मूर्तिकार रामकिंकर : मूर्ति शिल्प में जीवन सृजक
आधुनिक भारतीय मूर्तिकारों में श्रेष्ठ शिल्पी रामकिंकर की मूर्ति 'कारखाने की ओर' (1965-66, 275 सेमी. ऊंची) ने सर्वप्रथम मेरा ध्यान आकर्षित किया। दो संथाल औरतें सिर पर भात की पोटली रखे, गीला कपड़ा पहने भागती हुई कारखाने की ओर जा रही हैं। एक बच्चा पैरों से लिपटा हुआ है। दोनों संथाल महिलाओं के चेहरे पर जो कठिन श्रम का उल्लास है वैसे उल्लसित चेहरे मैंने पटना संग्रहालय की 'चांवरधारिणी मूर्ति' के कक्ष में स्थित प्रस्तर की सुन्दर मूर्तियों में पाए हैं। रामकिंकर की इस मूर्ति शिल्प में पारम्परिक भारतीय मूर्तिकला की ठोस मांसल सुगढ़ता तो है ही लेकिन महिलाओं की आकृति में जो तीव्र गति है, वह मौलिक है। वास्तव में रामकिंकर ने भारतीय मूर्तिकला के सौंदर्य और जीवंतता से मानो आत्मसाक्षात्कार कर लिया था।
रामकिंकर की शबीह, सीमेंट ( स्टोन कास्ट) , 46×39×46 सेमी., मूर्तिकार: बलवीर सिंह कट्ट, साभार समकालीन कला प्रकाशन राष्ट्रीय ललित कला अकादमी
आज हम समकालीन भारतीय कला परिदृश्य पर नजर डालते हैं तो पाते हैं कि उनके समकक्ष कोई मूर्तिकार नहीं है। चाहे आप देश को विशालकाय मूर्तियों से भर दें , रामकिंकर की मूर्तियों की भांति, भाव-भंगिमा और गति नहीं ला सकते। दरअसल बुद्ध का रूप-आकार बनाने से पहले अपनी अनुभूति को उस भाव की पराकाष्ठा पर ले जाना होता है। वो धैर्य, सयंम और श्रम-भाव आज के भारतीय मूर्तिकारों में दुर्लभ है।
मील की ओर, 1965-66, 275 सेमी. (ऊंची), मूर्तिकार: रामकिंकर बैज, साभार समकालीन कला प्रकाशन राष्ट्रीय ललित कला अकादमी
आधुनिक कला संग्रहालय (नगमा) नई दिल्ली सैकड़ों बार जाना हुआ शोध कार्य के लिए, राष्ट्रीय- अंतर्राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी के अवलोकन के लिए। संग्रहालय की विथिका में देश के प्रख्यात मूर्तिकार बलवीर सिंह कट्ट द्वारा बनाई हुई रामकिंकर धड़ शबीह (पोट्रेट) पर बरबस ध्यान चला जाता। मूर्तिकला की दृष्टि से वह मूर्ति तो शानदार है लेकिन चेहरे पर वह कोमल, सहज सरल भाव नहीं है जो रामकिंकर के चेहरे पर हमेशा पाया जाता रहा है। मैंने रामकिंकर बैज को केवल छाया चित्रों में ही देखा है। वे प्रचार और प्रसिद्धि से दूर बेहद सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। आज उनके जैसे कलाकारों का नितांत अभाव है जो सृजन कर्म और छात्रों को प्रशिक्षित करने को ही अपनी उपलब्धि मानते हैं।
चित्रकला की तरह मूर्ति कला भी मेरा प्रिय विषय रहा है। इससे पहले पटना संग्रहालय में संरक्षित और स्थित प्रस्तर ( पत्थर ) की सुन्दर मूर्तियों को देखने और अध्ययन करने के लिए छात्र जीवन में लगभग रोजाना चक्कर लगाया करती थी ( 1987-91)। दरअसल दृश्यगत कलाओं में मूर्तिकला ही श्रेष्ठ कला मानी गयी है। क्योंकि वह त्रिआयामी है। भारत में मूर्तिकला का लम्बा वैभवशाली इतिहास रहा है। आज पुरानी मूर्तियों, भग्नावशेष आदि से ही भारत के प्राचीन समाज के विकास व इतिहास का पता चलता है।
ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान मूर्तिकला के क्षेत्र में अंग्रेज कलाकारों का ही आधिपत्य था। सार्वजनिक स्थल पर बनाए जानी वाली मूर्तियां ब्रिटिश मूर्तिकार ही बनाते थे। ढलाई की हुई शबीह मूर्तियां बड़े पैमाने पर बनाई जाती थीं।
रामकिंकर उस दौर में थे जब भारतीय कला आधुनिक कला की ओर उन्मुख हो रही थी। रामकिंकर ने अपने कलाकर्म का लंबा समय शांति निकेतन में व्यतीत किया था। उनका जन्म 1910 में पश्चिम बंगाल के बांकुरा में हुआ था। जहाँ उनका पारिवारिक जीवन कष्टपूर्ण और संघर्षपूर्ण था। उन्होंने अपनी कला शिक्षा शांति निकेतन में लिया था। नंदलाल बोस उनके गुरु थे। मूर्तिकला के साथ साथ उनकी चित्रकला पर भी पकड़ थी। कला शिक्षा प्राप्त करते ही उन्हें शांति निकेतन में ही मूर्तिकला विभाग का विभागाध्यक्ष बना दिया गया। वो छात्रों के कितने समर्पित कलाशिक्षक थे इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उनके कई शिष्य विश्वविद्यालयों में उच्च पदों पर आसीन हुए और आज भी शानदार जिंदगी व्यतीत कर रहे हैं। वहीं रामकिंकर ने अपनी वृद्धावस्था शांतिनिकेतन में ही भी बेहद कष्ट में गुजारा।
जहाँ कलाकार अपनी कृतियों का ख्याल जान से भी ज्यादा करते हैं, वहीं रामकिंकर अपनी ही कलाकृतियों के प्रति बेपरवाह थे। उन्होंने अपनी ज्यादातर मूर्तियाँ खुले आसमान के नीचे बनाईं। हद तो तब होता था जब अपने बनाए कैनवास चित्र को अपनी बारिश से टपक रहे जीर्ण-शीर्ण छप्पर को ढकने के लिए लगा देते थे। उन्होंने कभी अपने चित्रों की प्रदर्शनी नहीं की। साक्षात्कार भी बहुत कम दिया। आत्म प्रचार, प्रशंसा की अभिलाषा से सदैव दूर रहे। पिता द्वारा उनकी शादी पहले ही तय कर दी गई थी परंतु उन्होंने अपनी कला साधना में इसे व्यवधान समझा और शादी से इंकार कर दिया था। लेकिन वे प्रकृति के इस विधान में पूरा विश्वास किया करते थे कि जीवन सृजन निरंतर चलता रहना चाहिए। नारी उनके कृतियों में प्रेम, वात्सल्य आदि की प्रतीक थी। तभी तो वे बारम्बार उनकी मूर्ति व चित्र कृतियों में आती रहीं।
कला लेखक जवाहरलाल गोयल ने उनसे 1977 में साक्षात्कार लिया था जो ललितकला अकादमी का प्रकाशन, समकालीन कला के अंक-5- ; 1995 में प्रकाशित हुआ था।
रामकिंकर के चित्र और मूर्तियों में प्रकृति का सुन्दर सामंजस्य था। उन्होंने कहा ' मनुष्य तो प्रकृति के मध्य में ही है गाछ (पेड़) सजीव ...तना ....वही सजीव है ...पत्ता आयेगा ही। ......फूल आयेगा ही। .....असल जड़ है , तना है। '
