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दो टूक: गोरक्षा के नाम पर अंधराष्ट्रवादी फ़ासीवादी अभियान

आमतौर पर समझ लिया जाता है कि भाजपा की सांप्रदायिक मुहिमें सिर्फ़ वोट प्राप्त करने के लिए हिंदू-मुसलमान की तकरार को तेज़ करने के उद्देश्य से चलाई जाती हैं,लेकिन बात सिर्फ़ इतनी सी नहीं है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर।

अगर हम दुनिया भर में फासीवादी अभियानों को देखें,तो इसमें अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने के लिए किसी न किसी प्रतीक का इस्तेमाल किया जाता रहा है। वह प्रतीक नस्ल,भाषा,खान-पान कुछ भी हो सकता है। जर्मनी और इटली में यही हुआ। भारत में ; विशेष रूप से उत्तर भारत में गोरक्षा के नाम पर अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने का अभियान चलाया जा रहा है,यद्यपि उत्तर भारत के हिन्दू भले ही गोमांस नहीं खाते हों,लेकिन उत्तर-पूर्व के राज्यों, गोवा तथा केरल के हिन्दू बड़े चाव से मांस खाते हैं। गोवा और असम में तो भाजपा की सरकारें हैं। ये सरकारें अपने राज्यों में तो गोहत्या पर प्रतिबंध नहीं लगा सकतीं,लेकिन उत्तर भारत में गोहत्या के नाम अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने का काम कर रही हैं। 

इतिहासकार डी एन झा की ‘पवित्र गाय का मिथक’ नामक पुस्तक में इस तथ्य पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है कि भारत में वैदिककाल में भी गोमांस खाने का प्रचलन आम था,परन्तु आज गोरक्षा के नाम पर स्वघोषित रक्षकों द्वारा मुसलमानों पर हमले और हत्याएं आम होते जा रहे हैं। भले ही इस परिघटना की जड़ें 19वीं सदी के मध्य तक जाती हैं,लेकिन भारत में भाजपा और आर.एस.एस. की अगुआई वाली मोदी सरकार बनने के बाद ये तेज़ी से बढ़े हैं।

आमतौर पर समझ लिया जाता है कि भाजपा की सांप्रदायिक मुहिमें सिर्फ़ वोट प्राप्त करने के लिए हिंदू-मुसलमान की तकरार को तेज़ करने के उद्देश्य से चलाई जाती हैं,लेकिन बात सिर्फ़ इतनी सी नहीं है। मुसलमानों की बढ़ती आबादी का तथ्यहीन और झूठा प्रचार करके हिंदुओं के लिए ख़तरे का डर,लव जिहाद का हौवा,राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर,नागरिकता संशोधन कानून, धारा 370 को हटाना आदि कई तरीक़ों से सांप्रदायिक पालाबंदी करके–देश की मेहनतकश आबादी में फूट डाली जाती है,लेकिन असल में ऐसी कार्यवाहियां सिर्फ़ वोट हासिल करने तक सीमित नहीं हैं। 

अंधराष्ट्रवादी पागलपन के प्रचार से ना सिर्फ़ पड़ोसी देशों के ख़िलाफ़ नफ़रत भड़काई जाती है,बल्कि इसी बहाने देश के अल्पसंख्यक समुदायों और ख़ासकर मुसलमानों को निशाना बनाया जाता है। संघ परिवार द्वारा चलाए जा रहे फासीवादी अभियानों के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले विचारधारात्मक हथियारों में गोरक्षादलों की गतिविधियां भी फासीवादी मुहिम का हिस्सा हैं।

हरियाणा के चरखी दादरी और फ़रीदाबाद में दो युवकों की हत्या और महाराष्ट्र में रेल यात्रा कर रहे एक बुजुर्ग मुसलमान की पिटाई से गोरक्षादल एक बार फिर चर्चा में आ गए हैं। पश्चिम बंगाल का प्रवासी मज़दूर साबिर चरखी दादरी में कबाड़ का काम करके अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहा था। तथाकथित गोरक्षक गुंडों की भीड़ ने गोमांस खाने के शक में उसे पीट-पीटकर मार डाला। यहां साफ़ कर दिया जाए कि गोमांस मिलने पर नहीं सिर्फ़ गौ-मास खाने के शक पर उसे भीड़ की हिंसा का शिकार बनाया गया। बेरहमी से पिटाई करते हुए भीड़ उसे गोमांस खाने की बात मानने के लिए मजबूर करती है।

