मुज़फ़्फ़रपुर: क्यों इस त्रासदी की भविष्यवाणी की गई थी
बिहार में बच्चों की मौतों के संबंध में जारी त्रासदी में, 12 ज़िलों के 222 ब्लॉक भयंकर इंसेफ़ेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) से प्रभावित होने की बात कही गई है, यह वह सिंड्रोम है जो ज़्यादातर 10 साल तक के बच्चों को प्रभावित करता है। बच्चों को अचानक बहुत तेज़ बुखार आता है, चेतना में बदलाव आने लगता है, शरीर में ऐंठन आने लगती है, इसके बाद वे कोमा में चले जाते हैं और मर जाते हैं। इस प्रकोप का मुख्य केंद्र मुज़फ़्फ़रपुर है, इसका मुख्य कारण यह भी है कि इस क्षेत्र का यह एकमात्र अस्पताल है जो इस बीमारी से निपटने के लिए कुछ हद तैयार माना जाता है। आसपास के ज़िले जैसे वैशाली, शेओहर और पूर्वी चंपारण भी गंभीर रूप से इस बिमारी की चपेट में हैं। लेकिन मुज़फ़्फ़रपुर के केवल दो अस्पतालों में ही मौतें हुई हैं, जहाँ से इन सभी मामलों को संदर्भित किया जा रहा है। और भी बहुत से बच्चे भीतरी इलाक़ों में इस पीड़ा को झेल रहे होंगे और मर रहे होंगे - लेकिन कोई इस पर नज़र नहीं रख रहा है।
जबकि मुख्यधारा का मीडिया मुज़फ़्फ़रपुर में इस बात में सर खपा रहा है कि श्री कृष्णा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (एसकेएमसीएच) में सुविधाएँ हैं या नहीं और इस प्रकोप के संभावित कारणों का अनुमान लगाने का प्रयास कर रहा है, इस त्रासदी के दो घातक कारण हैं जो आम नज़रों से बच गए हैं। पहला यह कि इस तरह की बीमारी को संभालने के लिए हमारी सार्वजनिक स्वास्थ्य चिकित्सा प्रणाली कितनी तैयार और तत्पर है। दूसरा सवाल जो इस बीमारी से बच गए हैं उनके पुनर्वास का है।
न तो धन उप्लब्ध है, न ही कोई तैयारी
रोग से निपटने के लिए बजटीय आवंटन (नीचे तालिका देखें) पर एक नज़र डालें जो क्षेत्र के लिए स्थानिक है और इसलिए, नीले रंग से बोल्ट नहीं है। यह दशकों से हर साल सामने आ रहा है। 2018-19 में, राज्य सरकार ने राज्य में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन गतिविधियों के लिए 4,227 करोड़ रुपये का बजट प्रस्तावित किया था। इसमें से, 3.7 करोड़ - यानी लगभग 0.09 प्रतिशत हिस्सा - एईएस और जापानी एन्सेफ़लाइटिस (जेई) के लिए रखा गया था, जो एक प्रकार का एईएस ही है जिसका संक्रमण वायरस के कारण होता है। [एईएस अन्य कारकों जैसे बैक्टीरिया, कवक और यहाँ तक कि कम ब्लड शुगर के कारण भी हो सकता है।]
हालांकि, यहाँ तक कि एईएस/जेई से लड़ने के लिए जो अल्प आवंटन केंद्र सरकार द्वारा किया गया था उसे भी एक चौथाई तक घटाया दिया गया था। इससे लदने के लिए केवल 85.5 लाख रुपये मंज़ूर किए गए। वास्तव में, राज्य के प्रस्ताव को 3853 करोड़ रुपये तक घटा दिया गया। केंद्र इन दिनों इसी तरह के काम कर रहा है - स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र स्थापित करने पर ज़्यादा ज़ोर है, और उन्हें आयुष्मान भारत योजना के तहत बीमा कवर प्रदान किया जा रहा है बजाय इसके कि पहले से मौजूद घातक बीमारियों से लड़ने के लिए स्थापित साधनों का इस्तेमाल किया जाए।
लेकिन बात यहीं नहीं रुकती है। इस मद में अनुमोदित बजट के ज़रिये एईएस/जेई से निपटने के लिए 85.5 लाख रुपये को ख़र्च करने का विवरण दिया गया है। और वे विवरण आँख खोलने वाले हैं।
व्यर्थ चीज़ों पर ख़र्च
विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रमों के लिए लगभग 6 लाख रुपये का आवंटन किया गया है। यह बजट के तीन चौथाई से अधिक है। (नीचे दी गई तालिका देखें)
प्रशिक्षण में डॉक्टरों और “अन्य” के लिए एक राज्य स्तर का कार्यक्रम शामिल है जिसकी लागत 15 लाख रुपये है; इसमें अनिर्दिष्ट उद्देश्यों के लिए एक राज्य स्तरीय बैठक; और लिम्फ़ेटिक फ़ाइलेरियासिस (लसीका फ़ाइलेरिया) अधिकारियों और दवा वितरकों के लिए एक राज्य और जिला स्तर का प्रशिक्षण कार्यक्रम, जिसकी लागत 50 लाख रुपये है! दोनों वेक्टर जनित संकर्मनकारी रोगों के अलावा फ़ाइलेरिया और एईएस के बीच कोई संबंध नहीं है। दोनों, निश्चित रूप से, इस क्षेत्र में प्रचलित हैं। यह धोखा देने वाला लेखा-जोखा लगता है। फ़ाइलेरिया के कार्यक्रम को एईएस/जेई के बजट के तहत पारित किया जाता है, वह भी दोनों राज्य और केंद्र सरकार के दिग्गजों द्वारा!
इसके अलावा, एईएस/जेई के लिए मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) के संशोधित संस्करण की छपाई पर 19 लाख रुपये ख़र्च किए गए हैं।
इस छोटी सूची में वास्तव में केवल एक उपयोगी ख़र्च तकनीकी मैलाथियान द्वारा धुँआ करके उपयोग किया जा रहा है – यह मच्छरों को मारने के लिए उपयोग किया जाने वाला एक तरह का विष है। जेई का संक्रमण क्यूलेक्स मच्छरों द्वारा होता है। लेकिन इसके लिए कुल राशि मात्र 50,000 है! वह भी 12 स्थानिक ज़िलों के लिए! सिर्फ मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले में ही 8,000 से अधिक गांवों में फैली 50 लाख से अधिक आबादी है। इतनी बड़ी अबादी के लिए 50,000 रुपये कैसे पर्याप्त होंगे, किसी को इस बात का अनुमान है।
इसलिए - एईएस के ख़िलाफ़ लड़ाई शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो गई। लेकिन कुछ और भी है।
निचले स्तर की स्वास्थ्य प्रणाली का चरमराना
ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी के अनुसार मुज़फ़्फ़रपुर में 154 उप केंद्र, 29 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, नौ सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और एक ज़िला अस्पताल है, जिसे स्वास्थ्य मंत्रालय ने बताया है। लगभग आधा करोड़ लोगों के लिए, यह केवल उसके एक अंश का प्रतिनिधित्व करता है। इनमें से अधिकांश केंद्रों में डॉक्टर और पैरामेडिकल स्टाफ़ आवश्यक मानकों से कम हैं। परिवहन वाहन दुर्लभ हैं, क्योंकि अधिकांश एईएस रोगियों के माता-पिता इस चल रहे प्रकोप के कारण, अपने बीमार बच्चे को मुज़फ़्फ़रपुर तक पहुँचाने में, निजी परिवहन पर हज़ारों रुपये ख़र्च कर रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि इंट्रा-वेनस ड्रिप (नस के ज़रिये डेक्सट्रोज़ देने से) के माध्यम से डेक्सट्रोज़ को त्वरित देने से बच्चे की उस बिगड़ती अवस्था को ठीक और उसे पुनर्जीवित कर सकता है यदि एईएस कम ब्लड शुगर के स्तर के कारण हुआ है। अगर ये व्यवस्था उपकेंद्रों और पीएचसी में होती, तो मुज़फ़्फ़रपुर जाने की कोई ज़रूरत नहीं होती - और इतने मौतें भी नहीं होतीं।
बार-बार वादा करने के बावजूद, हालांकि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री, और बिहार सरकार ने इस एकमात्र रेफ़रल अस्पताल (एसकेएमसीएच) का विस्तार नहीं किया और इस बारे में विफ़ल होने के लिए उन पर सही आरोप लगाया है, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा में गिरावट पर उनकी आपराधिक लापरवाही पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया है।
