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सियासतः अब ED के ज़रिये BJP के निशाने पर कुशवाहा और अखिलेश का PDA!

दरअसल, उत्तर प्रदेश की राजनीति में जिस तरह से पिछड़ों की गोलबंदी हुई है उसने बीजेपी और उसके पितृ संगठन आरएसएस को अंदर तक हिला दिया है।  
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बाबू सिंह कुशवाहा (बाएं), अखिलेश यादव (दाएं)

उत्तर प्रदेश के जौनपुर से समाजवादी पार्टी के सांसद बाबू सिंह कुशवाहा एक बार फिर बीजेपी के निशाने पर हैं। इसी 31 जुलाई 2024 को सपा मुखिया अखिलेश यादव ने बड़ी जिम्मेदारी देते हुए उन्हें संसद में पार्टी का उप नेता बना दिया। समझा जा रहा है कि इससे बौखलाई बीजेपी ने ईडी के जरिये लखनऊ के सरोजनी नगर इलाके में स्थित एक भूखंड में छापेमारी कर उससे उनका नाम जोड़ने की कोशिश की।

कुशवाहा लोकसभा में अपने समाज के कद्दावर नेता हैं। राजनीति के जानकारों के मुताबिक बीजेपी उन्हें नीचा दिखाकर मौर्य समाज को अपने पाले में बांधे रखना चाहती है। क्योंकि बीजेपी में मौर्य-कुशवाहा समाज के बड़े नेता कहे जाने वाले केशव प्रसाद मौर्य न सिर्फ अपने समाज, बल्कि समग्रता में वो पिछड़ी जातियों का भरोसा खो चुके हैं।

क्या है पूरा मामला

लखनऊ में बाबू सिंह कुशवाहा की तथाकथित ज़मीन पर बोर्ड लगाती ईडी

लखनऊ के सरोजनी नगर थाना क्षेत्र स्थित स्कूटर इंडिया का एक भूखंड है, जिसे प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने आठ बरस पहले अपने कब्जे में ले लिया था। वो जमीन बाबू सिंह कुशवाहा के बजाय किसी और के नाम पर पाई गई थी। इसी जमीन पर 2 अगस्त 2024 को प्रवर्तन निदेशालय के अफसरों का अमला एक नया साइन बोर्ड लेकर पहुंचा। साथ में बुलडोजर भी। छापे की कार्रवाई के रीक्रीएशन को ओरिजनल घटना करार देने की कोशिश की और मीडिया के सामने इस तरह से प्रचारित किया गया कि बाबू सिंह कुशवाहा की करोड़ों की संपत्ति सीज की जा रही है।

ख़बरिया चैनल ''आजतक'' लिखता है कि, ''राजधानी में ईडी ने बड़ी कार्रवाई को अंजाम दिया है। जौनपुर के सांसद बाबू सिंह कुशवाहा की करोड़ों की भूमि जब्त कर ली गई है। ईडी यहां अवैध निर्माण तोड़ने के लिए बुलडोजर लेकर पहुंची है।'' इसके आगे ख़बरिया चैनल आजतक कोई दूसरी जानकारी नहीं जुटा सका। अलबत्ता कुशवाहा पर लगे पुराने आरोपों की फेहरिस्त गिना डाली। भेड़चाल में चलते हुए लगभग यही कथानक सभी चैनलों पर देखने को मिला। किसी भी मीडिया संस्थान ने सच खोजने की कोशिश नहीं की।

'न्यूज़क्लिक' के लिए सच की पड़ताल करते हुए इस रिपोर्टर ने इस मामले में बाबू सिंह कुशवाहा से बात की तो पता यह चला कि जिस जमीन को सीज करने का ईडी ने दावा किया है, वह तो आठ साल पहले से ही उसने अटैच कर रखी है।

सांसद कुशवाहा कहते हैं, ''हमारा समाज सत्तारूढ़ दल के छल और फरेब को समझने लगा है। जिस समाज को हमेशा हाशिये पर रखा गया, वह अब अच्छी तरह से जान गया है कि बीजेपी उनके समाज के नेताओं को सिर्फ खिलौना समझती है, यूज करती है और फिर दूध से मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया करती है। ईडी की तथाकथित कार्रवाई से हमारी सेहत पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। सोची-समझी रणनीति के तहत हमें बदनाम करने के लिए कुत्सित खेल खेला गया। अब उनकी कारगुजारी से पर्दा हट गया है।''

