नीरज चोपड़ा : एक अपवाद, जिसे हमें सामान्य बनाने की जरूरत है
हम भारतीयों की आदत होती है कि हम मौजूदा पल के आगे जाने की कोशिश करते हैं। हमारे लिए, मौजूदा वक़्त का अंतिम समय आने से बहुत पहले ही भविष्य अपना नाद् करने लगता है। और इस दौरान हम मौजूदा पल को महसूस करने से चूक जाते हैं। जो महान चीज हमारी आंखों के सामने घटित हुई है, उसके साथ-साथ हम भविष्य की व्याख्या करने, उसके गर्भ में हमारे लिए क्या छुपा है, इसका अंदाजा लगाने में लग जाते हैं।
नीरज चोपड़ा का स्वर्ण पदक भी कोई अलग नहीं था। अपने खुशी के आंसू पोंछने के बाद हमने तुरंत ऐसे किले और एकेडमीज़ बनाना शुरू कर दीं, जिनसे भाला फेंकने वाले महान खिलाड़ी निकलेंगे। कई लोगों ने ओलंपिक खेलों में दिलचस्पी दोबारा पैदा होने का अनुमान लगाया। इनमें क्रिकेटर भी शामिल थे।
चोपड़ा को भी नहीं छोड़ा गया। हमने उन्हें उनके मौजूदा पल से बाहर निकालने और अपने भविष्य व विरासत के लिए चिंता में डालने की कोशिश की। आखिरी उनकी विरासत तो स्वर्ण पदक में लिपट ही चुकी है। इससे ज़्यादा और नीरज चोपड़ा को और क्या करना चाहिए? खैर, उन्हें अपने सोने का मतलब समझाना चाहिए!
जब नीरज चोपड़ा पोडियम से नीचे उतरे, तो आधिकारिक प्रस्तोताओं ने उनसे पूछा कि उनकी जीत का भारत के लिए क्या मतलब है। उन्होंने किसी भी दूसरे एथलीट की तरह बेपरवाही से जवाब दिया। कोई भी उनके उस जवाब पर फिदा हो जाए।
उन्होंने हिंदी में जवाब देते हुए कहा, "मुझे लगता है कि पूरा भारत भी मेरी तरह खुश होगा। हर कोई खुशी के साथ जश्न मना रहा होगा।"
खुशी। इन पलों का आनंद लेना चाहिए। इन्हें बिना हस्तक्षेप के छोड़ देना चाहिए, ताकि हमारे नकाबपोश चेहरों पर आई खुशी और आंखों में जो आंसू आए हैं, वे अछूते बने रहें। भविष्य को छोड़ो। वर्तमान में रहो। हमने एक महामारी से संघर्ष किया है और कर रहे हैं। हमें इस चीज को ज़्यादा बेहतर ढंग से समझना चाहिए।
हमने चोपड़ा की जीत का जश्न अपनी सोशल मीडिया टाइमलाइन और सबसे ज़्यादा अहम हमारे खुद के भीतर मनाया। जश्न मनाने वाले लोगों में वे भी शामिल थे, जिनका खेलों की तरफ रुझान नहीं है। स्वर्ण पदक आपके साथ यही करता है। कोई भी दूसरा पदक इस तरह की प्रतिक्रिया को जन्म नहीं देता। फिर यह स्वर्ण पदक तब और अहम हो जाता है, जब इसे एक विख्यात एथलेटिक्स स्टेडियम में हासिल किया गया है।
भविष्य का जिक्र खुशी के संतुलन को बिगाड़ देता है। हमने आनंद भरे पल बर्बाद कर दिए और उन्हें सिर्फ़ सोशल मीडिया की यादों तक सीमित कर दिया। भविष्य कुछ नहीं होता, बस रोजाना की जाने वाली मेहनत से उपजने वाला नतीज़ा होता है, यह किसी खास पल से नहीं बनता, भले ही वह पल ऐतिहासिक हो और किसी एथलीट के करियर की सबसे ज़्यादा ऊंचाई। नीरज चोपड़ा के सफर की शुरुआत उनके किशोर काल से हुई थी, जब उन्होंने एक सनक में खेल को चुन लिया। फिर उसके बाद के 9 सालों में यह रोजाना होने वाले कड़े प्रशिक्षण का नतीज़ा था, जिसमें खूब पसीना बहाया गया, अपनी शारीरिक गति और भाला फेंकने वाली प्रक्रिया को बेहतर किया गया, जो इतनी बेहतर है कि हमें अपने सपने में दिखाई देती है।
यही मुख्य बिंदु है। हम इसे अपने सपने में भी दोहरा सकते हैं। अब तक हम जिस नींद में थे, हम जानते ही नहीं थे कि हमारे एथलीट बाहर क्या हासिल कर सकते हैं, उनके पास कितनी क्षमता है। और यह एक अरब से ज़्यादा लोगों और प्रशंसकों का नींद में होना समस्या नहीं है। समस्या है कि भारत के सत्ता प्रतिष्ठान भी गहरी नींद में हैं, थोड़ी बहुत सफलता को ही बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते रहते हैं।