रामकिंकर की अधिकांश मूर्तियां और चित्र संथाल आदिवासियों से संबंधित हैं। इसके बारे में पूछने पर उन्होंने कहा 'वो मजदूर वर्ग ......वो काम करता है .....उसके हाथ हैं ......सूरज .....धूप में ....दुख ....दारिद्र्य...वह अधिक कार्यशील है। कार्यशीलता अच्छी लगती है। ..... ललित .....कार्यशील जीवन । ( हाथ उठाकर दूर के मकानों, आफिसों की इमारतों की ओर इंगित कर ) ये डल लाइफ । ..... ये जो बैठे रहते हैं, यूँ ही लिखते रहते हैं .... इनका क्या। बैठे रहें ।.....ये जो व्यापार करते हैं (दूर बाजार की ओर इशारा कर) इनमें कार्यशीलता नहीं....जहाँ गया .....जिन्हें कर्मशील देखा ......उसे किया। ......उनमें रूप की अधिकता है।'
बहुतायत समकालीन भारतीय कलाकारों के कृतियों में प्रकृति और श्रम से दूर रहने के कारण यूरोपीय कलाशैली की भद्दी नकल है, कल्पनाशीलता का अभाव है इसलिए आकार (फार्म) की भी वो नकल ही करते हैं। निर्जीव तत्वों ( स्टिल लाइफ ) की बहुलता ही होती हैं। इसे वे फैशन के रूप में... फिजूल 'फार्म'।" कभी अमूर्त तो कभी अभिव्यंजनावादी शैली के रूप में अपनी कृतियों में सृजित करते हैं जो बहुत ज्यादा विकृत या विरूपित होते हैं। अनाकर्षक लगते हैं।
इससे संबंधित एक प्रश्न पर रामकिंकर कहते हैं --'यूरोपियन स्टिल लाइफ....वह फैशन है (व्यंग्य से) सारा काम ही स्थिर रहता है... 'फार्म ' उसमें वह स्वयं है .....कुछ कहना नहीं चाहता है । वह मुझे पसंद नहीं है । ......सबकुछ सजीव है ।..... उसको स्थिर करने की आवश्यकता नहीं । ......जो सजीव है वही तो कर नहीं पाते , ' स्थिर ' करने की क्या आवश्यकता? '
रचना कर्म के लिए क्या जरूरी है यह पूछने पर रामकिंकर ने कहा ' मन की उनमुक्तता .... फीलिंग ... अभिव्यक्ति के लिए ज्यादा जरूरी है।'
रामकिंकर से भारतीय शिल्पकला के प्रभाव के बारे पूछने पर कहा ' इसमें कैसी आत्मिक रचना हुई ...यही महत्वपूर्ण है ... इसे ही अपनाया । काम करने का तरीका नहीं ....। प्राच्य कला में बिंबों की विविधता ज्यादा है, यूरोपियन में कम। भारतीय कला में मानवीय रूपों का सरलीकरण ... । पाश्चात्य कला में मानव सदृश्य शरीर रचना ... नसें ...मांसपेशियाँ । ..पश्चिम में सरलीकरण बाद में हुआ।'
रामकिंकर से उनकी कृतियों के विस्तृत दायरे और बंगाल के कलाकारों की कृतियों में लोककला के प्रभाव के बारे में बात करने पर उन्होंने बताया कि किस तरह लोककला शैली में आर्डर मिलने पर उन्होंने दुर्गा की मूर्ति बनाई और कहा ... लोककला में असल वस्तु है कहानी। उसमें कहानी रहती है। ....यामिनी राय ने लोककला में बहुत बनाई ....पैसा कमाया खूब। सजावट के लिए अच्छी लगती है। अंग्रेजों ने सजावट के लिए खरीदी। लोककला में अवनीन्द्रनाथ और नंदबाबू पहले ही काम कर चुके थे। ....यामिनी बाबू ने इनसे सीख लिया। .....मैंने सब किया ....सब करके देखा। ...धार्मिक भी खूब किया, फिर छोड़ दिया। रूचि बदलती जाती है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने स्वयं की रचनाओं के बारे में पहले कहा था : ' अधिकतम सौ वर्ष तक रहेगी , उसके बाद नहीं। रूचि बदल जायेगी'।