गुजरे दिनों को याद करते हुए बाबू सिंह बताते हैं, '' मैं देश का इकलौता नेता हूं जिसे बिना सबूत और एक आरोपी के बयान के आधार पर अंडर ट्रायल चार साल तक जेल में गुजारने पड़े। सुप्रीम कोर्ट में जमानत की सुनवाई के समय भी सीबीआई अफसरों ने विरोध किया। आप रिकार्ड देखिए। मेरे खिलाफ कोई रिटन एविडेंस नहीं है। सारे आरोप ओरल हैं, गढ़े गए हैं। असली घोटालेबाजों और हत्यारों को बचाने के लिए ही मेरे ऊपर झूठे आरोप मढ़े गए। कितनी अचरज की बात है कि यूपी के तीन ईमानदार और नामी डॉक्टरों की हत्या की आज कोई चर्चा न मीडिया करती है, न नेता करते हैं। हत्या की फाइलें दफना दी गईं और एनआरएचएम घोटाला जिंदा रह गया।''

''यूपी की सत्ता में बीजेपी को लाने में पिछड़ों और दलितों की अहम भूमिका रही और डबल इंजन की सरकार ने इसी वर्ग के लोगों का सबसे ज्यादा नुकसान किया, सबसे ज्यादा उत्पीड़न किया। इस समुदाय को समाजिक सम्मान तो दिया नहीं, इनका आरक्षण और ढेरों अधिकार भी छीन लिए। इसके चलते ओबीसी और एससी-एसटी के लोग करीब पचास बरस पीछे चले गए हैं। मेरी सफलता को मत आंकिए, जितनी बार गिरा हूं और उठा हूं उस बल को आंकिए। मेरी जिंदगी के उन पलों को गिनिए जिनमें समाज के आखिरी आदमी के लिए हमने क्या कुछ नया और अलग किया है। पिछड़ों की मुश्किल भरी जिंदगी को लेकर मेरे मन में जो ताकत है…, जो धीरज है…, जो प्रतिबद्धता है…, उसी के दम पर गरीबों के आर्थिक और सामाजिक उत्थान के लिए संघर्ष कर रहा हूं।''

सुनियोजित था ईडी का खेल!

दरअसल, उत्तर प्रदेश की राजनीति में जिस तरह से पिछड़ों की गोलबंदी हुई है उसने बीजेपी और उसके पितृ संगठन आरएसएस को अंदर तक हिला दिया है। साल 2027 में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी के हाथ में अब कोई ऐसा अस्त्र नहीं बचा है, जिससे वो सपा मुखिया अखिलेश यादव के साथ पीडीए की नई उभरती साझेदारी को तोड़ सके। समझा जा रहा है कि इससे हताश बीजेपी ने विपक्ष के उन नेताओं को अपमानित करने वाले हमले शुरू किए हैं, जिनके पास अखिलेश के मिशन को आगे बढ़ाने की बड़ी जिम्मेदारी है।

बाबू सिंह कुशवाहा के लिए बीजेपी ने ख़ूब बिछाए थे फूल, फिर बना दिया विलेन!

बनारस से वरिष्ठ पत्रकार कुमार विजय कहते हैं कि लखनऊ में ईडी के तथाकथित छापे की कार्रवाई के नेपथ्य में झांकेंगे तो पाएंगे के मौर्य-कुशवाहा समाज के कद्दावर नेता बाबू सिंह कुशवाहा को बदनाम करने का खेल अप्रत्याशित नहीं है। एक बड़ी सोची-समझी रणनीति के तहत उन्हें बदनाम करने के लिए यह कदम उठाया गया। विजय कहते हैं, ''मौर्य-कुशवाहा समाज के युवा तबके ने पिछले लोकसभा चुनाव में जिस तरह से अपनी धारा बदली है, उससे कई बातें साफ हुई हैं। उन्हें यह भी समझ में आ गया कि बीजेपी और संघ के साथ उनका सम्मान सुरक्षित नहीं है। बीजेपी, मौर्य-कुशवाहा समाज के नेता केशव प्रसाद मौर्य को आगे करके उनका वोट अपने पाले में लेकर आई, लेकिन बाद में लोगों को यह समझ में आ गया कि यह व्यक्ति सिर्फ संघ की कठपुतली है।''

