मोदी सरकार की राजकोषीय मूढ़ता, वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी की मांगों से मेल खाती है
मोदी सरकार, सरकारी खर्चों के लिए संसाधन जुटाने के अपने मुख्य साधन के रूप में, पेट्रोलियम उत्पादों पर कर बढ़ाने में लगी रही है। विडंबना यह है कि इस तरह के रास्ते से दोहरी चोट पड़ रही है। एक ओर तो इससे अर्थव्यवस्था को आवश्यक गति नहीं मिल रही है और दूसरी ओर, उसकी जगह पर मुद्रास्फीति को बढ़ावा मिल रहा है। अगर इसकी जगह पर, धनी लोगों पर प्रत्यक्ष कर लगाने के जरिए संसाधन जुटाने का रास्ता अपनाया जाता, जिसका बेहतरीन उपाय संपदा कर लगाना है और इस कर की प्राप्तियों का उपयोग सरकारी खर्चों को बढ़ाने के लिए किया गया होता, तो इस वैकल्पिक राजकोषीय नीति ने अर्थव्यवस्था को गति भी दिया होता और मुद्रास्फीति की दर को भी नीचा बनाए रखा होता।
यह समझने के लिए कि ऐसा ही क्यों हुआ होता, हम एक सरल सा उदाहरण ले सकते हैं। मान लीजिए की सरकार 100 रुपये अतिरिक्त खर्च करना चाहती है और इसके लिए संसाधन जुटाने के लिए पेट्रोलियम उत्पादों पर कर बढ़ाने का सहारा लेती है। इससे होगा यह कि पेट्रोल व डीजल के दाम बढ़ जाएंगे। इससे परिवहन के खर्चे बढ़ जाएंगे और पूरी अर्थव्यवस्था में लागत ऊपर उठने का दबाव पैदा होगा। इसके अलावा, इस क्रम में रसोई गैस के दाम भी बढ़ रहे होंगे, जिससे सीधे गुजारे के खर्च में बढ़ोतरी होगी। इसी वजह से पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी की चोट, संपन्न तबकों पर उतनी नहीं पड़ती है, जितनी कि मेहनतकशों पर पड़ती है। लेकिन, मेहनतकश जनता तो वैसे भी अपनी आय के अधिकांश हिस्से का उपभोग कर लेती है। इसलिए, कीमतों के बढऩे से अगर उनकी वास्तविक आय नीचे खिसकती है, तो उनके वास्तविक उपभोग में भी उसी अनुपात में गिरावट हो जाती है। इसलिए, पेट्रोलियम उत्पादों पर कर बढ़ाने के लिए 100 रुपये अतिरिक्त जुटाया जाना, अर्थव्यवस्था में उपभोग मांग में भी करीब इतनी ही राशि की कमी कर देता है, फिर भले ही सरकार इस राशि को खर्च करके, सकल मांग में 100 रुपये की बढ़ोतरी ही क्यों नहीं कर रही हो। इस सूरत में सकल मांग में शुद्ध बढ़ोतरी बहुत ही मामूली होगी। इसीलिए, इस तरह की पूरी राजकोषीय नीति अर्थव्यवस्था को गति देने में विफल ही रहती है।
लेकिन, इसके साथ ही इस राजकोषीय नीति के चलते, कीमतें बढ़ रही होंगी और आखिरकार इसी की वजह से तो मेहतनकशों का उपभोग घट रहा होगा। इस तरह, वह दोहरी मार ही पड़ रही होगी, जिसका हमने पीछे जिक्र किया था। मुद्रास्फीति की दर बढऩे के बावजूद, अर्थव्यवस्था को शायद ही कोई गति मिल रहा होगा। भारतीय अर्थव्यवस्था में इस समय ठीक ऐसा ही हो रहा है। मुद्रास्फीति की दर बढ़ रही है, जो 2021 के अक्टूबर के महीने में, 2020 के अक्टूबर की ही तुलना में 4.48 फीसद से बढ़ोतरी दिखा रही थी। और दूसरी ओर, औद्योगिक सुस्ती बनी हुई है और इसके साथ ही साथ, भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में भारी मात्रा में अनाज जमा हैं। 2021 के सितंबर के महीने में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक, पिछले साल के इसी महीने से सिर्फ 3.1 फीसद बढ़ोतरी दिखा रहा था, जबकि इससे पहले वाले महीने यानी 2021 के अगस्त की तुलना में, 2.6 फीसद कमी को ही दिखा रहा था।
