गुठली खाने से खाद्य विषाक्तता और मृत्यु की बात सामने आई थी। उस समय, यह खबर सीमाओं को पार कर गई थी और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा था, हालांकि यह सुर्खियां गलत कारण से मिली थी।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने घटना की जांच की थी और पाया था कि गुठली में फफूंदी लग गई थी, जिसके कारण भोजन विषाक्त हो गया था।
एक ही जिले में ऐसा कई बार हुआ है। रायगढ़ जिले के काशीपुर में 1987, 1995 और 2001 में आम की गुठली से बने दलिया खाने से मौतें हुई हैं थीं।
भूख की कोई सीमा नहीं होती है
हाल ही में हुई घटना, जिसमें आठ महिलाओं में से दो की आम की गुठली का दलिया खाने से मृत्यु हो गई, 2001 की त्रासदी की भयावह याद दिलाती है।
इस बार यह घटना कंधमाल जिले के दारिंगबाड़ी ब्लॉक के मंडीपांका गांव में घटी है।
आम की गुठली खाने से 28 वर्षीय दो महिलाओं रुमिता पट्टामाझी माझी और दिव्यांग रुनु माझी की मौत हो गई, जबकि दारिंगबाड़ी प्रखंड के मंडीपांका गांव की छह अन्य महिलाओं को ब्रह्मपुर और कटक के अस्पतालों में भर्ती कराया गया है।
इस घटना से राजनीतिक आक्रोश भड़क उठा है और विपक्षी बीजू जनता दल (बीजद) तथा कांग्रेस ने इसे ओडिशा में माझी सरकार को घेरने के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है।
भगवा सरकार के ‘सबका साथ, सबका विकास’ के दावों को खारिज करते हुए बीजद प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने कहा है कि वर्तमान शासन (भाजपा) के तहत सार्वजनिक वितरण प्रणाली या पीडीएस “बुरी तरह विफल” हो गई है। उन्होंने आरोप लगाया कि कंधमाल सहित कई इलाकों में अज्ञात कारणों से दो महीने से अधिक समय से चावल का वितरण नहीं हुआ है।
पटनायक ने मीडिया से कहा कि, "बीजद ने खाद्य सुरक्षा पहलुओं को सर्वोच्च प्राथमिकता दी थी, जो पिछले पांच महीनों से गड़बड़ा गई है, जिससे राज्य में भाजपा शासन की घोर उपेक्षा उजागर हो गई है।"
इस त्रासदी से दो अहम सवाल उठते हैं: क्या इस इलाके में सार्वजनिक वितरण प्रणाली सक्रिय थी? दूसरा, गरीब लोगों के लिए रोजगार सृजन के बारे में क्या सोचा गया था?
हाल ही में प्रयोगशाला रिपोर्ट से पुष्टि हुई है कि आम की गुठली से बना दलिया अगर एक दिन से ज़्यादा रखा जाए तो ज़हरीला हो सकता है। ओडिशा के सार्वजनिक स्वास्थ्य निदेशक ने कहा कि जिन लोगों ने पहले दिन दलिया खाया, वे ठीक थे, लेकिन दो दिन बाद जब उन्होंने इसे खाया तो यह ज़हरीला हो गया था।
स्वास्थ्य निदेशक ने मीडिया को बताया कि, "लैब रिपोर्ट ने हमारे संदेह की पुष्टि की है। भोजन को तुरंत खा लेना चाहिए था क्योंकि इसे लंबे समय तक रखना खतरनाक है।"
राज्य सरकार ने राजस्व संभागीय आयुक्त को मामले की जांच के आदेश दिए हैं।
इस बीच, विपक्ष ने यह कहते हुए अपना विरोध तेज कर दिया है कि लोगों को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के तहत भोजन के अधिकार से वंचित किया जा रहा है।
जिला प्रशासन द्वारा दिए गए खंडन के विपरीत, मृतकों के रिश्तेदारों ने आरोप लगाया है कि उन्हें लंबे समय से सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत मुफ्त राशन नहीं मिल रहा था, और इसलिए चावल की कमी के कारण महिलाओं को दलिया खाने के लिए मजबूर होना पड़ा।
स्थानीय लोगों ने दावा किया कि एनएफएसए (जिसके तहत गरीब परिवारों के प्रत्येक सदस्य को मासिक 5 किलो मुफ्त राशन दिया जाता है) के तहत जुलाई से सितंबर तक, तीन महीने के लिए 15 किलो चावल का कोटा उन्हें आखिरी बार जुलाई में मिला था, और इसकी अगली किस्त, जो अक्टूबर से दिसंबर की अवधि के लिए अक्टूबर में जारी होने वाली थी, नवंबर में ही जारी की गई थी।
फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट
हालांकि, एक आधिकारिक जांच का आदेश दिया गया है, एक गैर सरकारी संगठन, गणतंत्र अधिकार सुरक्षा संगठन (जीएएसएस), ओडिशा की दो सदस्यीय टीम ने दरिंगबाड़ी ब्लॉक के अंतर्गत गदापुर पंचायत के मंडीपंका गांव का दौरा किया।
