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महाराष्ट्र : महायुति की महाविजय के मायने 

महायुति की इस महाविजय के पीछे मुख्य रूप से जो फैक्टर निर्णायक साबित हुए उनमें हैं- लाड़की बहना, बटेंगे तो कटेंगे, संगठन की दक्षता और 'सपनों के शहर' के प्रति दिखाया गया आकर्षण।
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महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार को पलटते हुए बीजेपी की अगुवाई वाले महायुति गठबंधन ने राज्य के विधानसभा चुनाव में बड़ी जीत हासिल की है। इस परिणाम के बाद महाराष्ट्र में उसके विरोधियों को अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। महायुति की इस महाविजय के पीछे मुख्य रूप से जो फैक्टर निर्णायक साबित हुए उनमें हैं- लाड़की बहना, बटेंगे तो कटेंगे, संगठन की दक्षता और 'सपनों के शहर' के प्रति दिखाया गया आकर्षण।

इस साल लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के महज पांच महीने में ही राज्य की तस्वीर पूरी तरह बदल गई है। बीजेपी के नेतृत्व वाले महायुति गठबंधन ने विधानसभा की कुल 288 में से 230 से अधिक सीटें आसानी से पार कर लीं। अकेले बीजेपी को 25 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले हैं, जबकि पूरे गठबंधन को 48 प्रतिशत वोट। 
चुनाव के बाद सर्वे हुए जिसमें ऐसे संकेत मिल रहे थे कि महायुति जीतेगी। लेकिन, उससे भी आगे बढ़ते हुए बीजेपी, शिवसेना (एकनाथ शिंदे) और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (अजित पवार) ने इतनी बड़ी जीत हासिल की है कि राज्य में विपक्षी दल का कोई नेता विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनने योग्य नहीं बचा। कारण,  नियमानुसार विपक्षी दल का नेता बनने के लिए विपक्षी दल के सबसे बड़े समूह को कुल संख्या का कम-से-कम दस प्रतिशत प्राप्त करना आवश्यक है, मगर कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव ठाकरे) और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार) में से किसी को इतनी भी सीटें नहीं मिलीं।

लाड़की बहना का कमाल

महायुति की जीत में लाड़की बहना योजना महत्वपूर्ण सिद्ध हुई। चुनाव से महज चार महीने पहले यह योजना लाकर महायुति गठबंधन की सरकार ने तस्वीर बदल दी। प्रदेश में दो करोड़ से अधिक महिलाओं को हर माह 1,250 रुपये मिल रहे हैं। विपक्षी महाविकास अघाड़ी ने इससे अधिक राशि देने का वादा किया था, मगर मौजूदा सरकार द्वारा इसे वास्तविक रूप से लागू करने के चलते महिलाओं का महायुति के प्रति विश्वास बढ़ा। मध्य-प्रदेश में भी बीजेपी को 'लाड़ली लक्ष्मी' योजना से सफलता मिली थी। वहीं, भाजपा ने कांग्रेस शासित कर्नाटक, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश पर कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने में विफल रहने का आरोप लगाते हुए कहीं-न-कहीं यह भी प्रचारित किया था कि यदि महाविकास गठबंधन सत्ता में आता है तो महिलाओं को लाड़की बहना का पैसा मिलना बंद हो जाएगा। विरोधी अपने प्रचार में कहीं-न-कहीं महिलाओं को यह समझाने में विफल रहे कि यदि वे सरकार में आएंगे तो योजना का विस्तार ही करेंगे। महाविकास गठबंधन का पूरा जोर मराठी अस्मिता पर केंद्रित रहा जो जीत में अहम भूमिका नहीं निभा पाया।

दरअसल, भारत में लगभग साठ प्रतिशत परिवार प्रति माह 20,000 रुपये से कम कमाते हैं। इन परिवारों के लिए 1,250 रुपये प्रति माह एक बड़ा आंकड़ा होता है। देखा जाए तो महाविकास गठबंधन ने अपनी 3,000 रुपये प्रति माह की 'महालक्ष्मी योजना' की घोषणा, उन्होंने इस योजना की घोषणा बहुत देर से की, चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के बाद और फिर लगातार इस बारे में बात करने से बचते रहे।

'बटेंगे तो...'