इसलिए, मोदी सरकार द्वारा चलायी जा रही राजकोषीय नीति, मुद्रास्फीति के जरिए मेहनतकश जनता से उसकी प्रति व्यक्ति आय का एक हिस्सा निचोड़ लेती है और दूसरी ओर रोजगार में बढ़ोतरी भी नहीं करती है। इस प्रकार की नीति सरकार को ऐसे हालात में तो बिल्कुल नहीं अपनानी चाहिए, जब निरूपयोग पड़ी औद्योगिक क्षमता तथा खाद्यान्नों के विशाल भंडारों के रूप में, अर्थव्यवस्था में इतना बड़ा ‘झोल’ बना हुआ हो। ऐसे हालात में तो, जो उन हालात से मेल खाते हैं, जिन्हें अर्थशास्त्री ‘‘नॉन जीरो सम गेम’’ यानी ऐसी स्थिति कहते हैं, जहां यह जरूरी नहीं होता है कि किसी एक का लाभ दूसरों की कीमत पर ही हो, रोजगार में बढ़ोतरी करने के जरिए, मेहनतकश जनता की दशा बेहतर की जा सकती है। दूसरी ओर पूंजीपतियों के मुनाफों तथा संपदा पर कोई आंच आए बिना ही, शासक वर्गों की ही सरकार बुनियादी ढांचे पर कहीं ज्यादा निवेश भी कर सकती है। लेकिन, अर्थव्यवस्था में मौजूद इस ‘झोल’ का ढ़ांचागत क्षेत्र पर और ज्यादा निवेश करने के लिए उपयोग करने के बजाए, मोदी सरकार तो बुनियादी ढांचे पर अतिरिक्त निवेश करने के लिए, मेहनतकश जनता को ही निचोड़ रही है। और अब तो इस निवेश में भी कटौती कर दी गयी है। दूसरी ओर, अर्थव्यवस्था में मौजूद ‘झोल’ को अनछुआ ही छोड़ दिया गया है।
अब आइए, एक वैकल्पिक नीति पर विचार कर लेते हैं। मान लीजिए कि सरकार, पेट्रोलियम उत्पादों पर कर घटा दे और इससे पहले वाले उदाहरण में जितना खर्च कर रही थी, उतना खर्च राजकोषीय घाटे को बढ़ाने के जरिए कर रही हो, तो साफ तौर पर सकल मांग में बढ़ोतरी हो रही होती। ऐसा इसलिए होगा कि सरकार के खर्चे के (इस उदाहरण में 100 रुपये से) बढ़ऩे से, मांग में जो बढ़ोतरी होगी, उसे अर्थव्यवस्था में ही कहीं अन्यत्र मांग में कमी के प्रति संतुलित नहीं कर रही होगी क्योंकि उस सूरत में संसाधन जुटाने के लिए किसी पर अतिरिक्त कर लगाया ही नहीं जा रहा होगा। इससे, अर्थव्यवस्था में गतिविधि तथा रोजगार का स्तर बढ़ेगा, जबकि मुद्रास्फीति में कमी होगी। इसलिए, मुद्रास्फीति नियंत्रण तथा रोजगार निर्माण, दोनों ही पहलुओं से यही बेहतर विकल्प होगा। मेहनतकश जनता को, मुद्रास्फीति घटने से भी लाभ होगा और रोजगार बढऩे से भी।
बहरहाल, सरकार के खर्चों में राजकोषीय घाटे से संचालित बढ़ोतरी की समस्या कुछ और ही है। इससे, मुफ्त में ही संपत्ति असमानता में बढ़ोतरी होती है। राजकोषीय घाटे का मतलब होता है, घरेलू निजी क्षेत्र से ऋण लिया जाना (हम सरलता के लिए विदेश से ऋण के पहलू को इससे अलग ही रख रहे हैं)। बुनियादी तौर पर इसका अर्थ है, घरेलू धनवानों यानी पूंजीपतियों और उनके लग्गे-भग्गों से कर्ज लिया जाना। लेकिन, इस उदाहरण में सरकार इन घरेलू धनवानों से जो 100 रुपये ऋण के रूप में ले रही होगी, उतना ही धन सरकारी खर्चे में बढ़ोतरी के जरिए, आर्थिक गतिविधियों के स्तर में बढ़ोतरी के जरिए, उन्हीं के हाथों में पहुंचा रही होगी। लेकिन, इन वर्गों को उक्त राशि मुहैया कराने के लिए, सरकारी खर्च में उक्त बढ़ोतरी से पहले की स्थिति के मुकाबले, अपने उपभोग में कोई कमी नहीं करनी पड़ रही होगी। उनके हाथों में तो इस पूरे चक्र के जरिए ही 100 रुपये की उक्त बचत आ रही होगी और यह बचत, पहले वाली स्थिति के मुकाबले उनके अपने उपभोग में बढ़ोतरी करने के बावजूद, उनके हाथों में पहुंच रही होगी। इसलिए, राजकोषीय घाटे से वित्त-पोषित सरकारी खर्च, घरेलू धनवानों को मुफ्त का उपहार देता है। वे अपने उपभोग और संपदा, दोनों में बढ़ोतरी कर सकते हैं, क्योंकि बचतों का अर्थ संपदा में बढ़ोतरी होता है। इस सब के लिए उन्हें कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ेगी। यह तो सिर्फ उन्हें एक मुफ्त उपहार दिए जाने का मामला है और यह उपहार मजदूरों की कीमत पर नहीं दिया जा रहा होता है बल्कि अर्थव्यवस्था में ‘झोल’ मौजूद होने के चलते ही दिया जा रहा होता है।
यहीं हम प्रत्यक्ष कर पर आ सकते हैं। अगर, घरेलू धनवानों पर लगने वाले कर में 100 रुपये की बढ़ोतरी होती है, तो सरकार का बजट भी संतुलित बना रहेगा क्योंकि सरकार अगर 100 रुपये अतिरिक्त खर्च कर रही होगी, तो 100 रुपये का ही अतिरिक्त राजस्व एकत्र कर रही होगी। उस सूरत में न तो घरेलू धनवानों से सरकार के ऋण लेने का कोई सवाल उठेगा और न उनकी बचतों में 100 रुपये की बढ़ोतरी का सवाल उठेगा और चूंकि उनकी बचतें, उनकी आय का ही एक खास हिस्सा होती हैं, उनकी आय में भी और इसलिए उनके उपभोग में भी, बढ़ोतरी का कोई सवाल नहीं उठेगा।