''बीजेपी के नेता केशव प्रसाद मौर्य का चेहरा, चरित्र और सोच तीनों चीजें मौर्य-कुशवाहा समाज ही नहीं समूची पिछड़ी जाति के हक और सम्मान के खिलाफ हैं। ऐसे में अखिलेश यादव ने पहले स्वामी प्रसाद मौर्य को अहमियत दी और जब वो पीडीए के खांचे में फिट नहीं हुए तो उन्होंने बाबू सिंह कुशवाहा पर दांव खेला। पूर्वांचल में जनता के सामने समाजवादी चेहरे के रूप में उन्हें सामने किया। अपनी समाजवादी सोच के चलते बाबू सिंह कुशवाहा ज्यादा ईमानदारी और सजगता के साथ अपने समाज के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। यह समाज अब उन्हें अपना असली नेता मानने लगा है।''

सपा के फ्रंट पर अब पिछड़े-दलित

वरिष्ठ पत्रकार कुमार विजय यह भी कहते हैं, ''अखिलेश यादव ने भविष्य की राजनीति में मौर्य-कुशवाहा समुदाय को पूरा सम्मान और उनकी राजनीतिक भागीदारी को आगे बढ़ाने के लिए बाबू सिंह कुशवाहा को संसद में पार्टी का उप नेता बनाकर एक ऐसी रेखा खींच दी है जिसे पार कर पाना फिलहाल बीजेपी के बस में नहीं दिखता है। ऐसे में उसने चोर दरवाजे से कुशवाहा को बदनाम करने की मुहिम शुरू कर दी है। 

लखनऊ में जिस भूखंड को ईडी सालों पहले अपने कब्जे में ले चुकी थी और पूरा मामला कोर्ट हैं, वहां बीजेपी ने मीडिया के सामने तमाशा खड़ा कराया। पुराने बैनर पर नया स्टीकर चस्पा करके उन्हें बदनाम करने का दुष्चक्र रचा।''

''राजनीतिक और सामाजिक तौर पर बीजेपी की यह चाल भी उल्टी पड़ने लगी है, क्योंकि मौर्य-कुशवाहा समाज बीजेपी के मंसूबे भांप चुका है। यह समाज पहले से ही केशव मौर्य को लगातार अपमानित किए जाने से क्षुब्ध था, वहीं कुशवाहा पर ताजा-तरीन सियासी हमले से अब पूरी तरह बीजेपी के खिलाफ खड़ा होता दिख रहा है। दिल्ली ने जिस तरह से केशव प्रसाद मौर्य को सीएम योगी से लड़ने के लिए स्ट्राकर बना रखा है, उससे मौर्य की स्थिति कैरम की गोटियों जैसी हो गई है। उनके सामने कोई रास्ता नहीं, सिर्फ गड्ढे हैं और वह जिधर भी जाएंगे, जरूर गिरेंगे।

कुमार विजय कहते हैं, ''यह कितना हास्यास्पद है कि जिस केशव प्रसाद मौर्य ने अपनी अध्यक्षता में यूपी में बीजेपी को सत्ता दिलाई थी, उसी केशव प्रसाद को सत्ता मिलने के बाद हिकारत से किनारे कर दिया गया। साथ ही आरएसएस ने अपना सवर्णवादी चेहरा उघाड़ते हुए भगवाधारी योगी को यूपी की कुर्सी सौंप दी। फिलहाल दो अगस्त को लखनऊ में हुए तमाशे का बड़ा प्रभाव आने वाले समय की समूची राजनीति पर पड़ने जा रहा है। वह दिन दूर नहीं जब मौर्य-कुशवाहा समाज बाबू सिंह कुशवाहा के नेतृत्व में पिछड़ी जाति समुच्य का मुखर चेहरा बनने जा रहा है। बीजेपी से पिछड़ी जाति को दूर ले जाने वाली डगर का निर्माण भी अब कुशवाहा करने जा रहे हैं। हमें लगता है कि पीडीए को मुकम्मल स्वरूप देने और संघ की सोच को खारिज करने के लिए अखिलेश यादव अब बहुजन समाज के नेताओं को फ्रंट पर लाने का काम कर रहे हैं। इसमें खासतौर पर पिछड़े तबके के बाबू सिंह कुशवाहा और दलित समाज के अयोध्या के सांसद अवधेश प्रसाद को जिस तरह से अगली कतार में लाकर खड़ा किया है उसने बीजेपी की नींद हराम कर दी है। खास बात यह है कि इन दोनों नेताओं ने आम लोकसभा चुनाव में सामान्य सीट पर बीजेपी के दिग्गजों को करारी मात दी है।''

