जीएसटी ने छोटे व्यवसाय को बर्बाद कर दिया
1 जुलाई 2018 को वस्तु तथा सेवा कर यानी जीएसटी के लागू हुए एक साल पूरा हो गया। मोदी सरकार ने इसे अप्रत्यक्ष कर के गड़बड़ी को समाप्त करने के लिए पेश किया था जो मौजूदा कर अनुपालन में सुधार के लक्ष्य को बेहतर करने के लिए था। इस एक वर्ष का अनुभव बताता है कि इससे बड़े व्यवसायियों को फायदा हुआ, जबकि छोटे और मध्यम व्यवसायी संघर्ष कर रहे हैं। अधिकांश सूक्ष्म या छोटे उद्यम संघर्ष कर रहे हैं। न्यूज़क्लिक ने कई मीडिया रिपोर्टों पर ग़ौर किया जिसने ज़मीनी स्तर पर जीएसटी के प्रभाव की समीक्षा के लिए विभिन्न प्रकार के उद्योगों की जांच की थी।
द क्विंट ने गुजरात में सूरत के कपड़ा केंद्र में जीएसटी के प्रभाव का विश्लेषण करने वाली एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। जीएसटी कानून के मुताबिक़ किसी भी इनपुट टैक्स क्रेडिट रिफंड की मांग से पावर लूम को रोका गया। पिछले साल जीएसटी के ख़िलाफ़ सूरत के कपड़ा कारोबारियों ने बड़े पैमाने पर विरोध करते हुए 20 दिनों के लिए सभी काम बंद कर दिए जिससे बाज़ार में 100 करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हुआ। इसके बाद मोदी सरकार ने दिसंबर 2017 में गुजरात विधानसभा चुनावों से कुछ दिन पहले जीएसटी दरों में कटौती की घोषणा की थी। हालांकि नुकसान पहले ही हो चुका था। सूरत के पांडेसर क्षेत्र में पावर लूम इकाइयां या तो आंशिक रूप से चल रही है या क्षमता से नीचे काम कर रही हैं। जबकि दूसरों को कबाड़ी में बेचा जा रहा है।
ज़री जोकि बनारस और कांचीपुरम साड़ी निर्माण को महंगा कर देता है उस पर भी जीएसटी का बोझ डाल दिया गया है। वास्तविक तथा कृत्रिम ज़री दोनों पर समान रूप से 12 प्रतिशत कर लगाने के बाद सूरत का फलता फूलता ज़री उद्योग मंदी के दौर से गुज़र रहा है। कई बैठकों के बाद जीएसटी परिषद ने वास्तविक सोने और चांदी की ज़़री पर कर 12 प्रतिशत से कम करके 5 प्रतिशत कर दिया। लेकिन निर्माताओं को अभी भी प्रत्येक 1 किलो ज़़री पर जीएसटी के रूप में 2000 रुपए का भुगतान करना पड़ता है जो कि मोटे तौर पर लगभग40,000 रुपए खर्च पड़ता हैं।
कारखानों में मासिक मज़दूरी का भुगतान करने वाले उन श्रमिकों के अलावा कपड़ा व्यवसाय में कई श्रमिकों को घर से काम करने के लिए कच्चे माल दिए जाते हैं। इन मज़दूरों को भी कार्यरत श्रमिक के रूप में जाना जाता है। ये श्रमिक भी जीएसटी के लागू होने से प्रभावित हुए।
ऑल इंडिया ज़़री फेडरेशन के सचिव बिपिन जरीवाला ने क्विंट को बताया कि "ऑन जॉब-वर्क, मजदूर और श्रमिक जिन्होंने कभी अपनी ज़िंदगी में रसीद नहीं बनाई उन्हें जीएसटी के पेश होने के बाद अब उत्पादित वस्तुओं के मुताबिक़ हिसाब- किताब करना पड़ता है और जीएसटी का भुगतान करना पड़ता है। चूंकि इन मज़दूरों के पास जीएसटी नंबर भी नहीं है और उनका कारोबार सालाना 20 लाख रुपए के क़रीब भी नहीं है तो हम कर का बोझ उठाते हैं और उन मज़दूरों को कम भुगतान करते हैं जो जॉब-वर्क करते हैं। अब वे कम पैसे मिलने की वजह से इस काम को छोड़ रहे हैं।"
इस उथल-पुथल के परिणामस्वरूप सूरत में हजारों ज़री इकाइयां बंद हो गई हैं। पावर लूम सेक्टर की तरह यूनिट मालिक यहां अपनी अपनी मशीन को कबाड़ी में बेच रहे हैं क्योंकि वे जीएसटी के बोझ को मैनेज करने में सक्षम नहीं हैं। 10 लाख रुपए की लागत वाली मशीनों को अब 2-3 लाख रुपए में बेचा जा रहा है। लगभग 70 प्रतिशत पूंजीगत नुकसान। नतीजतन एक उद्योग जिसने दस लाख मजदूरों को रोज़गार दिया आज इसमें केवल तीन लाख श्रमिक ही काम कर रहे हैं इसका मतलब है कि कुल 7 लाख नौकरियां समाप्त हो गई है।
व्यापारियों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। जीएसटी और नोटबंदी के दोहरे मार के चलते सूरत में कपड़ा व्यापार की सैकड़ों दुकानें बंद हो गईंं। खुदरा विक्रेताओं को जीएसटी लगाए जाने के बाद खरीदारों से बिल प्रति बिल भुगतान सुनिश्चित करना पड़ा इससे उनके कारोबार पर भारी असर पड़ा और कई लोगों ने इस व्यवसाय को ही छोड़ दिया।
