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'सख़्त क़ानून का विरोधियों के ख़िलाफ़ चुनिंदा रूप से इस्तेमाल सिर्फ़ निरंकुशता है' : संजय हेगड़े

वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने मनी लॉन्ड्रिंग  रोकथाम अधिनियम (PMLA), 2002 पर सुप्रीम कोर्ट के हालिया फ़ैसले पर न्यूज़क्लिक से बातचीत की।
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फ़ोटो: वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े। साभार: द प्रिंट

वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने मनी लॉन्ड्रिंग  रोकथाम अधिनियम (PMLA), 2002 पर सुप्रीम कोर्ट के हालिया फ़ैसले पर बातचीत की।

मनी  लॉन्ड्रिंग  रोकथाम अधिनियम, 2002 में 2019 में किये गये संशोधनों को बरकरार रखने वाले सुप्रीम कोर्ट के हालिया फ़ैसले से हड़कंप मच गया है। कई विपक्षी दल कहते रहे हैं कि इस क़ानून को लागू करने वाला प्राधिकरण,यानी कि प्रवर्तन निदेशालय उनके नेताओं और पार्टियों को निशाना बनाता है। वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने रश्मि सहगल से बातचीत में बताया कि आख़िर क्यों पीएमएलए मामलों में अपनायी जाने प्रक्रिया ही उत्पीड़न का एक साधन बन जाती है और ऐसे हालात में दोषसिद्धि महत्वहीन होकर क्यों रह जाती है। प्रस्तुत है संपादित अंश:

विपक्षी दलों ने 2019 में मनी लॉन्ड्रिंग रोकथाम अधिनियम, 2002 में किये गये संशोधनों को बरक़रार रखने वाले सुप्रीम कोर्ट के हालिया फ़ैसले को 'ख़तरनाक़' क़रार दिया है। इस बारे में आपका क्या सोचना है ?

अच्छा है कि राजनीतिक दल इस क़ानून से जुड़े ख़तरों को लेकर सचेत हो गये हैं, लेकिन उन्हें संसद में क़ानून बनाने के स्तर पर ज़्यादा सतर्क रहना चाहिए था। जब लोकसभा में इसे पारित किया गया था, तब इस पर बहुत ज़्यादा चर्चा नहीं हुई थी और राज्यसभा से बचने के लिए इसे बतौर धन विधेयक पारित करने का सवाल अभी भी तय किया जाना बाक़ी है। सांसद हमेशा यह उम्मीद नहीं कर सकते कि अदालतें उनकी कमियों को दुरुस्त करें।

250 से ज़्यादा याचिकाओं के ज़रिये 2019 के संशोधनों को चुनौती दी गयी थी, और बहुत से लोग उन संसोधनों को सख़्त पाते हैं—क्या आप इस बात से सहमत होंगे?

अदालत में कई याचिकायें थीं।इनमें राजनेताओं की इन दलीलों वाली याचिकायें भी शामिल थीं। लेकिन, अदालत महज़ इसलिए क़ानूनों में दखल नहीं देती, क्योंकि वे 'सख़्त' हैं। न्यायिक समीक्षा 'उत्पाद' से कहीं ज़्यादा प्रक्रिया से जुड़ी हुई है। आम तौर पर शक्ति, यानी विधायी क्षमता और मौलिक अधिकारों के संभावित उल्लंघन के सिलसिले में ही क़ानून की जांच-पड़ताल की जाती है। यह साफ़ है कि प्रक्रिया से जुड़ी दलील को एक बड़ी पीठ के लिए रखा गया है, और मौलिक अधिकारों के इन सवालों का जवाब शासनात्मक ज़रूरत के सिद्धांत को क़ायम रखते हुए दिया गया है।

सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले का असल मतलब यही है कि प्रवर्तन निदेशालय आरोपी को अपनी प्रवर्तन मामले की सूचना रिपोर्ट या ईसीआईआर की उस कॉपी को दिये बिना ही गिरफ़्तार कर सकता है, जिसे एक 'अंदरूनी दस्तावेज़' के रूप में देखा जायेगा। इस पहलू से जुड़ी चिंता यही है कि यह असंवैधानिक है। क्या आप सहमत हैं?