बाबू सिंह कुशवाहा

किसकी राह के कांटे हैं बाबू सिंह

मायावती सरकार में मंत्री रहे बाबू सिंह कुशवाहा के साथ छल-फरेब का खेल कोई नया नहीं है। उनके बसपा छोड़ने के बाद भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने यूपी में बीजेपी के वरिष्ठ नेता विनय कटियार की सलाह से कुशवाहा को पार्टी में शामिल कराने का निर्णय लिया। बाद में प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही ने इस फ़ैसले को लागू कराया। इसपर बीजेपी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने भी हामी भरी थी। यह वाक्या फरवरी 2012 का है। 

कुशवाहा को बीजेपी की सदस्यता दिलाते पार्टी के नेता

उस समय पूर्वांचल में बीजेपी के मुख्य स्तंभ सांसद योगी आदित्यनाथ ने कुशवाहा को पार्टी में शामिल किए जाने के निर्णय को “शरारतपूर्ण, दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण” बताते हुए साफ़ इशारा किया है कि अगर उन्हें बाहर नहीं किया गया तो वह खुद पार्टी छोड़ देंगे।

योगी आदित्यनाथ के साथ बीजेपी के अगड़े तबके के सभी नेताओं ने पार्टी नेतृत्व पर दबाव बनाना शुरू कर दिया कि कुशवाहा को फ़ौरन दल से निकाल दिया जाए, लेकिन तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी इसके लिए फौरी तौर पर तैयार नहीं थे। दरअसल, साल 2012 से पहले बाबू सिंह कुशवाहा पिछड़ों के कद्दावर नेता थे और वो सपा के मुकाबले बीजेपी के पक्ष में पिछड़े समाज की गोलबंदी करने की कुव्वत रखते थे। बीजेपी के कई सवर्ण नेताओं को यह बात खटक रही थी। उस समय भी कुशवाहा को बदनाम करने के लिए मीडिया के माध्यम से तथाकथित घोटाले की साजिश रची गई। बीजेपी नेतृत्व ने कई बार यह सफाई देने की कोशिश की कि कुशवाहा को चुनाव में टिकट नहीं दिया जाएगा। फिर भी बगावत के सुर थमे नहीं।

दरअसल, आरएसएस के नागपुर मुख्यालय की सहमति के बाद कुशवाहा को बीजेपी में शामिल कराया गया था। संघ का आकलन था कि बाबू सिंह कुशवाहा को पार्टी में लेने से पिछड़े वर्ग में भाजपा की पैठ बढ़ेगी और चुनाव में फायदा होगा। लेकिन समझा जाता है कि योगी आदित्यनाथ और मेनका गांधी के अलावा लालकृष्ण आडवाणी, डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी, कलराज मिश्र, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली को बाबू सिंह कुशवाह रास नहीं आ रहे थे। योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर में एक प्रेस कांफ्रेंस करके यह तक कह दिया कि कुशवाहा, स्वास्थ्य विभाग में घोटालों के लिए जिम्मेदार हैं, जिसके कारण जापानी बुखार से इस इलाके में सैकड़ों बच्चों की मौतें हुई हैं। हमें सोचना पड़ेगा कि ऐसी स्थिति में हम सार्वजनिक जीवन में रहें या राजनीति से अलग हो जाएं। एक ओर बीजेपी भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल की बात करती है और दूसरी ओर कुशवाहा जैसे लोगों को पार्टी में शामिल करती है तो ''हम किस मुंह से जनता के बीच वोट मांगने जाएंगे।''

