क्या होता अगर ‘इस्लामिक राज्य’ नहीं होता?
इस सवाल का जवाब देने के क्रम में, किसी को भी इसके भू-राजनीतिक और वैचारिक दायरे से बाहर आना होगा.
लचीली भाषा
मीडिया (चाहे वह पश्चिमी का हो या अरब का) सभी किसी भी आन्दोलन को ब्रांड करने के लिए “इस्लामिक’ सन्दर्भ का इसेमाल करते हैं फिर चाहे वह राजनीतिक, आतंकवादी या फिर दान आधारित आन्दोलन हो। और अगर इसमें दाढ़ी वाले मर्द या सर पर कपड़ा बाँधने वाली महिलायें हो तो उसके लिए कुरान-ए-पाक और इस्लाम का सन्दर्भ दिया जाता है जिसे उनके विचारों के पीछे एक प्रेरक के रूप में माना जाता है, हिंसक रणनीति या यहाँ तक कि अच्छे कामों के लिए भी ‘इस्लामिक’ शब्द का इस्तेमाल पसंदीदा भाषा के रूप में किया जाता है। इस दबंग तर्क के अनुसार, मलेशिया में दान आधारित गतिविधि भी और नाइजीरिया के आतंकवादी समूह बोको हरम के रूप में 'इस्लामी' गतिविधि भी इस्लामिक हो सकती है। जब राजनीती और इस्लाम की बहस में पहली बार “इस्लामी” शब्द का प्रयोग किया गया, इसका ज्यादातर बौद्धिक अर्थ के लिए इस्तेमाल किया गया। यहां तक कि कुछ "इस्लामवादियों" ने अपनी राजनीतिक सोच के संदर्भ में इसका इस्तेमाल किया। और आजकल, इसका कुछ भी मतलब निकाला जा सकता है।
अगर आई.एस. नहीं होती, काफी लोग इस क्षेत्र में इसे बनाने के इच्छुक होते।
इस्लाम और राजनीति के सम्बन्ध में चर्चा के लिए उसके इर्द-गिर्द जानबूझकर इस्तेमाल किये जाने वाला केवल यही एक सुविधाजनक शब्द नहीं है। ज्यादातर लोग जानते हैं कि चाहे वह अमरीका के जॉर्ज बुश हों या रूस के व्लादिमीर पुतीन, वे कैसे “आतंकवाद” के शब्द को देश की राष्ट्रीय या विदेश नीति के लिए असंख्य तरीकों से इस्तेमाल करते हैं। वास्तव में, इनमें से कुछ नेता एक-दुसरे पर आतंकवाद को गले लगाने या उसे बढ़ावा देने का आरोप लगाते हैं और अपने आपको आतंकवाद के खिलाफ लडाई का योद्धा बताते हैं। अमरीका का "आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध" बेहद विनाशकारी था इसलिए जिसकी वजह से उसने बुरी ख्याति प्राप्त की। लेकिन कई अन्य सरकारों ने हिंसक परिणामों के चलते इसके खिलाफ विभिन्न डिग्री के युद्धों में स्वयं झोंक दिया। भाषा के उपयोग का बहुत ज्यादा लचीलापन दिल की कहानी की तरह है, जिसमें आई.एस. भी शामिल है। हमें बताया गया की यह ग्रुप विदेशी जिहादियों के द्वारा बनाया गया है। इसमें काफी सच्चाई भी हो सकती थी, लेकिन इस धारणा को ज्यादा विवाद के बिना स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
विदेशी खतरा
सीरिया के राष्ट्रपति बशर-अल-असद की सरकार “विदेशी जिहादी” के दावे पर इतना जोर क्यों दे रही है और उस वक्त जब पूरा देश गृह युद्ध की चपेट में है, उसके इस व्यवहार से लगता है कि वह अभी भी बचपन की अवस्था में है, यह तो लोकप्रिय विद्रोह और एक सशस्त्र विद्रोह के बीच कदमताल है? इन्ही कारणों से इसराइल ईरान के खतरे पर जोर देता रहा हैं, और कह रहा है कि फिलिस्तीन में हमास के नेतृत्व वाली और लेबनान में हिज़बुल्लाह के प्रतिरोध की हर चर्चा में इसराइल अपने संभावित "नरसंहार" की कहानी सुना रहा है। यह सही है कि हमास-इरान में आपसी सम्बन्ध है, लेकिन क्षेत्रीय कारणों के चलते यह संपर्क कमज़ोर पड़ा है। लेकिन इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू की नज़र में इरान इस चर्चा के केंद्र में है।