और विभिन्न प्रत्यक्ष करों में, संपदा कराधान ही सबसे अच्छा है। यह सीधे-सीधे निजी संपदा में उस बढ़ोतरी पर चोट करता है, जो यह कर न लगाए जाने की सूरत में सरकारी खर्चे में बढ़ोतरी के फलस्वरूप, घरेलू धनवानों के हाथों में पहुंची होती। धनवानों की कीमत पर प्रत्यक्ष कर राजस्व में बढ़ोतरी, मुद्रास्फीति को नीचा बनाए रखती है और मुफ्त में निजी संपदा में बढ़ोतरी भी नहीं करती है। संपदा कर राजस्व का एक अतिरिक्त लाभ यह है कि यह सीधे निशाने पर चोट करता है। और ऐसा भी नहीं है कि इस तरह के सरकारी खर्चे में संपदा कर संचालित बढ़ोतरी से, धनवानों की पहले से जमा संपदा में कोई कमी होती हो। यह तो सिर्फ उनकी संपदा में मुफ्त में हो सकने वाली बढ़ोतरी को रोकता है। इसलिए, सरकार के खर्चे की वित्त व्यवस्था करने का यह तरीका, मोदी सरकार इस समय जो कर रही है, उससे बेहतर तो है ही, जिसमें वह पेट्रोलियम उत्पादों पर लगने वाले करों के रूप में अप्रत्यक्ष करों को बढ़ा रही है। यह रास्ता, राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी का सहारा लिए जाने से भी बेहतर है।
तब क्या वजह है कि सरकार इस उपाय का सहारा नहीं ले रही है और इसकी जगह पर राजकोषीय मूढ़ता के रास्ते पर चल रही है, जो मेहनतकश जनता पर दोनों तरह से हमला करती है। वह एक ओर तो बेरोजगारी को ज्यादा बनाए रखती है और दूसरी ओर मुद्रास्फीति को बढ़ाने के जरिए, उनकी प्रति व्यक्ति वास्तविक आय को घटाती है। हमें इस सवाल का जवाब मिलेगा, वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी द्वारा पेश की जाने वाली मांगों में और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं के नुस्खों में, जो इन मांगों के उठाए जाने के लिए माध्यम की तरह काम करती हैं। वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी संपदा कर के ही खिलाफ है क्योंकि इसकी चोट उस कार्पोरेट-वित्तीय कुलीनतंत्र पर पड़ती है, जो उसके साथ जुड़ा हुआ है। इतना ही नहीं, वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी के भी खिलाफ है। इसीलिए तो, एफआरबीएम जैसे कानून बनाए गए हैं, जो इसकी सीमा तय करते हैं कि राजकोषीय घाटा, जीडीपीए के एक खास फीसद से ऊपर जा ही नहीं सकता है। तब सरकार के पास अप्रत्यक्ष कर बढ़ाने का ही उपाय रह जाता है और मोदी सरकार को अप्रत्यक्ष कर राजस्व बढ़ाने का आसान उपाय यही लगता है कि पेट्रोलियम उत्पादों पर कर बढ़ाते जाओ। इस तरह, मोदी सरकार की राजकोषीय मूढ़ता, वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी की मांगों से बखूबी मेल खाती है।
लेकिन, अब जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम बढ़ोतरी पर हैं, इस तरह की राजकोषीय नीति पर ही चलते रहा जाता है, तो यह घरेलू अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति की दर बढ़ाने का ही काम करेगा। और अगर सरकार मुद्रास्फीति पर काबू पाना चाहती है तो, विश्व बाजार में तेल की कीमतों की संगति में घरेलू बाजार में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को बढ़ाने की जगह पर, उसे इन उत्पादों पर अपने करों में कुछ न कुछ कटौती ही करनी होगी, जैसा कि उसने पिछले ही दिनों किया भी था। लेकिन, इस तरह की कटौतियों की भरपाई वह, सरकारी खर्चों में ही कटौतियां करके करेगी, ताकि राजकोषीय घाटे को एक खास सीमा में रखा जा सके, ताकि वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी की नाराजगी नहीं झेलनी पड़े। इसलिए, यह विडंबनापूर्ण है कि ऐसे हालात में भी, जबकि अर्थव्यवस्था में काफी ‘झोल’ बना हुआ है, यह सरकार बेरोजगारी की स्थिति बदतर बनाने वाले उपायों से ही, मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने की कोशिश करने जा रही है।
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