योगी के कड़े विरोध के चलते सूबे में करीब 15 फीसदी मौर्य, कुशवाहा, शाक्य, कोईरी, कछवाहा, काछी, सैनी समुदाय के वोटरों को नजरअंदाज करते हुए बीजेपी ने पांच फीसदी सवर्ण वोटरों वाले नेताओं की बातों को अहमियत दी। नतीजा, बीजेपी नेतृत्व के दबाव में कुशवाहा को पार्टी छोड़नी पड़ी। सियासत का खेल देखिए, जिस कुशवाहा को बीजेपी ने चार दिन के अंदर बाहर का रास्ता दिखा दिया,  वहीं शारदा-नारदा घोटाले में फंसे दागदार चेहरे मुकुल रॉय को कमांडो सुरक्षा देकर उन्हें 'सत्ताधारी दल का वीवीआईपी' बना दिया।

मुकुल रॉय को बंगाल में ममता बनर्जी की काट के लिए लाया गया था, इसलिए बीजेपी के भीतर कोई सुगबुगाहट नहीं हुई। बीमार अटल बिहारी वाजपेयी मौन हो गए और आडवाणी मार्गदर्शक मंडल में भेज दिए गए, जहां से वो सिर्फ देख सकते हैं, कुछ बोल नहीं सकते थे। बाद में बीजेपी ने भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे सुखराम को जब अपनी पार्टी में शामिल किया तो प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने उनके बचाव में बच्चन की कविता सुना दी है, ''जो बीत गई, सो बात गई।''

इस 'षड्यंत्र' के पीछे कौन?

यूपी में समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव के साथ पीडीए के बैनर तले पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग अब मजबूती के साथ खड़े हैं। सत्तारूढ़ दल जानबूझकर षड्यंत्र रचकर पीडीए की पहली कतार के नेताओं को अपमानित करने का खेल कर रहा है। लखनऊ के सियासी ड्रामे पर टिप्पणी करते हुए बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार कहते हैं, ''जिस सोशल इंजीनियरिंग के जरिये बीजेपी खुद को यूपी में अपराजय स्थिति में पाती थी, उसमें अखिलेश यादव या फिर उससे आगे बढ़कर कहा जाए कि इंडिया ब्लाक ने जबर्दस्त सेंधमारी कर दी है। बीजेपी का समूचा चक्रव्यूह, न सिर्फ यूपी, बल्कि पूरे देश में बुरी तरह दरक गया है। इस चक्रव्यूह का मुकाबला ईडी से करने की बीजेपी अंतिम कोशिश कर रही है।''

''कितनी अचरज की बात है कि एक तरफ जहां सपा सांसद बाबू सिंह कुशवाहा के लखनऊ स्थित उनके तथाकथित भूखंडों की ओर बुलडोजर की रवानगी होती है, वहीं दूसरी तरफ प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी का वह ट्वीट राजनीतिक हलकों में हलचल मचा देता है कि संसद में उनके भाषण से बौखलाई मोदी सरकार की ईडी कभी भी उनके यहां छापेमारी कर सकती है।''

प्रदीप कहते हैं, ''दोनों घटना को इस नजरिये से देखना गैर मुनासिब नहीं होगा कि ऐसा करके बीजेपी ने अपनी ताकत को आंकने की कोशिश की, लेकिन फीडबैक मनमाफिक न मिलने पर आगे के कदम पर ब्रेक लगा दिया गया। सच तो यह है कि बीजेपी और उसकी डबल इंजन सरकार के निशाने पर वो सभी ताकतें हैं जो जातीय जनगणना के मुद्दे को लेकर हमलावर हैं। बीजेपी की ईडी, सीबीआई और बुलडोजर कार्रवाई पीडीए की दिनों दिन मजबूत होती किलेबंदी को भेदने की नाकाम कोशिश के अलावा और कुछ भी नहीं है। इस तरह के हर कदम पीडीए को और मजबूत बनाने वाले साबित होंगे। पिछड़ा, अति-पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय को यह बात देर से ही सही, मगर पूरी दुरुस्तगी के साथ समझ में आ गया है कि आरएसएस और बीजेपी देश में शोषित-वंचित समाज के अधिकारों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से खत्म करने पर आमादा है।''