दूसरी बड़ी घटना फ़रीदाबाद की है। 12वीं कक्षा में पढ़ने वाला लड़का बाज़ार से मैगी खाकर अपनी कार में घर लौट रहा था। पाँच गुंडों ने उसकी कार का पीछा किया। वह डर के मारे कार दौड़ा लेता है, लेकिन हत्यारे आगे जाकर उसे घेर लेते हैं और मार डालते हैं। हत्यारों के अनुसार उन्हें शक था,कि वह गौ-तस्करों का साथी है। उस युवक का नाम आर्यन मिश्रा था। जब यह पता चला,तो अपराधियों का बयान आता है कि ग़लती से हुई ब्राह्मण युवक की हत्या का उन्हें अफ़सोस है,यानी अगर वह मुसलमान होता तो उनके अनुसार उसे मारना जायज़ होता। 

इसके अलावा महाराष्ट्र में रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे 72 साल के बुजुर्ग हाजी अशरफ़ अली की भीड़ द्वारा पिटाई का कारण यह था कि उसके डिब्बे में मांस था। उसने बाद में बताया कि उसके डिब्बे में गो-मांस नहीं था बल्कि भैंस का मांस था,जिसकी बिक्री भारत में पूरी तरह से क़ानूनी है। वह अपनी बेटियों के लिए इसे लेकर आया था। यहां ख़ास बात यह है कि उसे मारने वाले लड़के पुलिस भर्ती की परीक्षा देने जा रहे थे। दूसरी ओर हमारे देश में मुसलमान इस हद तक डरे हुए हैं कि उस बुजुर्ग ने घर आकर भी यह नहीं बताया कि उसे भीड़ ने पीटा और बेइज़्ज़त किया है। उसने कहा कि वह गिर गया था। यह तो अगले दिन वीडियो वायरल होने पर उसके घर वालों को सच्चाई का पता चला।

इस आज़ाद भारत के नागरिकों की यह बेबसी हर जागती आत्मा वाले इंसान को झकझोर देती है। इन घटनाओं का शर्मनाक पहलू यह है कि हरियाणा के मुख्यमंत्री बयान देते हैं कि हमारे राज्य में गाय के मामले में लोग बहुत संवेदनशील हैं और ऐसी ख़बर मिलने पर उन्हें कोई भी रोक नहीं सकता। इस तरह उन्हें भीड़ द्वारा हिंसा और नौजवानों की हत्याओं की कोई चिंता नहीं है। यह छुपे रूप से हत्यारों का हौसला बढ़ाने के बराबर है। ये घटनाएँ सिर्फ़ गाय प्रेमियों के अचानक ग़ुस्से की प्रतिक्रिया नहीं हैं,बल्कि पिछले समय में योजनाबद्ध तरीक़े से सरकारी सरपरस्ती में पल-बढ़ रही हैं। हरियाणा में गोरक्षादल बन चुके हैं। जो बीच-बीच में,गौ-पालकों और किसानों से पैसे वसूलते हैं,जब वे गाय खरीदकर लाते हैं। सरकार को गौ के नाम पर की जा रही वसूली,गुंडागर्दी और हत्याओं की परवाह नहीं है,बल्कि उल्टे गोरक्षा के लिए क़ानून बनाने की चिंता है। गायों को पालने के लिए बेचने-खरीदने वाले बेकसूर पशु-पालकों की हत्याओं की कोई चिंता नहीं है। 2015 में ‘गोरक्षा क़ानून’ पास किया गया था,जबकि हरियाणा में हिंदू और मुसलमान सदियों से पशु-पालन का काम कर रहे हैं। 

हरियाणा दुनिया-भर में दूध-घी के लिए प्रसिद्ध है। गौ-पालन का काम हरियाणा में महत्वपूर्ण काम है। गोरक्षा के नाम पर बनने वाले क़ानूनों और गोरक्षकों की कार्रवाइयों के डर से पशु पालने वाले किसानों में विशेष रूप से मुसलमान किसानों में डर का माहौल है।

इन गोरक्षकों को भूखी मरती,गंदगी और प्लास्टिक के लिफ़ाफ़े खाने वाली गायों की कभी चिंता नहीं होती। ना ही इनका ध्यान कभी किसानों की फ़सलें बरबाद करने वाली आवारा गायों के झुंड की ओर गया है। 

