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वैश्विक खाद्य संकट : घरेलू आत्मनिर्भरता ही एकमात्र रास्ता

खाद्य संकट रूस-यूक्रेन युद्ध के पहले से चालू है। सरकारों को यह महसूस करना चाहिए कि खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भरता का कोई विकल्प नहीं है, और आत्मनिर्भरता के लिए कृषि में सार्वजनिक निवेश की ज़रूरत है।
Global Food Crisis

दुनिया, कई दशकों से, कभी न महसूस किए जाने वाले खाद्य संकट का सामना कर रही है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) ने मई में चेतावनी दी थी कि "सबसे अधिक खाद्य असुरक्षा का सामना करने वाले और जीवन को तत्काल बचाने के लिए खाद्य सहायता और आजीविका के समर्थन की जरूरत वाले लोगों की संख्या खतरनाक दर से बढ़ रही है"। यह संकट कुछ समय से बना हुआ है, जो संकट संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ द्वारा बेलारूस और रूस पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों से उपजा है। 

3 जून को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ एक बैठक में, सेनेगल के राष्ट्रपति और अफ्रीकी संघ के अध्यक्ष मैकी सैल, जिनके कई सदस्य देशों को भारी मानवीय संकट का सामना करना पड़ रहा है, ने कहा, "रूस विरोधी प्रतिबंधों ने स्थिति को और खराब कर दिया है। अब हमारे पास रूस के अनाज तक पहुंच नहीं है, मुख्य रूप से रूसी गेहूं नहीं मिल पा रहा है। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे पास उर्वरक भी नहीं है और न ही उन्हे रूस से लाया जा सकता है। स्थिति खराब थी, और अब और बदतर हो गई है, जिससे अफ्रीका में खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा पैदा हो गया है।"

एफएओ और विश्व खाद्य कार्यक्रम (डब्ल्यूएफपी) जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन काफी लंबे समय से तर्क दे रहे हैं कि खाद्य असुरक्षा के मुख्य कारण, हाल के वर्षों में बढ़ते संघर्ष और युद्ध हैं। उन्होंने खाद्य कीमतों और खाद्य असुरक्षा में हालिया वृद्धि के लिए मुख्य रूप से यूक्रेन-रूस युद्ध को भी जिम्मेदार ठहराया है। यूरोपीय संघ, एफएओ और डब्ल्यूएफपी द्वारा बनाए गए ग्लोबल नेटवर्क अगेंस्ट फूड क्राइसिस का अनुमान है कि खाद्य पदार्थों की कीमतों में हालिया उछाल और उपलब्धता में कमी के कारण 53 सबसे अधिक खाद्य-असुरक्षित देशों में चार करोड़ अतिरिक्त लोगों को तत्काल खाद्य सहायता की जरूरत है।

युद्ध/संघर्ष और जलवायु परिवर्तन ने खाद्य उपलब्धता को नुकसान पहुंचाया है, लेकिन खाद्य असुरक्षा की वृद्धि के प्राथमिक कारणों के रूप में उन्हें सिर्फ जिम्मेदार ठहराना, मौजूदा संकट के गहरे कारणों को खोजने को कमजोर बनाता है। रूस-यूक्रेन युद्ध छिड़ने से पहले ही, दुनिया में भूख और खाद्य असुरक्षा की व्यापक और तेजी से वृद्धि हुई थी। 2020 के एफएओ डेटा में कहा गया है कि दुनिया भर में लगभग 237 करोड़ लोगों को मध्यम से गंभीर खाद्य असुरक्षा का सामना करना पड़ा था। इनमें से लगभग 62 करोड़ लोग - किसी एक देश में सबसे अधिक - अकेले भारत में थे। यह उम्मीद की जाती है कि इस साल के अंत में अद्यतन डेटा प्रकाशित होने पर खाद्य असुरक्षा और भूख की संख्या और भी अधिक होगी।

पिछले कुछ दशकों में, वैश्वीकरण, विशेष रूप से इसके तहत बनाई गई अंतर्राष्ट्रीय व्यापार व्यवस्था ने विकसित और कम विकसित देशों में किसानों को प्रदान की जाने वाली सहायता के स्तरों में एक तीव्र असंतुलन पैदा किया है। नतीजतन, ग्लोबल साउथ खाद्य वस्तुओं का एक स्रोत बन गया है जिसे विकसित देशों में उत्पादित नहीं किया जा सकता है और मुख्य खाद्य वस्तुओं को पैदा करने के लिए विकसित देशों की बड़े पैमाने की कृषि पर निर्भर हो गया है।