बीजेपी की छटपटाहट का राज

यूपी की सियासत में सांसद बाबू सिंह कुशवाहा का कद बढ़ने से बीजेपी इसलिए छटपटा रही है क्योंकि सूबे में शाक्य, सैनी, कुशवाहा और मौर्य समाज आबादी के हिसाब से काफी असरदार है। यूपी में यादव और कुर्मियों के बाद ओबीसी में तीसरा सबसे बड़ा जाति समूह मौर्य समाज का है। पश्चिमी यूपी के जिलों में इनकी सैनी समाज के रूप में पहचान है, तो बृज से लेकर कानपुर देहात तक ये शाक्य समाज के रूप में जाने जाते हैं। बुंदेलखंड और पूर्वांचल में कोइरी-कुशवाहा के नाम से, तो अवध, रुहेलखंड व पूर्वांचल के कुछ जिलों में मौर्य नाम से यह समाज जाना जाता है। राजनीतिक क्षेत्र में इस समाज का प्रतिनिधित्व तेजी से बढ़ रहा है। साल 1931 की जातीय जनगणना के आधार पर देखा जाए तो यूपी में इनकी आबादी सिर्फ आठ फीसदी और मंडल आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक यह 15 से 16 फीसदी के आसपास हैं।

यूपी में कुशवाहा, मौर्य, सैनी व शाक्य समुदाय के नेताओं को कैबिनेट मंत्री बनाने का सिलसिला बहुजन समाज पार्टी की सरकार से शुरू हुआ था। वैसे भी इस समुदाय का वोट किसी एक पार्टी के साथ उत्तर प्रदेश में कभी नहीं रहा है। यह समाज चुनाव दर चुनाव अपने हक के परिप्रेक्ष्य में अपनी निष्ठा को बदलता रहा है। आजादी के बाद कांग्रेस का परंपरागत वोटर रहा, तो लोकदल और जनता दल के भी साथ गया। इसके बाद सपा और बसपा के बीच अलग-अलग क्षेत्रों में बंटता रहा और साल 2017 में इस समुदाय ने बीजेपी के पक्ष में झूमकर मतदान किया। एक पुरानी कहावत चर्चित है कि सियासत में कोई किसी का स्थायी दोस्त अथवा दुश्मन नहीं होता है? कभी बसपा सुप्रीमो मायावती के टॉप लीडरों में शुमार रहे बाबू सिंह कुशवाहा आज सपा के साथ हैं। जौनपुर सीट से बीजेपी कैंडिडेट कृपा शंकर सिंह को 99 हजार से ज्यादा के वोटों के अंतर से चुनाव हराकर पिछड़े समुदाय को एक बड़ा संदेश दिया है।

कौन हैं बाबू सिंह कुशवाहा

बाबू सिंह कुशवाहा का जन्म 7 मई 1966 में हुआ था। वो बांदा जिले के पखरौली गांव के एक किसान परिवार से आते है। उन्होंने 1985 में स्नातक किया और इसके बाद अप्रैल 1988 में वह बसपा संस्थापक कांशीराम के संपर्क में आए। कांशीराम ने उन्हें दिल्ली बुला लिया। यही से बाबू सिंह कुशवाहा के राजनीतिक जीवन की शुरुआत हो गई थी। छह महीने के अंदर ही उन्हें पदोन्नति देकर लखनऊ कार्यालय में संगठन कार्य के लिए भेज दिया गया। साल 1993 में बाबू सिंह बांदा में बसपा के जिला अध्यक्ष बनाए गए और साल 2003 में उन्हें बसपा सरकार में पंचायती राज मंत्री की जिम्मेदारी दी गई थी।

साल 2007 में बहुजन समाज पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनने पर बाबू सिंह कुशवाहा को खनिज, नियुक्ति और सहकारिता जैसे महत्वपूर्ण विभाग दिए गए। जब परिवार कल्याण विभाग बना तो यह विभाग भी उन्हें सौंप दिया गया। मायावती जब अपने राजनीतिक करियर के शिखर पर थीं, तब स्वामी प्रसाद मौर्य और नसीमुद्दीन सिद्दीकी के साथ बाबू सिंह कुशवाहा भी बहुजन समाज पार्टी के तीन स्तंभों में से एक थे। कुशवाहा 27 साल तक बहुजन समाज पार्टी के सदस्य रहे। उन्हें कई सालों तक मायावती का सबसे करीबी माना जाता रहा। वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य थे और दो बार कैबिनेट मंत्री बनाए गए।

