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26 नवंबर को राष्ट्रीय लामबंदी के लिए किसान, मज़दूर एक बार फिर एकजुट होंगे

केंद्रीय ट्रेड यूनियनों और संयुक्त किसान मोर्चा की तरफ से किसानों के संयुक्त मोर्चे द्वारा शुरू किए गए राष्ट्रव्यापी आंदोलन में लाखों लोगों के शामिल होने की उम्मीद है।
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2020-2021 के किसान आंदोलन में महाराष्ट्र में हुई किसानों की रैली का दृश्य। फोटो: न्यूज़क्लिक

भारत के प्रमुख किसान संगठन और मजदूर यूनियनें मंगलवार, 26 नवंबर को एक राष्ट्रव्यापी लामबंदी की शुरुआत करने के लिए एक साथ आ रहे हैं, ताकि सरकार से देश के अधिकांश किसानों और मजदूरों की समस्याओं का समाधान करने की मांग की जा सके।

इस महीने की शुरुआत में संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) और केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के संयुक्त मंच द्वारा देशव्यापी विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया गया था। वामपंथी किसान संगठनों में अखिल भारतीय किसान सभा (एआईकेएस), अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन (एएलएडब्ल्यूयू) और भारत के सबसे बड़े ट्रेड यूनियन महासंघों में से एक सेंटर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीआईटीयू) ने लामबंद होने के आह्वान का हिस्सा हैं।

यह आंदोलन एक व्यापक मांगपत्र पर आधारित है, जिसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान दक्षिणपंथी सरकार द्वारा लागू किए गए सभी मजदूर विरोधी कानूनों को वापस लेना, तथा सभी कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम मूल्य पर कानूनी रूप से गारंटीकृत खरीद का कानून बनाना शामिल है।

अन्य प्रमुख मांगों में सभी के लिए न्यूनतम 200 दिन की नौकरी की गारंटी, 26,000 रुपये (लगभग 307 अमेरिकी डॉलर) का न्यूनतम वेतन, किसानों, कृषि और अन्य मजदूरों के लिए व्यापक कर्ज़ माफी की मांग भी शामिल है।

मोदी सरकार द्वारा पेश किए गए तीन कृषि बिलों के खिलाफ 2020-21 के आंदोलन के दौरान किसान संगठनों द्वारा गठित एसकेएम, सभी कृषि उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के लिए कानून बनाने के अपने वादों को पूरा करने में सरकार की विफलता का मुद्दा उठाता रहता है। एसकेएम का दावा है कि मोदी सरकार ने 9 दिसंबर, 2021 को एसकेएम के साथ एक लिखित समझौते में किसान आंदोलन को समाप्त करने की शर्त के रूप में ऐसा कानून बनाने का वादा किया था।

15 नवंबर को जारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, एसकेएम ने 7 नवंबर से देशभर के जिलों में डोर-टू-डोर अभियान शुरू कर दिया है। यह अभियान 25 नवंबर तक चलेगा, जिसमें प्रत्येक जिले के 100 गांवों को कवर करने का लक्ष्य रखा गया है, जिससे देशभर में कम से कम 50,000 गांवों तक पहुंचा जा सकेगा। इसका लक्ष्य में 26 नवंबर को देशभर के सभी जिला मुख्यालयों पर बड़ी संख्या में लोगों को एकत्रित करना है।

भारत में किसानों और कामकाजी आबादी के बीच बढ़ता संकट

एसकेएम ने अभियान के लिए पूरे भारत में किसानों और कृषि श्रमिकों की दुर्दशा को उजागर करने वाला एक पर्चा जारी किया है। इसमें दावा किया गया है कि ऐसे समय में जब "खेती की लागत और मुद्रास्फीति हर साल 12-15 फीसदी से अधिक बढ़ रही है, तब सरकार एमएसपी में केवल 2 से 7 फीसदी की वृद्धि कर रही है," जिससे देश में कामकाजी लोग और किसान संकट में हैं।