इसके कई उदहारण है जिसमें मध्य पूर्व की सरकारें जब भी वे अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं, हिंसा या अन्य किसी मामले से जूझती हैं तो वे हमेशा “विदेशी खतरे” के तथ्य को पूरी तरह से लोगों के जहन में बैठा देती हैं। इसके पीछे बड़ा ही साधारण सा तर्क है: अगर सिरियन गृह युद्ध को विदेशी आतंकियों ने हवा दी है तो अल-असद सरकार के लिए आसान होगा कि वह विदेशी जिहादियों को कुचलने के नाम पर देश के जिहादियों को भी ठिकाने लगा दे। इस तर्क के अनुसार बशर एक निरंकुश तानाशाह की जगह राष्ट्रीय नायक बन जाएगा।
नेतनयाहू राजनीतिक गुमराही का मास्टर बना रहता है। वह किसी भी रास्ते के जरिए जो भी उसके लिए सही है,शान्ति वार्ता और ईरान समर्थित फिलिस्तीनी ‘आतंक’ के बीच संदेह की सुईं घुमाता रहता है। यही वजह है की इस्रायल अपनी इच्छा अनुसार अपने आपको एक विदेशी समर्थक आतंकवाद का शिकार साबित करता है। इस्रायल द्वारा गाजा में नरसंहार के बाद जिसमे उसने करीब 2200 फिलिस्तीनियों को मौत के घाट उतार दिया गया और करीब 11,000 लोगों को घायल कर देने के बाद भी उसने एक बार फिर वैश्विक ध्यान को यह कहकर आकर्षित करने की कोशिश की, कि इस्रायली सीमा पर इस्लामिक राज्य इसके लिए जिम्मेदार है। "सीमा पर विदेशी फ़ौज" का उपयोग किया जा रहा है, हालांकि बड़े ही अप्रवाभी ढंग से मिश्र के अब्दुल-फतहअल-सीसी भी इस तर्क में शामिल हुए। इस सुविधाजनक माहौल के हिसाब से बड़ी बेताबी से उसने इसकी चर्चा की और असंख्य दावे किये कि लीबिया, सुडान और सिनाई की सीमा पर विदेशी मौजूद है। कुछ दुर्बोध लोगो ने मिस्र द्वारा नियंत्रित मीडिया पर विश्वास नहीं किया। हालांकि, वह खुद पिछले साल मोहम्मद मोरसी की मुस्लिम ब्रदरहुड की लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार को उखाड़ फैंकने की मिस्र में हुई घटनाओं की उपेक्षा नहीं कर सकते। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जब आई.एस. के विरुद्ध युद्ध शुरू करने का फैसला लिया, सीसी ने सबसे पहले “जिहादियों” के खिलाफ लड़ाई में अपने आपको शामिल किया ताकि वह इस बहाने मुस्लिम ब्रोदरहुड पार्टी के समर्थकों के खिलाफ लड़ाई छेड़ सके। आखिरकार वे दोनों ही “इस्लामिक” है।
अमरीका की पश्चिमी नियत
अमरीका और उसके पश्चिमी सहयोगियों के लिए युद्ध के पीछे के तर्क और युद्ध से जुडी चर्चा जिसे कि पिछली अमरीकी सरकारों ने लुप्त कर दिया खासतौर पर डब्लू.बुश व उसके पिता की सरकार द्वारा। यह उस अधूरे युद्ध का दूसरा अध्याय है जिसे कि पिछले 25 सालों से ईराक के खिलाफ लड़ा जा रहा है। कुछ मामले में, इस्लामी राज्य, अपनी क्रूर रणनीति के साथ, अमेरिकी दखलंदाजियों का सबसे बुरा संभव नतीजा है।
पहले इराक युद्ध (1990-91) में, अमेरिका के नेतृत्व वाला गठबंधन, कुवैत से इराकी सेना को बाहर खदेड़ने के स्पष्ट लक्ष्य के साथ आया था, और इसके पीछे उसका मकसद मध्य पूर्व के देशों पर अपना शिक्का जमाने की शुरुवात का था। जॉर्ज ने महसूस किया कि अगर एक हद से ज्यादा कुछ करते हैं तो इसके नतीजतन पूरे हलके में इरान एक शक्तिशाली ताकत बन जाएगा वह भी अमरीका और उसके अरब सहयोगियों के बल पर। इसलिए ईराक में खुद निजाम के बदलाव की पहलकदमी न करके, अमरीका ने इराक पर एक दशक तक आर्थिक शिकंजा कस दिया – एक घुटन भरी आर्थिक नाकेबंदी जिसके परिणामस्वरूप लाखों इराकी नागरीक मारे गए। इस क्षेत्र में अमेरिका की 'रोकथाम' की नीति का यह स्वर्ण युग था।
