झारखंड: बिरसा मुंडा की मूर्ति तोड़े जाने से झारखंडी समाज में आक्रोश
9 जून को देश के नवनियुक्त गृहमंत्री अमित शाह ने अपने विशेष ट्वीट संदेश में कहा कि, "भगवान बिरसा मुंडा ने अंग्रेज़ों के दमन के विरुद्ध ‘उलगुलान' से ऐतिहासिक आंदोलन की शुरुआत की। उनकी पुण्यतिथि पर शत शत नमन।" इसी दिन प्रदेश की राजधानी रांची के कोकर स्थित बिरसा मुंडा समाधि स्थल पर माननीय राज्यपाल और उनके साथ मुख्यमंत्री ने उनकी समाधि पर फूल चढ़ाये। मुख्यमंत्री जी ने तो अपने ट्वीट संदेश में यह भी लिखा कि, "हमारी सरकार धरती आबा बिरसा मुंडा के सपनों का झारखंड बनाने में जुटी है।" लेकिन तीन दिनों बाद ही जब बिरसा समाधि स्थल परिसर में लगी बिरसा मुंडा की आदमक़द प्रतिमा तोड़ दी गयी तो जाने क्यों इनमें से किसी ने भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। बल्कि वहाँ जाकर स्थिति को ठीक करने की कोई कोशिश भी नहीं की।
9 जून को जिस बिरसा समाधि स्थल पर सबने बिरसा की मूर्ति पर फूल चढ़ाकर उनकी स्मृति को नमन किया, 13 जून को ही उसी परिसर में स्थापित बिरसा की मूर्ति तोड़े जाने की ख़बर ने सबको मर्माहत और आक्रोशित कर दिया। सुबह से ही विभिन्न आदिवासी संगठनों, वामपंथी दलों और विपक्षी राजनीतिक दलों के साथ-साथ सामाजिक–नागरिक समाज के लोगों का हुजूम वहाँ जुटने लगा। सभी एक स्वर से दोषियों को अविलंब गिरफ़्तार करने और सज़ा देने की मांग कर रहे थे। मौक़े पर पहुँची पुलिस को लोगों के बढ़ते आक्रोश को नियंत्रित करने में काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी। वहाँ पहुँचे भाजपा के स्थानीय विधायक व प्रदेश के नगर विकास मंत्री को भी लोगों की खरी खोटी सुनकर वापस लौटना पड़ा। हालांकि घटना की जानकारी होते ही मुख्यमंत्री ने मामले की पूरी जांच और दोषियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई के निर्देश दे दिये। आनन फ़ानन में क्षतिग्रस्त मूर्ति को ठीक करवाया गया।
इस घृणित कांड के ख़िलाफ़ राजधानी रांची समेत पूरे प्रदेश के कई इलाक़ों में सड़कों पर प्रतिवाद जारी है। 15 जून को राजधानी रांची समेत कई आदिवासी बहुल्य इलाक़ों में ‘बंद‘ भी बुलाया गया। जिसे ख़ुद को राष्ट्रभक्त होने का चैंपियन कहने वाली भाजपा और एनडीए गठबंधन दलों को छोड़कर प्रदेश के वामपंथी दलों समेत विपक्ष के सभी दलों ने सक्रिय समर्थन दिया। हैरानी की बात यह भी रही कि बिरसा को भगवान कहने वाले तथाकथित हिंदुवादी राष्ट्रभक्तों की चौकड़ी भी बिरसा मुंडा के इस अपमान पर रहस्यमय ढंग से मौन व्रत साधे रही।
स्थानीय प्रशासन का ‘दिव्य अनुमान‘ है कि बीती रात तेज़ हवा चलने से ही मूर्ति क्षतिग्रस्त हुई होगी। लेकिन विभिन्न आदिवासी संगठनों और लोकतंत्र पसंद नागरिक समाज और विपक्ष समेत सभी का मानना है कि यह कांड पूरी तरह से सुनियोजित है। जिसके तहत एक ख़ास विचारधारा के लोग अपनी सामाजिक दबंगता थोपने के लिए इन दिनों पूरे देश में स्थापित सर्वमान्य जननायकों – व्यक्तित्वों की मूर्तियों को तोड़ने का कुचक्र चला रहें हैं। वर्तमान भाजपा राज में इन्हें बेलगाम होने की इस क़दर छूट मिली हुई है गोया यह सरकार का अपना एजेंडा हो। दक्षिण में पेरियार, पश्चिम बंगाल में ईश्वरचंद विद्यासागर और त्रिपुरा में लेनिन से लेकर आए दिन गांधी और अंबेडकर की मूर्तियों को तोड़ने की कई घटनायेँ हो चुकी हैं। अब तक ऐसे किसी भी कांड के दोषियों को न तो पकड़ा जा सका है और न ही किसी को कोई सज़ा मिली है। बल्कि इन सभी शर्मनाक घटनाओं पर वर्तमान सरकार और उसके कतिपय राष्ट्रभक्त नेताओं की चुप्पी तमाशाई भूमिका लिए हुए है।