यह फ़ैसला इसे (ईसीआईआर की एक कॉपी नहीं दिये जाने को) संवैधानिक मानता है, लेकिन मुझे लगता है कि इस पहलू पर अदालत को ख़ुद भविष्य में किसी दिन पुनर्विचार करना होगा।

कुछ लोगों का कहना है कि अदालत की ओर से बरक़रार रखे गये पीएमएलए के इस प्रावधान से किसी ऐसे आरोपी को ज़मानत दिये जाने से इनकार को आसान कर देगा, जिसे अपनी बेगुनाही साबित करने के दोहरे बोझ का सामना करना पड़ता है। क्या इससे ज़मानत तक़रीबन नामुमिकन नहीं हो जाती है?

ये तो पीएमएलए के वे प्रावधान हैं, जिन्हें अदालत ने बरक़रार रखा है। इस समय सेवानिवृत्त हो चुके न्यायमूर्ति एएम खानविलकर ने ही ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) में इसी तरह के प्रावधानों को बरकरार रखा था, और वह लगातार बने रहे। यूएपीए के उस फ़ैसले को अन्य फ़ैसलों से कमज़ोर कर दिया गया है, और मुझे उम्मीद है कि पीएमएलए के इस फ़ैसले के साथ भी इसी तरह की प्रक्रिया अपनायी जायेगी।

क्या ईडी को वास्तव में आरोपी की सभी संपत्तियों को ज़ब्त करने का अधिकार है?

हां, इस इस क़ानून का तो यही प्रावधान है, जिसमें संपत्तियों को कुर्क किया जा सकता है। अगर अभियोजन पक्ष पर दोषसिद्धि हो जाता है, तो उन संपत्तियों को बेचा जा सकता है। हालांकि, बहुत कम मामलों में दोषसिद्धि हो पाती है, और ऐसे में कुर्की और जांच की प्रक्रिया ही सज़ा बन जाती है।

विपक्षी दलों ने सरकार पर राजनीतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ बदले की  भावना से प्रवर्तन निदेशालय के दुरुपयोग का आरोप लगाया है। वे इस सिलसिले में कई विपक्षी राजनेताओं का हवाला देते हैं, जिनके पाला बदल लेने के बाद प्रवर्तन निदेशालय उनके कथित कुकर्मों पर चुप हो जाता है। आप क्या सोचते हैं?

उस कथन में मूल तत्व दिखायी देता है। इन उदाहरणों को ही व्यापक रूप से जाना जाता है, और प्रवर्तन निदेशालय राजनीतिक अनुपालन के एक हथियार के रूप में अक्सर इस्तेमाल किया जाने वाला एक हथियार है। बेशक़, इसका इस्तेमाल राजनेताओं के ख़िलाफ़ किया जा रहा है। इस समय जेल में बंद राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) के मंत्री नवाब मलिक का ही मामला ले लीजिए। उनकी दो दशक पुरानी शिकायत थी, जिसके बाद वह शिकायत अब जाकर प्रवर्तन निदेशालय पहुंची है। इस एजेंसी ने उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की, उन्हें गिरफ़्तार किया और उनकी संपत्ति कुर्क कर ली। अगर प्रवर्तन निदेशालय, यानी ईडी उनके खिलाफ आरोप साबित करने में नाकाम रहता है, तो संपत्ति छोड़ दी जायेगी। प्रवर्तन निदेशालय की प्रक्रिया हिरासत में लिये जाने और उत्पीड़न का एक हथियार है और यह दोषसिद्धि पर केंद्रित नहीं है।

पिछले आठ सालों के दौरान प्रवर्तन निदेशालय की छापेमारी  26 गुना बढ़ गयी है, और इसने 3,010 मनी लॉंड्रिंग की तफ़्तीश की है, लेकिन सिर्फ़ 23 को ही दोषी पाया गया है। आपको लगता है कि यह एक विसंगति है?

