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देश की एकता पर लपकते पैने होते नाख़ून

कृषि के बाद देश में सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले टेक्सटाइल उद्योग के कताई, बुनाई से रंगाई तक के हर इदारे को तबाह कर चुकने के बाद कपड़ा मंत्री देश के भाईचारे और एकता के ताने बाने को छिन्नभिन्न करने के कुटिल इरादे को पूरा करने निकल पड़े हैं।
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बिहार के किशनगंज में केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह। तस्वीर साभार: हिंदुस्तान

जाति जनगणना के सवाल पर मनु-जायों का कुनबा बिल्लयाया हुआ है। न उगलते बन रहा है न निगलते !! हजार मुंह से हजार तरीके की बातें करके ‘चित्त भी मेरी पट्ट भी मेरी’ की सारी कोशिशों के बाद भी अंटा मेरे बाप का कहने का दावा करने का आत्मविश्वास नहीं जुट पा रहा है। घूमफिरकर एक ही तोड़. सदियों  के साझे संघर्षों और साथ से बनी मुल्क की पुरानी कौमी एकता को तोड़ने और बिखेरने का तोड़, समझ में आ रहा है ; और ऊपर से नीचे तक पहाड़ से समंदर तक पूरा गिरोह इसी काम में लग गया है । 

इस बार इसके पूरी तरह निरावरण और निर्लज्ज चरण की शुरुआत केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने संवेदनशील प्रदेश बिहार के और भी अधिक संवेदनशील इलाके सीमांचल से की है । अपनी इस कथित हिन्दू स्वाभिमान यात्रा में इस केन्द्रीय मंत्री ने उन्ही जिलों को निशाने पर लिया जहाँ मुस्लिम आबादी अधिक है। वे भागलपुर से निकले और कटिहार, पूर्णिया, किशनगंज होते हुए अररिया तक आग लगाते, जहर बरसाते घूमते रहे । इस कथित स्वाभिमान यात्रा के दौरान दिए भाषणों में उन्होंने कहा कि “कोई मुसलमान यदि तुम्हे एक थप्पड़ मारे तो तुम सब मिलकर उसे सौ थप्पड़ मारो”  वे यहीं तक नहीं रुके. उन्होंने युद्धघोष सा करते हुए आह्वान किया कि “सभी हिन्दुओं को अपने घरों में तलवार, भाला और त्रिशूल रखना शुरू कर देना चाहिये ।“ इस तरह के उग्र प्रलापों के बाद उन्होंने भीड़ से “कटेंगे तो बटेंगे” के नारे का तिर्वाचा भरवाया, उसे तीन बार लगवाया ।  

गिरिराज सिंह उस संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य भारत के मंत्री हैं जिसका संविधान धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध है और यह भारत और उसके सामाजिक ढाँचे के अस्तित्व की बुनियादी शर्त है। इस विषभरी यात्रा के शुरू होने के ठीक पहले इसी 21 अक्टूबर को देश का सर्वोच्च न्यायालय दो टूक शब्दों में साफ कर चुका है कि “धर्मनिरपेक्षता भारत के संविधान की बुनियाद का हिस्सा है, उसका आधार है।” इतना ही नहीं,  इसी कुनबे के कुछ लोगों की संविधान में से धर्मनिरपेक्षता शब्द को हटाने की याचिका को ख़ारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भविष्य में भी इस तरह की मंशाओं को निर्मूल करते हुए  कहा कि “धर्मनिरपेक्षता भारत के संविधान का अविभाज्य अंग है, एक ऐसा हिस्सा है जिसे बदला नहीं जा सकता।” इससे पहले भी कई बार सुप्रीम कोर्ट यही बात कह चुका है, मगर इस बार का उसका फैसला न्यायपालिका की जिस दशा में आया है उसके चलते और भी ज्यादा मानीखेज हो जाता है । इसके बाद भी, जिस सरकार पर संविधान को लागू करने और खुद उसी के हिसाब से चलने की जिम्मेदारी है उसी का एक मंत्री, मंत्री पद पर रहते हुए, कमांडोज की सिक्यूरिटी में लालबत्ती की कार में बैठकर  देश में धर्म के बहाने उन्माद भड़काने के सरासर आपराधिक काम में लगा हुआ था। जिस पुलिस को उसे फ़ौरन गिरफ्तार कर लेना चाहिए था वही पुलिस उसकी सभाओं का इंतजाम देख रही थी। 