रामकिंकर के बारे में प्रसिद्ध है कि वे कलासृजन में इतने धुन के पक्के थे कि जब उन्हें सृजन की इच्छा होती तो वे किसी भी माध्यम में काम कर बैठते थे। उन्होंने कई माध्यमों में जैसे जलरंग, खड़िया, तैल रंग और छापा में काम किया। माध्यम के चुनाव के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा ' कलाकार की सनक। ...जब जिस पर हाथ उठ जाये। पैसा न हो तो तैल रंग में कैसे काम होगा ? '
इसी प्रकार मूर्ति कला करने की इच्छा रहने पर पर्याप्त सामग्री और पैसा न रहने के बावजूद आधे अधूरे सामग्रियों से ही वे मूर्ति शिल्प खड़ी कर देते। जेठ की दुपहरी में भी प्रखर सूरज की रोशनी में वे मूर्तियां बनाते रहते थे। उन्होंने ज्यादातर विशालकाय मूर्तियां बनाईं।
काम करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण उन्होंने माना 'फिलिंग फार एवरीथिंग '( सभी कुछ के लिए अनुभूति जरूरी है )।......फीलिंग ( अनुभूति) .....रीजन इज फीलिंग, काज इज फीलिंग। ... यदि फीलिंग वीक है ....तब केवल निराशा। ...फील ...फील । ध्यान होने से फीलिंग होगी।'
तो ये थी एक मौलिक कलाकार की कला, वैसे आलम ये है कि भरपूर सुविधाओं के बावजूद बहुतेरे कलाकार, सारी उम्र बीत जाती है एक मास्टरपीस तक नहीं बना पाते हैं। यह विडंबना ही है।
- कर्म के प्रति प्रतिबद्धता।
जिस समय यह साक्षात्कार रामकिंकर से लिया गया वे सत्तर साल के हो गये थे और कठिन श्रम के कारण अक्सर बीमार रहते थे। उन्हें शांतिनिकेतन में ही अच्छा मकान रहने को दिया जा रहा था लेकिन अपने जीर्ण-शीर्ण घर को उन्होंने नहीं छोड़ा। वहां की हरियाली और खुला वातावरण उन्हें बहुत प्रिय था।
कलासृजन के बदले देश या समाज ने उन्हें क्या दिया? यह पूछने पर रामकिंकर ने खरी आवाज में कहा ' मैं उस तरह का भिखारी आदमी नहीं।....कुछ भी नहीं ( चाहिए) ....। मुझे सबकुछ कलाकर्म में ही मिल जाता है।'
वास्तव में रामकिंकर में वृद्धावस्था के बावजूद काम करने का जो जज्बा था वो आज के युवा कलाकारों के लिए एक चैलेंज है। वृद्धावस्था में ही जबकि कलाकार बमुश्किल कलासृजन करने पाते हैं, बेहद संरक्षण की जरूरत होती है। 1980 में रामकिंकर की मृत्यु हो गई थी।
रामकिंकर भारत के महान कलाकार थे। उन्होंने पश्चिमी अकादमिक शैली में कला शिक्षा ग्रहण की थी। लेकिन उन्होंने देशज शैली को अपने कलाकर्म में अपनाया और अपनी मौलिक शैली का विकास किया।
उन्होंने सीमेंट,प्लास्टर और पाषाण में मूर्तियां बनाईं। दिल्ली के रिजर्व बैंक आफ इंडिया के द्वार पर स्थित यक्ष और यक्षिणी की मूर्ति रामकिंकर की ही बनाई हुई है। संथाल परिवार, सुजाता आदि उनकी अन्य प्रसिद्ध मूर्तियां हैं। भारतीय मूर्तिकला में अमूल्य योगदान के लिए रामकिंकर को 1970 में भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। 1976 में राष्ट्रीय ललित कला अकादमी का फेलो बनाया गया।
(लेखिका डॉ. मंजु प्रसाद एक चित्रकार हैं। आप इन दिनों लखनऊ में रहकर पेंटिंग के अलावा ‘हिन्दी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं।
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