पीएमएलए का खाक़ा इतने व्यापक रूप से तैयार किया गया है कि सभी तरह के अपराध इसके दायरे में आ जाते हैं। यहां तक कि किसी मामूली लड़ाई के सिलसिले में हत्या के प्रयास का मामला दर्ज होने पर भी प्रवर्तन निदेशालय आपके दरवाज़े पर दस्तक दे सकता है। इसलिए, कहीं ज़्यादा इस व्यापक क़ानून में स्वाभाविक रूप से कम सज़ा दर तो दिखायी देगी ही।

यह मत भूलिए कि पीएमएलए बुनियादी तौर पर नशीले पदार्थों और हथियारों से बनाये जाने वाले पैसों(से निपटने) के लिए बनाया गया था। लेकिन, सरकार ने हत्या के प्रयास सहित हर तरह के अपराध को इसके दायरे में ला दिया है। जब साधारण भारतीय दंड संहिता के अपराध ले आये जाते हैं, और इन्हें साबित नहीं किया जा सकता, तो इसकी (पीएमएलए की) पूरी इमारत तो भड़भड़ायेगी ही और ऐसा होना तय है।

लेकिन, इस हालत को सबने पैदा होने दिया। इसका क्या कारण हो सकता है?

पीएमएलए को संयुक्त राज्य अमेरिका के शराबबंदी के दौर के उस परिदृश्य में देखा जा सकता है, जहां माफ़िया ने शराब के अवैध व्यापार से बहुत पैसा कमाया और फिर उन पैसों को धन शोधन की उन सेवाओं में लगाया, जहां इस नक़दी का वैध इस्तेमाल किया जा सकता था। दरअस्ल, नशीले पदार्थों और आतंकवाद से बनाये गये अवैध धन को वैध बनाया गया था। लेकिन, अब सभी तरह के अपराधों और अपराधियों से जुड़े किसी भी धन को इसके दायरे में ले आया गया है। तमाम तरह के अपराधों को एक ही एजेंसी के नीचे ले आने के इस सिद्धांत का पालन करना ही दरअस्ल कम सज़ा दर के मुख्य कारणों में से एक है, जबकि प्रवर्तन निदेशालय को जो कुछ करने की ज़रूरत थी, वह है- ज़्यादा केंद्रित जांच-पड़ताल

क्या आप बता सकते हैं कि स्थानीय पुलिस या केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) के बजाय प्रवर्तन निदेशालय सक्रिय क्यों है?

पश्चिम बंगाल में (जहां प्रवर्तन निदेशालय ने तृणमूल कांग्रेस के नेता पार्थ चटर्जी पर छापा मारा है), राज्य सरकार ने सीबीआई को काम नहीं करने दिया। सीबीआई किसी मामले को तब तक अपने हाथ में नहीं ले सकती, जब तक कि उसे राज्य सरकार की इजाज़त नहीं मिलती है। लेकिन, उन्हें छुपाने के आधार पर इजाज़त देने से इनकार किया जा रहा था। जहां कहीं भी राज्य सरकार विपक्ष (के हाथो) में है, सीबीआई को व्यापक आधार पर इजाज़त दिये जाने से इनकार किया जाता रहा है, ऐसी स्थिति में प्रवर्तन निदेशालय को सामने लाया जाता है।