इसमें C2+50 फीसदी के सहमत फॉर्मूले के अनुसार कृषि उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने में सरकार की अनिच्छा का मुद्दा उठाया गया है। पर्चे में यह भी बताया गया है कि पर्याप्त मात्रा में फसल खरीदने में सरकार की विफलता के कारण बड़ी संख्या में किसान अपने उत्पाद को कम कीमत पर बेचने को मजबूर हैं, जिससे उन्हें घाटा हो रहा है और कई किसान खेती ही छोड़ रहे हैं।

एसकेएम का दावा है कि खेती में संकट, बढ़ती बेरोजगारी और औद्योगिक तथा शहरी क्षेत्रों में मजदूर वर्ग के अधिक शोषण के बीच सीधा संबंध है। सरकार किसानों को अपनी जमीन और फसलों को डिजिटल बनाने के लिए मजबूर करके खेती में कॉरपोरेटीकरण की शुरुआत कर रही है, जैसे कि डिजिटल कृषि मिशन, जिसकी घोषणा पिछले केंद्रीय बजट के दौरान की गई थी, भारत के संघीय चरित्र का उल्लंघन करते हुए एक केंद्रीय सहकारी मंत्रालय का गठन, और जीएसटी जैसे केंद्रीकृत कराधान को ऐसे समय में लागू करना जब यह उन्हें यूनियनीकरण और सामूहिक सौदेबाजी के कठिन अधिकारों को खत्म करके श्रमिकों का शोषण करने दे रही है।

एसकेएम का दावा है कि मोदी सरकार द्वारा लागू किए गए नए श्रम कोड “वैधानिक न्यूनतम मजदूरी, नौकरी की सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा, आठ घंटे का कार्य दिवस और यूनियन बनाने और सामूहिक सौदेबाजी के अधिकार की किसी भी गारंटी को रद्द कर देते हैं।”

भारत में श्रम से संबंधित चार नए कानून 2020 में पारित होने के बावजूद सभी प्रमुख ट्रेड यूनियनों के कड़े विरोध के कारण अभी तक लागू नहीं हो पाए हैं। मोदी सरकार ने इन्हें जल्द ही लागू करने का इरादा दोहराया है।

एसकेएम ने सरकार पर मजदूर वर्ग के लिए महत्वपूर्ण सामाजिक सुरक्षा को कम करने और भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा पर सब्सिडी कम करने का आरोप लगाया है। उदाहरण के लिए, बाजार मूल्य पर भोजन खरीदने में मजदूर वर्ग की असमर्थता अधिक से अधिक लोगों को खाद्य असुरक्षा की ओर धकेल रही है। यह संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों के आंकड़ों का हवाला देता है, जो दावा करते हैं कि भारत में 5 साल से कम उम्र के लगभग 36 फीसदी बच्चे कम वजन के हैं और 38 फीसदी बच्चे विकास में बाधा का सामना कर रहे हैं। यह बताता है कि भारत में लगभग 57 फीसदी महिलाएं और 67 फीसदी बच्चे पर्याप्त पौष्टिक भोजन की कमी के कारण एनीमिया से पीड़ित हैं।

शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल में निजीकरण ने भारत में बहुसंख्यक लोगों को बेहतर जीवन स्थितियों की किसी भी संभावना से वंचित कर दिया है, साथ ही लोकप्रिय हताशा का कॉर्पोरेट शोषण करने में भी मदद की है।

एसकेएम का दावा है कि मोदी सरकार प्रतिगामी करों के माध्यम से एकत्र किए गए सार्वजनिक धन को “विभिन्न मदों, पूंजीगत व्यय, उत्पादन से जुड़े रोजगार आदि के तहत प्रोत्साहन के रूप में निगमों को दे रही है”, जबकि ठेकेदारी प्रथा को बढ़ावा दे रही है और “नौकरी चाहने वाले युवाओं को सीधे गुलामी की ओर धकेल रही है”।

एसकेएम के अनुसार, "मोदी सरकार ने कॉर्पोरेट घरानों के लाखों डॉलर के कर्ज माफ कर दिए हैं, लेकिन व्यापक ऋण माफी और ऋण नीति के माध्यम से किसानों और कृषि श्रमिकों को ऋणग्रस्तता से मुक्त करने से इनकार कर दिया है।"

सौजन्य: पीपल्स डिस्पैच

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