कुपोषण और गर्मियों की छुट्टी
मुज़फ़्फ़रपुर में कुछ सबसे ख़राब बाल स्वास्थ्य और पोषण संकेतक मौजूद हैं। 2015-16 में किए गए अंतिम राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस 4) के ज़िला स्तर के आंकड़ों के अनुसार, सभी शिशुओं में से लगभग 8 प्रतिशत (दो साल से कम उम्र के) पर्याप्त आहार प्राप्त कर रहे थे, लगभग 49 प्रतिशत बच्चे पांच साल से कम उम्र के अविकसित थे और 42 प्रतिशत कम वज़न वाले थे। पांच साल से कम उम्र के 59 प्रतिशत बच्चों में ख़ून की कमी पाई गई थी, जबकि 53 प्रतिशत महिलाएँ और 50 साल से कम उम्र के 33 प्रतिशत पुरुषों में भी ख़ून की कमी पाई गयी थी।
इन बच्चों की जीवन रेखा - मध्यान्ह भोजन योजना है जिसके तहत स्कूलों में भोजन उपलब्ध कराया जाता है। मुज़फ़्फ़रपुर में मध्याह्न भोजन योजना के कार्यान्वयन पर शिक्षा मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, प्राथमिक वर्गों में नामांकित कुछ 3.1 लाख (5.14 लाख में से) बच्चे और उच्च प्राथमिक वर्गों में 1.6 लाख (2.99 लाख में से) मध्याह्न भोजन प्राप्त कर रहे थे।
लेकिन वर्तमान में गर्मियों की छुट्टियाँ चल रही हैं। इसका मतलब है कि इन सभी बच्चों के लिए कोई भोजन उपलब्ध नहीं है। इस क्षेत्र में तीव्र गर्मी की लहर को भी इस बिगड़ती स्थिति में जोड़ लेना चाहिए और ये हालात इन बच्चों के इर्द गिर्द इन बीमारियों के हमले का रास्ता तैयार करते है। क्या अधिकारियों का लोगों के साथ कोई साम्जस्य था, यदि होता तो उन्हें यह सब पता होना चाहिए था।
वे इसके प्रति लापरवाह थे, धन की कमी थी, राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं थी - और इन सभी का ध्यान आयुष्मान भारत जैसी सरकारी योजनाओं को सफ़ल बनाने पर अधिक था। जिन बच्चों की मौत हुई है वे इस लापरवाही के कारण तबाह हुए हैं।
जो बच गए
एईएस के प्रकोप का सबसे उपेक्षित हिस्सा यह है कि कई बच्चे बीमारी से बच जाते हैं - लेकिन उन पर गंभीर मानसिक प्रभाव रह जाता है। इसके लिए व्यापक पुनर्वास और देखभाल की आवश्यकता होती है जबकि अधिकांश बच्चों को जीवन भर के नुक़सान को सहने के लिए छोड़ दिया जाता है। यह बात चौंकाने वाली है कि इस पहलू पर लगातार सरकारों द्वारा कोई ध्यान नहीं दिया गया है। प्रभावित बच्चों और उनके माता-पिता को ख़ुद के भरोसे छोड़ दिया जाता है। वास्तव में, फ़ंडिंग के लिए राज्य के प्रस्ताव में, एईएस/जेई के लिए "चयनित एंडेमिक ज़िलों में पुनर्वास करने नामक एक आइटम है, लेकिन फ़ंड की आवश्यकता शून्य के रूप में दर्शायी गई है!" केंद्र सरकार ने भी इसे नहीं बदला और शून्य पर मोहर लगा दी।
बिहार में एईएस त्रासदी की यह संक्षिप्त झलक दिखाती है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था में कितनी फ़ंडिंग की कमी है और वह लोगों के जीवन और ज़रूरतों को समझने में पूरी तरह से असमर्थ है। यह एक अंधेरे भविष्य की ओर इशारा करता है जहाँ अधिक से अधिक बीमारियाँ लोगों को तबाह कर देंगी लेकिन जो लोग जेब से पैस ख़र्च कर सकते हैं केवल वे ही जीवित रहेंगे।
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