इसके बावजूद, विपक्ष सरकार पर राजनीतिक प्रतिशोध का आरोप लगा रहा है।

यह सही है, लेकिन ये सभी छापे और गिरफ़्तारियां सत्तारूढ़ दल के लिए बहुत अच्छा राजनीतिक प्रदर्शन हैं। इसकी मिसाल उस प्रकरण से दी जा सकती है,जिसमें  (कांग्रेस नेता) सोनिया गांधी और राहुल गांधी को पूछताछ के लिए तो बुलाया गया, लेकिन उन्हें गिरफ़्तार नहीं किया गया। इसके इर्द-गिर्द जो तमाम तरह के प्रचार मिलते हैं, उससे एक राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति होती है। इससे सरकार को राजनीतिक फ़ायदा मिलता है। एक बात भारतीयों को समझत में आती है और वे तब ग़ुस्से में आ जाते हैं, जब दूसरे लोग अवैध तरीक़ों से पैसा कमाते हैं। मेरा मानना है कि अत्याचार का मूल विरोधियों के ख़िलाफ़ चुनिंदा रूप से इन सख़्त क़ानूनों का इस्तेमाल किया जाना है। देखा जाये,तो विरोधियों को धमकियों के इस्तेमाल से समर्थकों में बदल दिया जाता है।

और विपक्ष तो 2019 के संशोधन को बरक़रार रखने वाले इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ एक समीक्षा याचिका दायर करने की योजना बना रहा है।

हां, लेकिन यह याचिका उन्हीं जजों के चैंबर में जायेगा, जिन्होंने इसे (संशोधन) मंज़ूरी दी थी। एक न्यायाधीश तो सेवानिवृत्त हो चुके हैं, लेकिन यह उसी पीठ के दो अन्य न्यायाधीशों के पास जायेगा। समीक्षा का आधार यह नहीं होगा कि फ़ैसला बेहद ग़लत था। बहुत ही संकीर्ण आधार पर समीक्षा होगी। (मसलन) विशेष रूप से छूट गये विषय अब न्यायाधीशों के सामने लाये जा रहे हैं, (जिन्हें) पहले बहुत सारे वैध कारणों से नहीं लाया गया था। आम तौर पर, सभी समीक्षाओं पर बिना मौखिक सुनवाई के ही चर्चा हो जाती है। यह तब होता है, जब बाद के न्यायाधीश को पिछली पीठ के फ़ैसले पर संदेह होता है कि इसे एक बड़ी पीठ को भेजा जाये- लेकिन यह एक अलग प्रक्रिया है।

सख़्त क़ानून तो पहले भी मौजूद रहे हैं, लेकिन क्या आपको लगता है कि ऐसे तमाम क़ानूनों पर सवाल उठाये जाने की ज़रूरत है?

सुप्रीम कोर्ट की भी अपनी सीमायें हैं। अदालत इस बात की जांच कर सकती है कि कोई क़ानून सही ढंग से पारित किया गया है या नहीं, और अगर नहीं, तो यह अप्रभावी हो जाता है। पीएमएलए को राज्यसभा में धन विधेयक के रूप में पारित करवा लिया गया था, क्योंकि सरकार के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं था। अगर सुप्रीम कोर्ट कहता है कि इसे सही ढंग से पारित नहीं करवाया गया है, तो यह क़ानून अप्रभावी हो जायेगा। उस स्थिति में संसद को इस क़ानून को फिर से बनाना होगा। और अब जबकि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पास संसद में बहुमत है, वह इसे पारित करा सकती है।

जहां तक मौलिक अधिकारों के क्षरण का सवाल है,तो मैं मानता हूं कि ऐसा इस प्रभाव की जांच किये बिना ही किया गया है। 1970 के दशक के दौरान आपातकाल को लागू करने के लिए कारण बताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया था कि अगर मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया है, तो आपके पास वे अधिकार नहीं हैं। कुछ न्यायाधीशों ने उस फ़ैसले पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि वे कार्यपालिका के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा कार्यपालिका की मानसिकता वाले फ़ैसले थे, लेकिन जब कोई धारणा किसी तकनीकी परिभाषा पर आधारित होती है, तो यह संविधान की भावना से ही चूक जाती है।

(रश्मि सहगल एक स्वतंत्र पत्रकार है।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

‘Essence of Tyranny is Harsh Laws Used Selectively Against Opponents’—Sanjay Hegde

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