पिछले तीन दशकों में, भारत बड़ी तेजी के साथ दालों और खाद्य तेलों के आयात पर निर्भर हो गया है। एक ओर व्यापार उदारीकरण और दूसरी ओर सार्वजनिक खरीद की कमी के कारण बढ़ी हुई कीमतों में अस्थिरता ने किसानों को दलहन और तिलहन फसलों की खेती से हतोत्साहित किया है। भारत, खाद्य तेलों और दालों का सबसे बड़ा आयातक है। (2017-19 में, भारत में खपत होने वाले खाद्य तेल का 68 प्रतिशत और दालों का 17 प्रतिशत आयात किया गया था।) इसके अलावा, ग्लोबल साउथ में कृषि अनुसंधान में सार्वजनिक धन के निवेश की कमी से, बड़े अंतरराष्ट्रीय कृषि-व्यवसायों ने वहाँ कृषि पर एकाधिकार हासिल कर लिया है। उर्वरकों और बीजों सहित आधुनिक कृषि आदानों की आपूर्ति पर उनका पूरा नियंत्रण है। निर्मित उर्वरकों के आयात पर भारत की निर्भरता लगातार बढ़ी है। 2020 में, भारत ने लगभग 30 प्रतिशत यूरिया आपूर्ति और 61 प्रतिशत डाई-अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) की आपूर्ति आयात के माध्यम से की गई थी।

वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप न केवल खाद्य कीमतों में वृद्धि हुई है, बल्कि इसने ऐसी स्थितियाँ भी पैदा की हैं जिनमें लाखों लोग अल्पकालिक व्यवधानों और अस्थिरता के प्रति संवेदनशील हैं। कम कृषि आय, ग्रामीण और शहरी कामकाजी वर्गों के बीच व्यापक बेरोजगारी और सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों तक सीमित पहुंच ने खाद्य असुरक्षा और भेद्यता में योगदान दिया है।

वर्तमान वैश्विक खाद्य संकट को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए।

जब हम खाद्य संकट में योगदान देने वाले तात्कालिक कारकों को देखते हैं, तो इसके लिए यूरोपीय संघ और नाटो के आर्थिक प्रतिबंध प्राथमिक अपराधी नज़र आते हैं। विशेष रूप से खाद्य आपूर्ति और कृषि आदानों को लक्षित करने के लिए आर्थिक प्रतिबंधों का उपयोग रूस-यूक्रेन युद्ध से पहले हुआ था। 2020 के बाद से, यूरोपीय संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका ने सबसे बड़े पोटाश उत्पादक बेलारूस के खिलाफ जवाबी प्रतिबंध लगा दिए थे। वास्तव में, बेलारूसी पोटाश कंपनी और दो सबसे बड़े बेलारूसी पोटाश निर्यातक बेलारूसकली के खिलाफ विशिष्ट प्रतिबंध लगाए गए थे। एक प्रमुख डीएपी आपूर्तिकर्ता ईरान पर संयुक्त राज्य के प्रतिबंधों ने भी उर्वरक उपलब्धता को अनुबंधित करने में योगदान दिया था।

रूस के खिलाफ नाटो के प्रतिबंध, स्विफ्ट भुगतान प्रणाली से रूस को प्रतिबंधित करना, जिसका उपयोग लगभग सभी बैंक करते हैं, और रूसी शिपिंग जहाजों द्वारा समुद्री बीमा और बंदरगाह सुविधाओं जैसी बुनियादी समुद्री सेवाओं पर प्रतिबंध सभी ने अनाज और उर्वरकों की वैश्विक आपूर्ति को कम करने में योगदान दिया है। हालांकि अनाज, उर्वरक और ईंधन की खरीद प्रतिबंधों के तहत नहीं आते है, संयुक्त राज्य अमेरिका ने रूस से खरीदना बंद करने के लिए भारत सहित ग्लोबल साउथ के अधिकांश हिस्से को झुका दिया है, भले ही यूरोपीय संघ ने रूसी गैस और तेल का इस्तेमाल जारी रखा हुआ है।

नाटो द्वारा समर्थित, यूक्रेन ने न केवल अपने बंदरगाहों को बंद कर दिया है बल्कि बंदरगाह पर रूसी हमले की संभावना को रोकने के लिए ओडेसा के आसपास समुद्र पास बारूद की खानें बिछा दी है। यद्यपि रूस ने तुर्की को खाद्य शिपमेंट भेजने की अनुमति देने के लिए काला सागर में एक गलियारा बनाने का प्रस्ताव दिया है, यूक्रेन ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया है क्योंकि उसे लगता है कि रूस इस गलियारे का इस्तेमाल हमले के लिए भी कर सकता है।

अनाज की कमी के डर ने कई देशों ने निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिए हैं। आईएफपीआरआई (IFPRI) निर्यात प्रतिबंध ट्रैकर के अनुसार, हाल के महीनों में कई देशों ने विभिन्न खाद्य वस्तुओं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया है। इनमें इंडोनेशिया, मलेशिया, भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, कुवैत, लेबनान, तुर्की, मिस्र, अल्जीरिया, ट्यूनीशिया, मोरक्को, घाना, बुर्किना फासो, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान, अजरबैजान, मोल्दोवा, कोसोवो, सर्बिया, हंगरी, अर्जेंटीना और रूस और यूक्रेन शामिल हैं। इनमें से कई देश आवश्यक खाद्य वस्तुओं के प्रमुख आपूर्तिकर्ता हैं जिसके परिणामस्वरूप वैश्विक आपूर्ति और अनाज, खाद्य तेलों, दालों और चीनी की मांग के बीच काफी अंतर है।