टीम ने गांव के लोगों, पीड़ित परिवारों, स्थानीय राजनीतिक प्रतिनिधियों और प्रखंड विकास अधिकारी (बीडीओ) से बातचीत की।
उन्होंने प्रभाती पट्टामाझी, सुज़ाना पट्टामाझी और जिबंती पट्टामाझी से मुलाकात की, जो ब्रह्मपुर से इलाज के बाद घर लौटी थीं। इन तीनों ने, पांच अन्य लोगों के साथ, बताया कि उन्हें सुभद्रा योजना के तहत कोई भुगतान नहीं मिला है, जो ओडिशा में वर्तमान सरकार द्वारा महिलाओं के लिए सबसे ज़्यादा प्रचारित योजना है।
उन्होंने आरोप लगाया कि पूरे मंडीपांका गांव में किसी को भी सुभद्रा योजना का कोई लाभ नहीं मिला है। प्रभाती के पति तरण पट्टामाझी कंधा समुदाय से हैं। तरण ने बताया कि उन्हें कालिया योजना की पहली किस्त के रूप में केवल 5,000 रुपये मिले, जो अन्य सात परिवारों को नहीं मिले हैं। वह केरल में दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करता था और इस दुखद घटना के बारे में सुनने के बाद वापस लौट आया। जिबंती के पति भी केरल में काम करते थे, लेकिन बुढ़ापे के कारण अब वे वापस नहीं जा सकते हैं।
टीम को यह भी चौंकाने वाला तथ्य मिला कि प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत किसी को भी मकान नहीं मिला है।
कुछ परिवारों ने बताया कि उन्होंने अपनी बिना सिचाई वाली भूमि पर धान और मक्का की खेती की थी।
तरण ने बताया कि उन्होंने मक्का की खेती के लिए ब्राह्मणी गांव के एक साहूकार से 36 फीसदी वार्षिक ब्याज दर पर कर्ज़ लिया था।
ग्रामीणों ने जीएएस टीम को बताया कि हर साल अगस्त से दिसंबर के बीच उनके खाद्यान्न का भंडार खत्म हो जाता है। राशन न मिलने से भूखमरी की समस्या पैदा हो गई है।
गुठली खाने के एक विकल्प के रूप में
इस अवधि के दौरान अपनी खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए, ग्रामीण आम की गुठली इकट्ठा करके उसे जमा कर लेते हैं। वे गुठली को लकड़ी की आग (चूल्हे) पर रखते हैं ताकि फफूंद से खराब होने से बचाया जा सके। जब चावल और अन्य अनाज का स्टॉक खत्म हो जाता है, तो वे खाने के लिए गुठली का दलिया तैयार करते हैं। कठोर बाहरी भाग को कुचलकर नरम आंतरिक भाग को इकट्ठा किया जाता है, जिसे बारीक पीसकर चूर्ण बना लिया जाता है, कपड़े में लपेटा जाता है और 12 घंटे के लिए पानी में भिगोया जाता है। भीगे हुए गुठली के चूर्ण को उबालकर कम से कम दिसंबर तक दलिया बनाया जाता है।
उस दिन (1 नवंबर को) गीली गुठली के चूर्ण में फफूंद लगी हुई थी। मंडीपांका गांव की आठ महिलाओं ने दूषित गुठली को यह सोचकर खा लिया कि इसे भूनने से इसके हानिकारक प्रभाव खत्म हो जाएंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और नतीजतन यह त्रासदी हो गई।
राज्य सरकार के अधिकारियों का तर्क है कि यह पौष्टिक भोजन है। अगर ऐसा है, तो इसे चावल, दाल, अंडे और हरी सब्जियों के साथ स्कूली किताबों में संतुलित आहार या पोषण चार्ट में क्यों शामिल नहीं किया गया है? जीएएसएस के एक सदस्य ने उक्त सवाल उठाया।
यह सच है कि आदिवासी और दलित दोनों समुदाय आम की गुठली इकट्ठा करते हैं और नया अनाज आने पर बची हुई गुठली को फेंक देते हैं। रिपोर्ट में पूछा गया है कि क्या कोई अन्य प्रकार के अतिरिक्त खाद्य को फेंकता है?
मंडीपांका गांव में करीब 300 घर हैं, जिनमें मुख्य रूप से आदिवासी और दलित परिवार रहते हैं। गांव के लड़के-लड़कियां 14 या 15 साल की उम्र में केरल की ओर पलायन करना शुरू कर देते हैं। वर्तमान में गांव के करीब 300 बच्चे केरल में हैं।
पहले गांव के लोग जंगल से सियाली के पत्ते (बौहिनिया वहली) इकट्ठा करके क्षेत्रीय सहकारी समितियों के माध्यम से उचित मूल्य पर बेचते थे। व्यापारियों और राजनेताओं की मिलीभगत के कारण सहकारी समितियां बंद हो गई हैं, जिससे ग्रामीणों को सियाली के पत्तों और अन्य वन उत्पादों के उचित मूल्य से वंचित होना पड़ रहा है। वह आय लगभग समाप्त हो गई है।
लेखक, ओडिशा स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें–
Ghost of Kernel Revisits Odisha’s Kandhamal at Bitter Cost of Hunger
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