कृषि के बाद देश में सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले टेक्सटाइल उद्योग के कताई, बुनाई से रंगाई तक के हर इदारे को तबाह कर चुकने के बाद कपड़ा मंत्री देश के भाईचारे और एकता के ताने बाने को छिन्नभिन्न करने के कुटिल इरादे को पूरा करने निकल पड़े हैं ।

गिरिराज सिंह का अपराध सिर्फ राजनीतिक या सामाजिक रूप से ही अक्षम्य और अरक्षणीय नहीं है, वह देश के कानूनों के हिसाब से भी आपराधिक और दण्डनीय है। भारतीय दंड संहिता की धारा 153 ए के तहत यदि कोई भी व्यक्ति धर्म व जाति को आधार बनाकर समाज में अशांति फैलाने के जुर्म में न्यायालय द्वारा दोषी पाया जाता है, तो उस व्यक्ति को 3 वर्ष तक की सजा व जुर्माने से दंडित किया जाता है। इसी तरह की एक अन्य  धारा 295 ए है जिसके  अंतर्गत ऐसे सभी कृत्य अपराध माने जाते हैं जहाँ कोई आरोपी व्यक्ति, भारत के नागरिकों के किसी हिस्से  की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के जानबूझकर और विद्वेषपूर्ण आशय से उस वर्ग के धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करे या ऐसा करने का प्रयत्न करे। ऐसा करने पर वह तीन वर्ष की सजा  या जुर्माने या दोनों से दण्डित किया जाएगा। इस धारा में ऐसा करने के रूपों और अभिव्यक्ति के तरीकों को भी दर्ज किया गया है जिसमें लिखित शब्दों,  संकेतों, द्रश्यारूपणों तक को प्रमाण माना गया है यहाँ तो मोदी की कैबिनेट के मंत्री बाकायदा नाम ले लेकर एक समुदाय विशेष – मुसलमानों – के खिलाफ हिंसा का खुला आह्वान कर रहे हैं ।  

मगर वे न अकेले हैं न अपवाद हैं । भले बिहार की भाजपा ने इसे – अपने ही केन्द्रीय मंत्री - की इस उन्मादी यात्रा से पल्ला झाड़कर इसे उनकी निजी यात्रा बताकर बिहार की साझा सरकार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार को लोगों को दिखाने के लिए उल्लू की लकड़ी पकड़ा दी हो मगर यह न निजी है ना हीं किसी एक के दिमाग में पैदा हुए खलल का परिणाम है ; यह 2024 के लोकसभा चुनाव में अल्पमत में रह जाने और लाख कोशिशो के बावजूद जनता के आर्थिक और सामाजिक शोषण के वास्तविक मुद्दों के उभर कर विमर्श में आ जाने से मची घबराहट और बेचैनी का नतीजा है ।  उन्माद की आग में, साम्प्रदायिकता की कड़ाही में, विद्वेष के गरल में  विभाजनकारी एजेंडे को फिर से तलकर परोसने की हड़बड़ी है। 

जिस सीमांचल के जिलों से गिरिराज सिंह गुजरे उसकी चार में से तीन लोकसभा सीटों पर भाजपा और एनडीए को हार मिली है। पड़ोस के राज्य झारखण्ड में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं – कुनबे को पता है कि अररिया, कटिहार, भागलपुर या किशनगंज में तनाव बढ़ेगा और दुर्भाग्य से कहीं थोड़ा बहुत भी अघट घट गया तो चिंगारियां महाराष्ट्र तक जायेंगी । इस नजदीकी मकसद के अलावा लक्ष्य  दूरगामी, मनु प्रताड़ित समुदायों को फुसलाकर उन्हें अपनी ही गर्दन पर चलने वाली तलवार पर धार लगाने के काम में भिड़ाने का भी है । उत्तर प्रदेश में अयोध्या, प्रयाग, सीतापुर, रामपुर, चित्रकूट सहित जितनी भी धार्मिक कही जाने वाली जगहें हैं उनकी लोकसभा सीटें हारने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जिस ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ को श्मशानसिद्ध मन्त्र और वैतालप्रदत्त जादू की छड़ी मानकर घुमा रहे  हैं उसे प्रधानमंत्री से लेकर बस्ती मोहल्ले के भाईजियों तक ‘खुल जा सिमसिम’ के पासवर्ड की तरह दोहराये जा रहे हैं ; यह बात अलग है कि फिलहाल कोई दरवाजा उन्हें खुलता नहीं दिख रहा। इसीलिए इस पर और अधिक जोर देने के लिए अब इनके मात पिता संगठन आरएसएस ने भी सुर में सुर मिलाना शुरू कर दिया है।  