लोकसभा नतीजों में झटके के बाद बीजेपी ने देश में लोकसभा सीटों की संख्या के हिसाब से दूसरे सबसे बड़े राज्य में सावधानीपूर्वक योजना बनाई। खासकर संघ के सभी संगठनों ने एकजुट होकर 'सेफ रहो' अभियान चलाया। इन्हीं नारों को ध्यान में रखकर अधिक-से-अधिक मतदान करने की अपील की जाती रही। इसके लिए 'वोट जिहाद' के सामने 'धर्मयुद्ध' जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया। लिहाजा, शहरों में तो इसे जबरदस्त प्रतिक्रिया मिली ही, मगर नतीजों से यह साफ हो गया कि ग्रामीण इलाकों में भी प्रचारक और कार्यकर्ता इस मुद्दे पर पूरी ताकत से बीजेपी के पक्ष में खड़े थे।

'बटेंगे तो कटेंगे' और 'एक हैं तो सेफ हैं' जैसे नारों से राज्य में माहौल बनाया गया। महायुति में खासकर बीजेपी के प्रचार अभियान में लगातार यह आरोप लगाया गया कि कांग्रेस ने उलेमा का समर्थन लिया है। यह मामला सोशल मीडिय के जरिए और अधिक चर्चा में लाया गया। महाविकास अघाड़ी की ओर से इस संबंध में कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दी गई। इसका असर भी मतदाताओं पर पड़ा। शहरी-ग्रामीण इलाकों में बड़ी संख्या तक मतदाता धार्मिक आधार पर महायुति के पीछे खड़े हो गए। इस मौके पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अहमियत बढ़ गई। योगी ने महाराष्ट्र में सभाएं कीं जो ज्यादा तो नहीं थीं, पर भीतर-ही-भीतर इनका असर जरूर होता दिखा है।

देखा जाए तो उस वर्ग के लिए यह परिणाम झटके से कम नहीं है जो इस बात को मानता है कि जिस राज्य को शाहू जी , फुले, अंबेडकर के विचार विरासत में मिले हों वहां 'समान व्यक्तिगत गरिमा के मूल्य' विरोधी नारे न सिर्फ लगाए गए बल्कि उनके जरिये सत्ता का आसान रास्ता भी तैयार कर लिया गया।

संगठन दक्षता

बीजेपी ने जिन सीटों पर चुनाव लड़ा उनमें से 85 प्रतिशत से अधिक पर सीटें जीतीं। इस रिकॉर्ड जीत में उपमुख्यमंत्री और बीजेपी के नेता देवेन्द्र फड़णवीस की मेहनत अहम रही। यह इसलिए भी अहम है कि मराठा आरक्षण के लिए आंदोलन करने वाले मनोज जरांगे ने लगातार फड़णवीस पर निशाना साधा। लेकिन, उन्हें जवाब देने के बजाय फड़णवीस ने लगातार उल्लेख किया कि जब वह मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने मराठा समुदाय के लिए क्या कुछ किया था। उम्मीदवार चयन से लेकर प्रचार अभियान तक की सावधानीपूर्वक योजना का सारा श्रेय फिलहाल बीजेपी में फड़णवीस को दिया जा रहा है। राज्य में प्रचार सभाओं में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने देवेंद्र फड़णवीस की प्रशंसा की और इशारे ही इशारे में अगला मुख्यमंत्री चुनाव परिणाम के बाद तय होगा जैसी बातें कहकर फड़णवीस को मुख्यमंत्री पद के लिए अघोषित उम्मीदवार भी प्रोजेक्ट किया।

फड़णवीस का पूरा चुनाव हिंदुत्व के इर्द-गिर्द रहा और इस कड़ी में उन्होंने कुछ मुस्लिम मौलवियों के सियासी बयानों को मुद्दा बनाते हुए हिन्दुओं से एकजुट हो जाने की अपील की। हालांकि, चुनाव के समय यह दांव रिस्की बताया जा रहा था और यहां तक कि सरकार में हिस्सेदार राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता और उप-मुख्यमंत्री अजीत पवार तक ने इस तरह के अभियान से किनारा किया। लेकिन, हुआ इसका ठीक उल्टा क्योंकि इससे हुआ यह कि खास तौर पर अन्य पिछड़े वर्ग के बीच ध्रुवीकरण हो गया जो कि मराठा आंदोलन के कारण आरक्षण के भीतर उसके कोटे में सेंध लगने के डर के चलते वैसे ही बीजेपी की तरफ खिसकने को था। लिहाजा, इस वर्ग का वोट महायुति गठबंधन को मिला। कहा जाता है कि राज्य में 30 से 35 प्रतिशत ओबीसी हैं। ये वोटर बीजेपी के साथ खड़ा हो गया।
बीजेपी ने विदर्भ में 62 में से 46 और मराठवाड़ा में 46 में से 15 सीटें जीतीं। इसके अलावा पश्चिमी महाराष्ट्र में भी 20 सीटों पर अपना झंडा फहराया, जबकि ये इलाके मराठा आंदोलन के चलते उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गए थे। बाकी महाराष्ट्र में बीजेपी कोंकण और उत्तरी महाराष्ट्र में पहले से ही मजबूत मानी जाती है और यहां वह अपने प्रदर्शन को सुधारने में सफल रही।