जीएसटी के एक वर्ष पूरे होने पर द स्क्रॉल की एक रिपोर्ट अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों पर जीएसटी के प्रभाव की एक चिंताजनक तस्वीर पेश करती है।
तमिलनाडु के होसुर में बड़ी विनिर्माण कंपनियों को इस कर से फायदा हुआ है क्योंकि होसुर इंडस्ट्रीज एसोसिएशन ने कहा कि ये कर व्यापार के लिए कुल मिलाकर अच्छा था और इसके प्रतिकूल प्रभाव बहुत कम रहे हैं। होसुर इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के अधिकांश सदस्य अशोक लेलैंड, टाइटन और वेंकटेश्वर हैचरिज जैसी बड़ी कंपनियां हैं। इसके विपरीत होसुर स्मॉल एंड टिनी इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के अध्यक्ष ने स्क्रॉल से बात करते हुए कहा कि जीएसटी उन्हें और एसोसिएशन के अन्य सदस्यों को किस चोट पहुंचा रहा था। उनके अनुसार सबसे बड़ा मुद्दा ऑटो-पार्ट पुरजा निर्माताओं पर 28% कर था। उन्हें जो कर चुकाना पड़ता था उसका सिर्फ चारगुना ही नहीं बढ़ा बल्कि उनके काम के लिए आवश्यक पूंजी में 20% की बढ़ोतरी भी हुई। इन कंपनियों को बिक्री के समय जीएसटी का भुगतान करना पड़ता था लेकिन उनके ग्राहक 90 दिनों की क्रेडिट अवधि के बाद उन्हें भुगतान करते हैं जैसा कि व्यवसाय में मानक प्रथा है। नतीजतन कर भुगतान पर चूक से बचने के लिए सदस्य क़र्ज़ ले रहे थे। रिपोर्टों के मुताबिक़ तमिलनाडु में एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम) की संख्या लगभग 50,000 कम हो गई। इसकी संख्या 2016-17 में जहाँ 2.67 लाख इकाई थी वहीं कम हो कर 2017 -18 में 2.18 लाख इकाई हो गई है।
असम में जीएसटी के तहत कच्चे बांस और बेत पर शुरुआत में 5 प्रतिशत लगाए गए और निर्मित उत्पादों पर 12 से 28 प्रतिशत के बीच कर लगाया गया था। नवंबर में संशोधन के बाद बांस और बेत उत्पादों पर अब 5 प्रतिशत कर लगाया जाता है। इसके अलावा बेत और बांस के फर्नीचर के लिए कर की दर 12 प्रतिशत तक कम कर दी गई है। केवल बेत फर्नीचर या अन्य मूल्यवर्धित वस्तुओं पर 18 प्रतिशत की उच्च दर का कर लगाया जाता है।
असम सरकार की हस्तशिल्प खुदरा दुकानों प्रागज्योति इम्पोरियम की चैन की गुवाहाटी शाखा का प्रबंधन करने वाले ज्ञानेंद्र कलिता ने अक्टूबर में Scroll.in को बताया था कि "जितना ग़लत हो सकता है उतना ग़लत हो चुका है"। जून 2017 में इम्पोरियम की औसत मासिक आय क़रीब 30 लाख थी जो सितंबर 2017 (नया टैक्स लागू होने से पहले का महीना) में घट कर12 लाख रुपए से भी कम हो गई।
बिक्री घटने के अलावा व्यापारियों को हर तीन महीने पर टैक्स रिटर्न दाख़िल करने के काम को निपटाना पड़ता था। हालांकि समय के साथ छोटे व्यवसायियों ने कर चुकाने की नई प्रक्रिया को समायोजित कर लिया है। उच्च टैक्स स्लैब के चलते बेत और बांस के फर्नीचर जैसे उच्च मूल्य वाले सामानों की बिक्री अभी भी प्रभावशाली नहीं है। असम सरकार के इम्पोरियम में फर्नीचर की आपूर्ति करने वाली कंपनी केनक्राफ्ट एंड अलाइड इंडस्ट्रीज के मालिक नवीन सूद ने स्क्रॉल को बताया था कि "फर्नीचर की बिक्री में 60% की कमी" आई थी।
जीएसटी के चलते मुंबई के प्रिंटिंग और पेपर उत्पाद क्षेत्र ने कई समस्याओं का सामना किया है। छोटे व्यवसायों के लिए नकद प्रवाह कम हो गया जिससे उद्योग में काफी गिरावट आई। इस कर के लागू होने के बाद इस उद्योग में खरीदारों की कमी दर्ज हुई और कारोबार में गिरावट आई। कार्यशील पूंजी की कमी भी हुई है जिसके चलते नियोक्ताओं को कई श्रमिकों को हटा दिया है। उत्पाद काफी महंगे हो गए हैं।
जीएसटी लागू होने के बाद छोटे व्यवसाय को काफी नुकसान पहुंचा है। हालांकि 20 लाख रुपए से कम कारोबार वाले व्यवसायों को जीएसटी नंबर की आवश्यकता नहीं है लेकिन ग्राहक केवल उनकारोबारियों के साथ काम करना चाहते हैं जो उन्हें जीएसटी नंबर दे सकते हैं ताकि वे क्रेडिट प्राप्त कर सकें। इसलिए छोटे व्यवसायियों का काम अब बड़ी कंपनियों के हाथों में चला गया है।
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