एक ख़ास विचारधारा के लोगों पर मूर्ति तोड़ने का संदेह किया जाना आधारहीन नहीं है। क्योंकि मूर्तियाँ तोड़ने की घटनाएँ पहले भी हुईं हैं लेकिन 2014 में केंद्र और प्रदेश के शासन में भाजपा के क़ाबिज़ होते ही ये एक स्थायी परिघटना बनती जा रही है। 2017 में संताल परगना के गमहरिया – कान्ड्रा में सिद्धो – कानू की मूर्ति तोड़ दी गयी। 2019 में बिहार के भागलपुर में तिलका मांझी की प्ररिमा तोड़ दी गयी। इसके अलावे भी छिटपुट तौर पर मूर्तियाँ तोड़ने की घटनाएँ आए दिन बदस्तूर जारी हैं। इन सभी घटनाओं पर स्थानीय प्रतिवाद भी हुए हैं लेकिन 13 जून को राजधानी में बिरसा मुंडा की मूर्ति तोड़ने की जघन्य घटना ने व्यापक झारखंडी जन भावना को काफ़ी उद्वेलित कर दिया है। विशेषकर राज्य के आदिवासी समाज में काफ़ी आक्रोश है जिसकी अभिव्यक्ति विभिन्न इलाक़ों के जनप्रतिवादों में हो रही है। वे इसे अपने ही राज्य में अपने प्रतीक जन नायकों की सामाजिक–सांस्कृतिक विरासत और परंपरा को अपमानित करने की सुनियोजित कुचेष्टा मान रहें हैं। इसीलिए इस मुद्दे को एक राज्यव्यापी स्वरूप देने की प्रक्रिया काफ़ी सरगर्म है जो फिलहाल थमती नहीं दिख रही है। 20 जून को इस संदर्भ में सारे आदिवासी व सामाजिक जन संगठन मिलकर बैठने वाले हैं। वैसे भी हाल के दिनों में वर्तमान सरकार के संरक्षण में संघ परिवार व उसकी अनुसंगी इकाइयों द्वारा आदिवासी समाज के अंदर घुसपैठ के प्रभाव का असर लोकसभा चुनाव में सामने आ चुका है। जिस पर इस समुदाय के बड़े हिस्से में गहरी चिंता और क्षोभ पहले से ही है। बिरसा मुंडा की मूर्ति तोड़ने की घटना ने इसे तीखा बना दिया है।
कुछ एक आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ताओं की नज़र में यह घटना अगले नवंबर–दिसंबर माह में होने वाले विधान सभा चुनाव में हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण से जुड़ा मामला है। उनके अनुसार चुनाव झारखंडी और हिन्दू वोटरों के बीच विभाजन कराने के लिए ही ऐसी घटनाएँ कराई जा रहीं हैं ताकि झारखंडी उम्मीदवारों को मिलने वाले हिन्दू वोट भाजपा की ओर चले जाएँ।
बिरसा मुंडा व उनकी विरासत परंपरा की व्यापक झारखंडी समाज में आज भी सर्वमान्य मान्यता हासिल है। उनकी मूर्ति तोड़े जाने के ख़िलाफ़ 15 जून को एक ओर, राजधानी के मुख्य चौराहे पर लोग ‘बंद‘ के समर्थन में गिरफ़्तारियाँ दे रहे थे तो बिरसा समाधि स्थल पर विभिन्न सामाजिक–आदिवासी जन संगठनों के समूहिक उपवास कार्यक्र्म कर रहे थे। जिसमें बिरसा मुंडा के वंशज सुखराम मुंडा भी शामिल हुए। अपने पुरखा की मूर्ति तोड़े जाने से मर्माहत होते हुए भी उन्होंने स्पष्ट कहा कि धरती आबा बिरसा मुंडा की मूर्ति तोड़ने से उनके विचारों को नहीं मारा जा सकता!
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