मायावती ने सरकार में नंबर दो के मंत्री रहे बाबू सिंह कुशवाहा तथाकथित घोटालों के आरोपों में कई सालों तक जेल में रहे। रिहाई के बाद साल 2016 में उन्होंने राजनीतिक दल जन अधिकार पार्टी का गठन किया। साल 2022 में उनकी पार्टी विधानसभा चुनाव में गठबंधन भागीदारी परिवर्तन मोर्चा का हिस्सा थी। बाबू सिंह की पत्नी शिवकन्या कुशवाहा ने साल 2014 में सपा के टिकट पर गाजीपुर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था जिसमें उन्हें 27.82 फीसदी वोट मिले थे और वह कुछ वोटों से पराजित हो गई थीं।

कुशवाहा का क्यों बढ़ा कद

समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव का पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक यानी पीडीए का नारा लोकसभा चुनाव-2024 में खूब हिट रहा। इसके दम पर उन्होंने बीजेपी को बुरी तरह झकझोर कर रख दिया। पीडीए के बाद अब अखिलेश इसमें ब्राह्मण को भी जोड़ने लगे हैं। यानी पीडीए का एक्सटेंशन दिखाई देने लगा है। लखनऊ के विधान मंडल दल के अलावा संसद में संसदीय दल की अलग-अलग नियुक्तियों से यह साफ है कि अखिलेश यादव अब साल 2027 की तैयारी में PDA + यानी पीडीए से आगे बढ़कर एबीडीपी यानी अल्पसंख्यक ब्राह्मण, पिछड़े और दलितों का कंबीनेशन बनाने में जुट गए हैं। इसे जातीय विभाजन नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता की राजनीति के रूप में देखा जा रहा है।

सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने हर किसी को अचरज में डालते हुए विधानसभा में माता प्रसाद पांडेय को नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी सौंपी। माता प्रसाद ब्राह्मण बिरादरी से आते हैं और पुराने समाजवादी हैं। वह मुलायम सिंह यादव के नजदीकी और सपा के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं। दूसरी नियुक्तियों में मुस्लिम समाज से आने वाले महबूब अली को मुख्य सचेतक और कमाल अख्तर को उप-मुख्य सचेतक बनाकर अपने मुस्लिम वोट बैंक को उन्होंने बड़ा मैसेज दिया है। कुर्मी बिरादरी से आने वाले आरके वर्मा को उप-सचेतक और मोहम्मद जसमेर अंसारी को विधायक दल का उपनेता बनाया गया है।

अखिलेश ने यादव वोट बैंक को मजबूत करने के लिए लाल बिहारी यादव को विधान परिषद में सदन का नेता बनाया तो किरण पाल कश्यप को मुख्य सचेतक की जिम्मेदारी सौंपी। कायस्थ जाति से आने वाले आशुतोष सिन्हा को सचेतक का दायित्व दिया। पीडीए से आगे बढ़कर उन्होंने इसमें ब्राह्मण और कायस्थ को जोड़ने की कोशिश की है। ये वे दोनों ऐसी जातियां हैं, जो भाजपा की कोर वोटर मानी जाती हैं। अब अखिलेश उन्हें भी अपनी ओर खींचने की कोशिश में जुट गए हैं।