इसके साथ ही आपूर्ति की कमी और ईंधन और उर्वरकों की उच्च मुद्रास्फीति ने वैश्विक खाद्य आपूर्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। मार्च 2022 में डीएपी की अंतरराष्ट्रीय कीमतें पिछले साल मार्च में कीमतों की तुलना में 81 फीसदी अधिक थीं। मार्च 2022 में, वैश्विक पोटाश की कीमतें लगभग तीन गुना थीं, और यूरिया की कीमतें पिछले साल मार्च में कीमतों से लगभग दोगुनी थीं। चीन, दक्षिण कोरिया, किर्गिस्तान, रूस और यूक्रेन ने उर्वरक निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया है। संयुक्त राज्य अमेरिका ने कई देशों पर रूस से अनाज, ईंधन और उर्वरक खरीदना बंद करने का दबाव डाला है। ग्लोबल साउथ/वैश्विक दक्षिण में राष्ट्रीय खाद्य आत्मनिर्भरता नव-उदारवादी परियोजना के कारण कमज़ोर पड़ी हुई है, इसलिए खाद्य और कृषि आदानों पर प्रमुख आपूर्तिकर्ताओं द्वारा लगाए गए निर्यात प्रतिबंधों से खाद्य असुरक्षा के काफी बढ़ाने की उम्मीद है।

उच्च खाद्य कीमतें अत्यधिक भ्रामक हो सकती हैं। आमतौर पर यह माना जाता है कि संकट के दौरान किसानों को उच्च खाद्य कीमतों से लाभ होता है; कि वे अपनी फसलों के लिए मिल रहे उच्च मूल्यों से खुश हैं। भारत में, इस साल के रबी सीजन के दौरान सार्वजनिक खरीद कम थी क्योंकि खुले बाजार में गेहूं और सरसों की अच्छी कीमत मिल रही थी। हालाँकि, यह एक भ्रम है, और हमें यह सोचने की गलती नहीं करनी चाहिए कि ऐसे संकट के दौरान उच्च खाद्य कीमतें किसानों के लिए अच्छी हैं। पिछले कुछ वर्षों में, भारतीय किसान वैधानिक न्यूनतम समर्थन मूल्य और अधिक से अधिक सार्वजनिक समर्थन के माध्यम से अपनी उपज के लिए उच्च, अधिक लाभकारी और सुनिश्चित मूल्य की मांग कर रहे हैं। हालांकि, वैश्विक संकट के दौरान सामान्यीकृत खाद्य मुद्रास्फीति के हिस्से के रूप में कृषि कीमतों में वृद्धि होने पर किसानों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। क्यों? पहला, क्योंकि कृषि उत्पादों की कीमतें उपभोक्ता कीमतों से कम हैं। दूसरे, नव-उदारवादी रुख को देखते हुए, सरकारों ने मूल्य मुद्रास्फीति से खिलाफ किसानों की रक्षा के मामले में इनपुट या लागत की कीमतों के विनियमन को प्राथमिकता नहीं दी है। ऐसी स्थिति में, खेती की लागत में वृद्धि उच्च खाद्य कीमतों के लाभ को खा जाती है। अंत में, ग्लोबल साउथ में किसानों का एक बड़ा हिस्सा छोटे उत्पादक हैं जो भोजन के शुद्ध खरीदार हैं। मुद्रास्फीति उन्हें और भी अधिक पीड़ा देती है, क्योंकि वे अपने उत्पादों को सस्ते में बेचते हैं और जब वे महंगे होते हैं तो उन्हें भोजन और अन्य आवश्यकताएं खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है।

मौजूदा खाद्य संकट से देशों को यह सीख लेनी चाहिए कि बड़े देशों के लिए मुख्य खाद्य उत्पादन में घरेलू आत्मनिर्भरता महत्वपूर्ण है। इसे हासिल करने के लिए कृषि और खाद्य प्रणालियों में सार्वजनिक निवेश की आवश्यकता है। सरकारों को कृषि अनुसंधान को प्राथमिकता देनी चाहिए और कृषि आदानों की आपूर्ति सुनिश्चित करनी चाहिए। मूल्य विनियमन प्रणाली, सार्वजनिक खरीद और इनपुट सब्सिडी, और सब्सिडी वाले खाद्य वितरण सहित मजबूत सामाजिक सुरक्षा के माध्यम से महत्वपूर्ण खाद्य फसलों का उत्पादन करने के लिए किसानों को प्रोत्साहित करना, खाद्य सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं। जिन नीतियों ने इन प्राथमिकताओं को कम करके आंका है, उन्हें उलट देना चाहिए।

लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस लेख को नीचे की लिंक पर क्लिक कर पढ़ा जा सकता है:

Global Food Crisis: Domestic Self-Sufficiency in Staples is the Only Way Out

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