हालांकि मध्य पूर्व में बुश के बेटे डब्लू.बुश के तहत अमरीका की नीति में एक नयी शक्ति आई जिसकी वजह से 2003 में दूसरा इराक युद्ध हुआ और उसने इन नए तत्वों द्वारा राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया। सबसे पहले तो, 11 सितंबर 2001 के हमलों को इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को अल कायदा से जुड़े होने के नाम पर किया गया ताकि युद्ध में जनता को गुमराह किया जा सके; दुसरे उस समय अमरीका में एक नव रूढ़िवादी राजनीतिक विचारधारा का असर भी बढ़ रहा था। नव रूढ़िवादी शासन परिवर्तन सिद्धांत में विश्वास करते थे जिसमें वे पूरी तरह विफल साबित हो गए। यह केवल विफलता नहीं थी बल्कि एक अमरीका के लिए एक आपदा थी। आज इस्लामिक स्टेट(आई.एस.) का उभार वास्तव में दुखद और इराक में एक भयावह बिंदु है जिसकी शुरुवात डब्लू.बुश ने अपने "दहशत और खौफ के अभियान” से की थी। इसकी वजह से बग़दाद ढह गया, देश के संस्थानों को (इराक से बाथ पार्ट्री के नामोनिशान मिटाने के मकसद से) नेस्तनाबूद कर दिया गया और "मिशन पूरा" भाषण दिया गया। तभी से एक के बाद एक घटना घटती रही। इराक में अमेरिकी रणनीति इराकी राष्ट्रवाद को नष्ट करने और सांप्रदायिकता के एक खतरनाक रूप को स्थापित करना था और जिसकी वजह से अमरीका ने "विभाजन और जीत" की कपट का इस्तेमाल किया। लेकिन न तो शिया एकजुट रहे, न ही सुन्नी बल्कि पहले से भी निचली स्थिति में चले गए। और क्या कुर्द एक खुले इराक के हिस्सा के प्रति प्रतिबद्ध रहे।
अल कायदा कनेक्शन
अमेरिका वास्तव में इराक में फूट डालने में सफल रहा है, शायद सीमाओं के सम्बन्ध में तो नहीं, लेकिन निश्चित तौर पर अन्य मामलों में वह कामयाब रहा। इसके अलावा, इराक युद्ध वजह से अल कायदा प्रवेश कर गया। इराक में और मध्य पूर्व में अमेरिका युद्ध, आक्रमण और अत्याचार के खिलाफ अल-कायदा ने लड़ाकों की भर्ती की। चीनी की दूकान में बैल की तरह अमरीका ने इराक में और अत्याचार किये और आदिवासी पहचान का संकीर्ण इस्तेमाल करते हुए विरोध को दबाया और इराकियों को आपस में लड़ाया।
जब अमेरिका लड़ाकू सैनिकों ने कथित तौर पर इराक से विदा ली, उन्होंने अपने पीछे एक तबाह देश, लाखों शरणार्थी यहाँ से वहां भटकते हुए, गहरे सांप्रदायिक विभाजन, एक क्रूर सरकार, और एक सेना जो ज्यादातर अतीत के खून से लथपथ शिथिल संयुक्त शिया लड़ाकों की फ़ौज को छोड़ा।
माना जाता है कि अल कायदा उसके बाद से इराक में कमजोर हो गया था। वास्तव में अमरीकी घुसपैठ से पहले इराक में अल-कायदा का कोई वजूद नहीं था, अमरीका की वापसी के तुरंत बाद अल-कायदा अन्य आतंकी ग्रुपों के साथ जुड़ गया। वे अब इस क्षेत्र में अधिक से अधिक चपलता के साथ जाने में सक्षम थे, और जब सीरिया के विद्रोह को क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय शक्तियों द्वारा जानबूझकर-हथियारों से लैस किया जा रहा था, और फिर अल कायदा, अविश्वसनीय शक्ति के साथ जाग उठा, फिर वह कौशल और अद्वितीय प्रभाव के साथ लड़ा। आई.एस. की जड़ों के बारे में गलत सूचना के बावजूद, इराक में अल कायदा और आई.एस. एक ही हैं। वे एक ही विचारधारा का हिस्सा है वे केवल सीरिया में विभिन्न समूहों में संगठित हैं। उनके मतभेद एक आतंरिक मामला है, लेकिन उनका उद्देश्य आपस में मिलता-जुलता है।