दलित समाज में यह बात अंदर तक पहुंची है कि अखिलेश यादव जब संसद पहुंचे तो अपने साथ हाथों में हाथ डालकर अयोध्या के सांसद अवधेश प्रसाद को ले गए, जो हमेशा उनके और राहुल गांधी के बीच में आगे की पंक्ति में बैठते हैं। नेपथ्य में देखेंगे तो पाएंगे कि कुशवाहा-मौर्य बिरादरी मायावती से छिटकी तो बीजेपी के पास आई। अखिलेश ने अब कुशवाहा को लोकसभा में सदन का उपनेता बना दिया, जहां उनके बाद बाबू सिंह कुशवाहा का नंबर दूसरा होगा। वहीं, आजमगढ़ से सांसद और अपने भाई धर्मेंद्र यादव को उन्होंने लोकसभा में मुख्य सचेतक, जबकि अवधेश प्रसाद को अधिष्ठाता मंडल का सदस्य बनाया है। इतना ही नहीं, यूपी के सबसे पिछड़े जिले सोनभद्र के पूर्व विधायक अविनाश कुशवाहा को सपा मुखिया ने राष्ट्रीय सचिव पद की जिम्मेदारी देकर एक बड़े वोटबैंक को गोलबंद करने की कोशिश की है।

नई सोच, नया नज़रिया

वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, ''बाबू सिंह कुशवाहा ने अपनी राजनीतिक पारी कांशीराम के नेतृत्व में तब शुरू की थी जब उन्होंने नारा दिया था, जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागीदारी। उस दौर में मौर्य-कुशवाहा समाज का अपना कोई नेता नहीं था, जो उनके हक और सम्मान की लड़ाई लड़ सके। कुशवाहा ने कांशीराम के आंदोलन के साथ खड़े होकर पिछड़ों व दलित के साथ अपने समुदाय के हक के लिए लड़ाई लड़नी शुरू की। बाद में वो बीएसपी के ताकतवर नेता के रूप में उभरे और अपनी सोशल मैनेजमेंट की बदौलत, दलित पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय को बीएसपी के पाले में खड़ा करने में कामयाब रहे। साथ ही सबसे हाशिये के समाज की नेता मायवती को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया।''

''मायावती ने जब सत्ता के लिए बहुजन समाज के हितों को मनुवादी पार्टी के चरणों में गिरवी रखने का काम शुरू किया तब बाबू सिंह कुशवाहा ने अपमान सहने के बजाय नया रास्ता तलाशना बेहतर समझा। खास बात यह है कि जिस कुशवाहा के सोशल मैनेजमेंट के दम पर मायावती चार मर्तबा मुख्यमंत्री रहीं, उन्हीं के पल्ला झाड़ते ही समूची पार्टी भरभराकर ढह गई। उसके बाद वो सत्ता तक पहुंचना तो दूर, अपने बलबूते अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझती नजर आ रही हैं। बीएसपी आज उस पायदान पर खड़ी है जिसका यूपी की विधानसभा में सिर्फ एक विधायक बचा है और वह भी बहुजन समाज का नहीं है।''

यूपी की सियासत की नब्ज टटोलते हुए वरिष्ठ पत्रकार राजीव सिंह कहते हैं, ''सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव मौर्य समाज को यह स्पष्ट रूप से संदेश देना चाहते हैं कि बीजेपी उनके नेताओं को सिर्फ बिजुका बनाकर टांगे रखना चाहती है और उन्हें किसी तरह का न तो सम्मान देना चाहती है, न महत्वपूर्ण निर्णयों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करती है। अखिलेश ने बाबू सिंह कुशवाहा और अवधेश प्रसाद को खास अहमियत देकर यह साफ कर दिया है कि अब दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक अलायांस का सम्मान साझा सम्मान होगा। इनकी लड़ाई भी साझी तौर पर लड़ी जाएगी।'' 

राजीव कहते हैं, ''सपा पूर्वांचल समेत समूचे यूपी में मौर्य-कुशवाहा समाज की सम्मानजनक राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित करने की कोशिश कर रही है। लखनऊ में दो अगस्त को हुए सियासी तमाशे ने बीजेपी और आरएसएस की उन चालों को अब पूरी तरह बेनकाब कर दिया, जिसमें वो सरकारी मशीनरी के कंधे पर रखकर अपनी जातीय घृणा की बंदूक चलाना चाहते थे। अब बीजेपी को यह सोचना होगा कि वो पांच-छह फीसदी आबादी वाले सवर्ण नेताओं के इशारे पर काम करेगी या फिर अस्सी फीसदी वाले पीडीए के बारे में भी कुछ नया सोचेगी? ''

सभी तस्वीरें- सोशल मीडिया से साभार

(विजय विनीत बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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