संघ के सरकार्यवाह होंसबोले भी बोले हैं और दावा किया है कि उनका संघ तो हमेशा से ही यही काम करता रहा है।  इस बंटेंगे में उनका आशय सारे भारतियों की एकता बनाने का, उन्हें बंटने से रोकने का न था, न है।  उनका इरादा उस कथित हिन्दू समुदाय को एकजुट करने का ही जिसके करीब 90 फीसदी मनु-प्रताड़ित और वंचित, कुचले और सताए हिस्से  के ऊपर ही अंततः उनके हिंदुत्व की विजय ध्वजा को गाड़ना है । फिलहाल इन्हें कहीं मुसलमानों तो कहीं ईसाईयों और बाकी सब जगह तर्कशील, प्रश्नाकुल नागरिकों और कम्युनिस्टों का डर दिखाकर उन्मादी भीड़ में बदलना है । ये अलग बात है कि बाद में हिन्दुत्व के नाम पर गुजरे अतीत की काली गुफाओं से लाकर  जिस शासन प्रणाली को स्थापित किया जाना है उसके सूत्रधार मनु की  गाज़ इन्ही पर गिरने वाली है ।

बहरहाल उन्हें लगता है कि शायद इस घनगरज का जैसा वे चाहते हैं वैसा असर न हो इसलिए अपने हुडदंगी जत्थे - स्टॉर्म ट्रूपर्स – भी मैदान में उतार दिए है । सुलगाने और धधकाने की शुरुआत पहाड़ से की जा रही है। चमोली जिले में ये जत्थे घूम रहे हैं ; थराली, गैरसेण, खनसर घाटी, माईथान, नंदानगर हर जगह उन्माद भडका कर उसे उत्पात में बदला जा रहा है । हुजुमों को इकट्ठा कर उन्हें मस्जिदों पर हमले करने के लिए उकसाया जा रहा है। बाहरी लोगों को उत्तराखण्ड से बाहर खदेड़ने की मांग उठाकर अल्पसख्यकों की कॉलोनियां, बस्तियाँ और मस्जिदें ढहाने की मांगे की जा रही हैं । खुद मुख्यमंत्री धामी इसे हवा दे रहे हैं। लपटें उत्तरकाशी तक पहुँचने लगी हैं। मुद्दा जिस बलात्कार की घटना को बनाया जा रहा है उसमें गिरफ्तारी 15 दिन पहले ही हो चुकी है ; मगर दाहोद, बदलापुर, कठुआ सहित हाल के ज्यादातर बलात्कारों यहाँ तक कि नाबालिगों की हत्याओं तक में अपनों के लिप्त होने के समय चुप रहने या पूरी निर्लज्जता के साथ अपराधियों की खुल्लमखुल्ला हिमायत करने वाला गिरोह चमोली के आरोपी का धर्म देखकर उसे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का जरिया बना रहा है। इस बार तो संयोग से अपराधी एक मुस्लिम युवा है भी, न भी होता तो भी ये तो झूठ दर झूठ गढ़कर भी तनाव फैलाने और फसाद करवाने में सिद्धहस्त हैं। हाल में सामने आई एक कुकृत्य की घटना में लिप्त एक घरेलू कामकाजी महिला रीना को इनका आई टी गिरोह पूरे सप्ताह भर तक रुबीना बताकर नफ़रत फैलाता रहा। जब सब कुछ जानबूझकर किया गया हो तो बाद में उसका खंडन करने की कोई उम्मीद की ही नहीं जा सकती। अगस्त की 27 तारीख को चरखी दादरी के एक कबाड़ व्यवसायी साबिर मलिक को खाना खाते समय उसके घर से उठा लिया गया था और गौ-मांस खाने के आरोप में उसे मार डाला गया था। अब उसी हरियाणा की फरीदाबाद की सरकारी लैब ने रिपोर्ट दी है कि मकतूल के घर से उठाया हुआ मांस ही नहीं, पूरे अल्पसंख्यक  मोहल्ले के हर घर की देगची से उठाये गए खाने में किसी के यहाँ भी गौ-मांस नहीं मिला। साबिर की बलि से हरियाणा के चुनाव अभियान का शंख फूंकने वाली भाजपा और इस तरह की मॉब लिंचिंग कर रहे गिरोहों के मात पिता संगठन की तरफ से कोई खेद कोई अफसोस कहीं नहीं दिखा । 