एक गोरक्षक के मुताबिक़, हरियाणा में इन गोरक्षकों की संख्या करीब 1500 है। इन्होंने गाँवों में ख़बरी रखे हुए हैं,जिनकी सूचना पर गोरक्षादल कार्रवाई करते हैं। इसके अलावा संघ परिवार के कई अन्य संगठन इनकी मदद करते हैं। ये बजरंग दल,गौ-रक्षा दल और गौ-पुत्र सेना आदि नामों से काम करते हैं। असल में यह योजनाबद्ध तरीक़े से फैला हुआ जाल है। इनका कहना है कि इन्हें सरकारी मशीनरी पर कोई भरोसा नहीं है। ये ख़ुद नाके लगाकर पशुओं की तलाश करते हैं और वाहनों की तलाशी के नाम पर पैसे वसूलते हैं। बदकिस्मती से अगर वे मुसलमान होते हैं,तो उनकी पिटाई और हत्या तक कर दी जाती है। ज़रूरत पड़ने पर पुलिस को सूचना भी दी जाती है। 2017 में हरियाणा सरकार ने ‘हरियाणा गौ-सेवा आयोग’ की स्थापना की थी। फिर 2021 में ‘स्पेशल गौ-रक्षा टास्क फ़ोर्स’ भी बनाई गई थी।

पिछले कई सालों से हरियाणा,राजस्थान और देश के अन्य हिस्सों में गोरक्षा के नाम पर की जाने वाली हत्याओं की सूची बहुत लंबी हो गई है। हरियाणा में ही दो मुसलमान पशु व्यापारियों को गाड़ी समेत आग लगाकर ज़िंदा जला दिया गया था। नूह में जल अभिषेक यात्रा के नाम पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ हमले और सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के बाद खट्टर सरकार ने कई बेगुनाह मुसलमानों के घर बुलडोज़र से मिट्टी में मिला दिए थे। 

सरकार,पुलिस और अदालतों का इन गोरक्षकों को कोई डर नहीं है। पहली बात यह है कि भाजपा नेताओं की सरपरस्ती के कारण पुलिस मामले दर्ज ही नहीं करती। अगर करना पड़ भी जाए,तो कमज़ोर धाराओं में मामला दर्ज करके अपराधियों की तुरंत रिहाई की संभावना बना दी जाती है। 

कई बार गोरक्षा क़ानून के तहत पीड़ित पक्ष के ख़िलाफ़ ही मामला दर्ज कर लिया जाता है,फिर भी अगर कहीं जनवादी संगठनों के दबाव के कारण मामला अदालत तक पहुँच ही जाता है,तो अदालतों में भी मुसलमानों और दलितों के साथ होने वाली नाइंसाफ़ी स्पष्ट रूप से सामने आती है। ये तथाकथित गोरक्षक बताते हैं कि वे पहचानपत्र भी जारी करते हैं। उनके अनुसार इन पहचानपत्रों को टोल प्लाज़ा और पुलिस वाले भी मान्यता देते हैं,हालाँकि सरकारी तौर पर इन पहचान पत्रों की मान्यता नहीं है। इसके अलावा मुसलमानों के त्योहारों और कांवड़ यात्रा के दौरान भी मुसलमानों के ख़िलाफ़ हमले और ज़हरीले सांप्रदायिक प्रचार में तेज़ी आ जाती है। 

देश का प्रधानमंत्री भी मांस खाने या ना खाने को त्योहारों से जोड़ते हुए छुपे रूप से मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा को बढ़ावा देता है। मुख्यधारा मीडिया और सोशल मीडिया पर सक्रिय संघ का आईटी सेल फासीवादी प्रचार की मुहिम का बड़ा भोंपू बना हुआ है। प्राचीन हिंदू ग्रंथों में इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि यहाँ गाय का मांस खाया जाता था। हिंदू धार्मिक यज्ञों में गाय की बलि दी जाती थी,परन्तु गाय का प्रतीक कब हिन्दूधर्म का पवित्र प्रतीक बन गया? इसका इतिहास एक अलग विषय है,लेकिन गाय के प्रतीक को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की शुरुआत भारत में 19वीं सदी के मध्य में हुई थी। हिंदुत्व पुनरुत्थानवादी लहर के समय में शुरू हुआ यह सिलसिला आज के दौर में आर.एस.एस. की अगुवाई में चलने वाले हिंदुत्व फासीवाद का हथियार बन चुका है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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