यहां यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि बीजेपी ने 'ओबीसी' को अपनी ओर मोड़ने की एक चाल चली। हालिया लोकसभा चुनाव में मराठा मतदाताओं से मिली हार के बाद बीजेपी ने छोटी गैर-मराठा जातियों को लुभाना शुरू कर दिया था। पर्दे के पीछे, भाजपा ने कुछ पिछड़ा समुदायों के लिए निगम, महिलाओं के लिए छात्रावास आदि जैसे उपायों के साथ राज्य भर में छोटी बस्तियों, गांवों में 'ओबीसी' सभाओं का आयोजन किया। पिछले चार महीनों में यानी लोकसभा चुनाव के बाद से विधानसभा चुनाव की घोषणा तक ऐसी सभाओं की संख्या 330 तक पहुंच गई थी। इससे बीजेपी के प्रयासों का अंदाजा लगाया जा सकता है।

शहरी मतदाता का एकमुश्त वोट

मूलतः शहरी मतदाता महायुति गठबंधन के पक्षधर माने जाते हैं। राज्य में 40 प्रतिशत सीटें शहरी-अर्धशहरी हैं। लेकिन, इस बार शहरी मतदाताओं ने इस गठबंधन पर इतना प्यार लुटाया कि इस क्षेत्र में से 95 प्रतिशत सीटें महायुति ने जीतीं। मेट्रो, फ्लाईओवर, बड़े प्रोजेक्ट और उसमें हिंदुत्व का समावेश होने से महायुति ने शहरों में बड़ी सफलता हासिल की। स्थिति यह हुई कि भाजपा ने मुंबई जैसे ठाकरे के प्रभाव वाले क्षेत्रों में सेंध लगाई। इसलिए, अब मुंबई महानगर-पालिका चुनाव में इसे शिवसेना के ठाकरे गुट के लिए खतरे की घंटी माना जा रहा है। यही हाल पुणे में भी रहा और यहां की ज्यादातर सीटें महायुति के हिस्से में आईं। बीजेपी की इस सफलता को देखकर साफ है कि आने वाले समय में राज्य के भीतर बीजेपी केंद्रित राजनीति जारी रहेगी। यदि लटकी हुई स्थिति होती तो अस्थिरता का खतरा होता। लेकिन, अब बीजेपी ने देश के सबसे अमीर राज्य में सत्ता कायम कर ली है, जिसका राष्ट्रीय राजनीति पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा।

ऐसा इसलिए भी कि इस जीत का अगला असर मुंबई महानगर-पालिका पर सियासी अधिकार को लेकर पड़ सकता है, जैसा कि कहा गया है कि जहां ठाकरे का प्रभाव रहा है।

देखा जाए तो मुंबई जो दुनिया के बड़े शहरों में शुमार है, आज कई समस्याओं का सामना कर रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण स्वास्थ्य समस्याएं गंभीर होती जा रही हैं। बढ़ती जनसंख्या और उपलब्ध जल संसाधनों के बीच बिगड़ा अनुपात, पीने के पानी के सीमित स्रोत, बंजर भूमि की गंभीर समस्या, जीर्ण-शीर्ण भवनों का रुका हुआ पुनर्विकास, असफल झुग्गी पुनर्वास योजनाएं, सीमित रोजगार के अवसर के चलते नागरिक किसी-न-किसी समस्या से जूझ रहे हैं। लेकिन, इन सभी मुद्दों पर महाविकास गठबंधन के नेता महायुति को घेर नहीं सके। प्रचार के दौरान सिर्फ धारावी पुनर्वास परियोजना पर सत्ताधारी पार्टी को घेरने की कोशिश की गई।

मुंबई में पूरा चुनाव भावनात्मक नारों के आसपास सिमटकर रह गया। मुंबई के एक छोर पर स्थित कोलाबा विधानसभा क्षेत्र कभी कांग्रेस का गढ़ था। लेकिन, कांग्रेस अपना गढ़ तभी बरकरार नहीं रख पाई जब शिवसेना-बीजेपी का गठबंधन हुआ था। अब बीजेपी के राहुल नार्वेकर के गढ़ वाली इस सीट पर कांग्रेस चुनौती देने की हालत में नहीं है। इसी तरह, कांग्रेस का गढ़ रहे मालाबार हिल निर्वाचन क्षेत्र को कभी शिवसेना ने अपनी सहयोगी बीजेपी के लिए छोड़ दिया था और अब बीजेपी ने इस निर्वाचन क्षेत्र में मजबूत स्थिति हासिल कर ली है। भाजपा ने उत्तरी मुंबई के प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत की है और ऐसा इसलिए भी आंतरिक कलह के कारण शिवसेना कमजोर पड़ती गई। नतीजा यह हुआ कि बीजेपी ने मुंबई में अपना दबदबा बढ़ा लिया है। बीजेपी ने सबसे ज्यादा 15 सीटें जीती हैं। जाहिर है कि उद्धव ठाकरे की शिवसेना के लिए पिछले मुंबई महानगर-पालिका चुनावों में हासिल हुई ताकत को बरकरार रखना अब सबसे बड़ी चुनौती बन गया है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. विचार व्यक्तिगत हैं. )

तस्वीर साभार: अजीत पवार के ट्विटर अकाउंट से

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