इस तरह के उन्माद को भड़काने वाले कितने सदाचारी हैं इसका नमूना  जिस चमोली से इस साम्प्रदायिक उन्माद की शुरुआत की गयी है उसी के भाजपा अध्यक्ष ने प्रस्तुत किया है । उन पर अपने ही एक कार्यकर्ता से नौकरी दिलाने के नाम पर एक लाख रुपये लेने की एफआईआर दर्ज हुई है। हालांकि इस तरह की उद्यमशीलता दिखाने वाले वे अकेले नहीं हैं, पूरा कुनबा ही ऐसे ऐसों से भरा पड़ा है। प्रधानमंत्री के खास चहेते मंत्री प्रहलाद जोशी के सरकारी दफ्तर में उनके भाई बहन और भतीजे ने लोकसभा टिकिट दिलाने के नाम पर ही ढाई करोड़ वसूल लिए थे। टिकिट न मिलने पर जब पैसे वापस मांगे गए तो गुंडों से पिटवाया गया। मामला कर्नाटका हाईकोर्ट में तब जाकर सुलझा जब ली गयी रकम लौटाने का वायदा किया गया। ऐसी कहानियां अनंत हैं यहाँ इनका जिक्र सिर्फ इसलिए किया गया ताकि यह समझा जा सके कि धर्मोन्माद और फसाद भड़काकर क्या क्या है जिसे छुपाया जा रहा है । 

गिरिराज सिंह की बिहार यात्रा से लेकर उत्तराखण्ड के इन कारनामों में नया कुछ नहीं है ; यह 90 साल पहले लिखी और मंचित की जा चुकी त्रासद गाथा का पुनराख्यान है।  मई – जून 1919 में जर्मनी के म्यूनिख शहर में बैठकर हिटलर ने इसकी शुरुआत की थी और 1945 तक पूरी दुनिया ने  इसकी विभीषिका देखी भी भुगती भी । ताजा मानव इतिहास के इस सबसे बुरे समय का सबक  हिटलर द्वारा अपने ही देश के लाखों लोगों का मारा जाना भर नहीं है, ऐसा होते समय करोड़ों जर्मन नागरिकों का चुप रहना भी है। नाजी यातना शिविर में मारे गए पास्टर निमोलर इसे अपनी सूक्ष्म कविता में सही तरीके से दर्ज करके भविष्य के लिए सतर्कता संदेश की तरह छोड़ गए हैं। बिहार में केन्द्रीय मंत्री की इस घोर आपराधिक हरकत पर स्वयं को लोहियावादी और सामाजिक न्याय की विचारधारा वाला बताने वाले नीतीश कुमार की अकर्मण्यता उनके प्रवक्ता की लुंज पुंज और हक़लाती प्रतिक्रिया असल में इस धतकरम में उनकी हिस्सेदारी के रूप में ही दर्ज की जायेगी। उन्हे याद हो कि न याद हो मगर जिन तारीखों में नितीश बाबू गिरिराज सिंह की उन्मादी यात्रा को निर्विघ्न निकलवाते हुए हाथ पर हाथ धरे निहार रहे थे, इसी बिहार में ठीक उन्ही तारीखों में 1990 की 24 अक्टूबर को सोमनाथ से अयोध्या की विनाशकारी यात्रा न सिर्फ रोक ली गयी थी बल्कि इसके रथी लालकृष्ण अडवाणी को गिरफ्तार भी कर लिया गया था। 

नीतीश जाने या न जाने बिहार इसे जानता है । वह इस गरल को प्रवाहित होने से रोकेगा भी और इस तरह के नफरती अभियान की दम पर आगामी विधानसभा चुनाव जीतने के मंसूबों का ताबूत बनाकर उनमें कील भी ठोकेगा । 

(लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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