और जब हर चार साल में ओलंपिक के दौरान अलार्म बजता है, तो यह लोग उठ जाते हैं, खेल की नीतियों की किताबों से धूल झाड़ते हैं और उम्मीद करते हैं कि हमारे एथलीट कुछ मेडल ले आएं या इसके बहुत करीब पहुंच जाएं, इतना इन सत्ता प्रतिष्ठानों के लिए अपने काम को ढंग से ना करने और नीतियों की खामियों को छुपाने के लिए पर्याप्त होता है।
ओलंपिक में 48वें पायदान पर भारत को लाने वाले इन सात मेडलों के साथ या इनके बिना भी यह दुष्चक्र जारी रहेगा। एक ऐसा व्यक्ति होने के नाते जो ग्लास को आधा खाली देखता है, जो जश्न के बीच भी हमेशा नकारात्मक रहता है, मैं ईमानदारी के साथ इस गुब्बारे को फोड़ता हूं। स्वर्ण पदक के साथ भी यह 7 मेडल भारत के लिए बहुत कमतर हासिल है। इसकी वज़ह चोपड़ा, बजरंग पूनिया, मीराबाई चानू, पीवी सिंधु, लोवलीना बोर्गोहेन, रवि दाहिया या हॉकी टीम या मेडल हासिल करने से बहुत करीब से या बहुत दूर से चूके एथलीट नहीं हैं।
क्या चोपड़ा के स्वर्ण पदक से हमारे देश का एथलेटिक्स हमेशा के लिए बदल जाएगा? क्या चोपड़ा के मेडल से जेवलिन और इसके प्रति देश के नजरिए में कुछ बदलाव आएगा? अभिनव बिंद्रा के स्वर्ण पदक से शूटिंग का भाग्य बदल गया, क्या नहीं बदला? बिल्कुल बदला है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले दो ओलंपिक में हम शूटिंग में एक भी मेडल नहीं जीत पाए हैं। आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों हुआ? कभी आपने प्रचार तंत्र के छाते से परे जाकर यह समझने की कोशिश की है कि क्यों "प्रतिभा" बड़े मंचों पर जाकर असफल हो जाती हैं? यह साफ़ है कि शूटिंग में चीजें अब बीजिंग ओलंपिक से पहले वाली स्थिति में पहुंच चुकी हैं- मतलब हमारे पास ऐसी वैश्विक प्रतिभाएं हैं, जो बड़े मंचों पर चूक जाती हैं।
शूटिंग को भूल जाइये। सभी चीजों को हटाइये। कई लोग कह रहे हैं कि चोपड़ा के स्वर्ण पदक से जादू होगा। कई कहते हैं कि अब बच्चे अपने स्कूलों के धूल भरे PE रूम में जाएंगे और एक गहरे अंधेरे वाले कोने से बांस का जेवलिन निकालेंगे, जिसके आगे के हिस्से में जंग लग चुकी होगी, फिर इसे कम-ज़्यादा फेंकना शुरू कर देंगे। बिल्कुल वैसे ही, जैसे चोपड़ा ने किया था।
लेकिन यहां हम अहम बात भूल रहे हैं। एक ऐसा देश जो सबसे उच्च स्तर पर स्वर्ण, रजत या कांस्य पदक हासिल करने की मंशा रखता है, उसे इस तरीके से प्रतिभाओं के सामने आने की मंशा नहीं रखना चाहिए। जब खेलों की बात होती है, तो हमें इक्का-दुक्का खोजों का प्रयास नहीं करना चाहिए। इसके लिए हमें बेहतर अवसंरचना की जरूरत है। हमें देश के भीतरी इलाकों से ज़्यादा नेटवर्किंग की जरूरत है। हमें भ्रष्टाचार रहित और निष्पक्ष नीतियों की जरूरत है। हमें खेलो इंडिया की तरह के बड़े केंद्रीय गेम्स की जरूरत नहीं है। हमें खेल के मामलों में ऐसे लोगों- सरकार या संघ, की जरूरत है, जो चीजों के होने की स्थिति में खराब़ लोगों को हटा सकें।
जब तक यह चीजें नहीं बदल जातीं, चोपड़ा इस देश में खेल की दुनिया में अपवाद ही बने रहेंगे। चूंकि हम चोपड़ा के स्वर्ण पदक की अहमियत बताने के लिए आंकड़ों का ही सहारा ले रहे हैं (125 साल के ओलंपिक इतिहास में एथलेटिक्स का पहला गोल्ड), तो हमें इस लंबे काल का ध्यान भी रखना चाहिए। चोपड़ा भारतीय खेल जगत में एक शताब्दी में आने वाले धूमकेतु हैं। भविष्य को दूसरे नज़रिए से देखने के लिए बस कुछ गणित की ही तो जरूरत है। बस इतना ही!
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