कारण यह है कि उपरोक्त बिंदु को अक्सर नज़रंदाज़ किया जाता है, क्या यह अभिकथन एक स्पष्ट अभियोग है कि इराक युद्ध की वजह से आई.एस. पैदा हुआ है, और क्या सिरिया टकराव को ठीक से न संभालने की वजह से आई.एस. ने कट्टरपंथी राज्य की स्थापना कर दी जोकि सिरिया के उत्तर-पूर्व से इराक तक जाता है।
आई.एस. को मौजूद होना चाहिए है
अमेरिका-पश्चिमी देश तथा अरब के बीच आई.एस से लड़ाई में कुछ मतभेद हो सकते हैं, लेकिन दोनों पक्षों में युद्ध में भाग लेने में गहरी रुचि है और इससे भी ज्यादा अपनी जिम्मेदारी को स्वीकार करने से इनकार करना कि वे इस हिंसा के लिए जिम्मेदार नहीं हैं और यह लडाई कोई शून्य में शुरू नहीं हुयी है। अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगियों, अल कायदा और इराक और अफगानिस्तान के हमलों के बीच कोई भी स्पष्ट लिंक मानने को तैयार नहीं हैं। अरब नेता इस पर जोर देते हैं कि उनके देश कुछ "इस्लामी" आतंक के शिकार है, वे मानते हैं कि यह आतंक उनकी जनतंत्र-विरोधी और शोषण युक्त नीतियों का नतीजा नहीं है बल्कि वह तो चेचन्या और अन्य विदेशी लड़ाकुओं की वजह से जो अंधकारमयी हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं अन्यथा ये क्षेत्र तो काफी शान्तिशील और स्थायी राजनितिक क्षेत्र है।
इस झूठ को ज्यादातर मीडिया द्वारा पुख्ता किया जा रहा है जिसके तहत वे आई.एस. के आतंक को उजागर करते हें लेकिन साथ ही अन्य भयावहता की बात करने से मुकरते हैं जिसकी वजह से आई.एस. आस्तित्व में आया। वे आई.एस. के बारे में बोलने पर जोर देते हैं जैसे कि यह सब संदर्भों, उसके अर्थ और अभ्यावेदन से पूरी तरह स्वतंत्र घटना से रहित हो।
अमेरिका के नेतृत्व वाले गठबंधन के लिए, गठबंधन के हर सदस्य की उनकी इसमें भागीदारी के लिए समझाने के लिए अपने स्वयं के तर्क मौजूद है। और चूँकि आई.एस. दूर की भूमि या "विदेशी जिहादियों" से बना है, वे ऐसी भाषा बोलते हैं जिसे कि कुछ अरब और पश्चिमी लोग समझते हैं, फिर ऐसा माना जाता है जिसकी कोई भी इसके लिए जिम्मेदार नहीं है, और मध्य पूर्व में मौजूदा घटनाएं किसी और की देन है। इसलिए सीरियन नरसंहार के बारे में बोलने की जरूरत नहीं है, क्योंकि स्वाभाविक तौर पर यह समस्या तो विदेशी है।
अगर तथाकथित इस्लामिक राज्य स्थायित्व में नही होता, तो कई लोग इस क्षेत्र में उसे पैदा करने के इच्छुक होते।
रमज़ी बरौड लोक-इतिहास में एक्सेटर विश्विधालय से पी.एच.डी. हैं। वे मिडल ईस्ट ऑय के प्रबंध संपादक है। बरौड एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सिंडिकेटेड स्तंभकार है, एक मीडिया सलाहकार, लेखक PalestineChronicle.com के संस्थापक हैं। उनकी हाल की पुस्तक ‘माई फादर वाज़ ए फ्रीडम फाईटर: गाजास अनटोल्ड स्टोरी है (प्लूटो प्रेस, लन्दन)।
हिंदी अनुवाद : महेश कुमार
सौजन्य: ramzybaroud.net
(अनुवाद- महेश कुमार)
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