ब्रिक्स का कज़ान शिखर सम्मेलन: प्रशंसनीय पर अपर्याप्त
ब्रिक्स देशों का कज़ान शिखर सम्मेलन कई कारणों से ऐतिहासिक था।
सबसे पहले तो इसने **साझीदार देशों** की एक नयी श्रेणी स्थापित की है, जो कि संबंधित देशों की पूर्ण सदस्यता की दिशा में एक कदम है और 13 नये ऐसे **साझीदार ** देशों को अपनाया गया है, जिनमें क्यूबा और बोलीविया भी शामिल हैं। दूसरे, इसमें उन इकतरफा आर्थिक पाबंदियों पर विरोध जताया गया है, जो अमरीका के नेतृत्व में साम्राज्यवादी ताकतें ऐसे देशों पर थोपती आ रही हैं, जो साम्राज्यवादी वर्चस्व से अपनी स्वतंत्रता का प्रदर्शन करने की जुर्रत करते हैं। तीसरे, इसमें अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक तथा वित्तीय व्यवस्था के सुधार का एक कार्यक्रम सुझाया गया है। डालर के वर्चस्व पर काबू पाने के कदमों की रूपरेखा प्रस्तुत करने के मामले में कज़ान घोषणा अपने आप में तो संक्षिप्त ही रही है, हालांकि उसमें इसकी जरूरत पर जोर दिया गया है, बहरहाल रूसी सरकारी निकायों द्वारा तैयार किया गया बैकग्राउंड पेपर, कहीं ज्यादा विवरण मुहैया कराता है।
ये महत्वपूर्ण घटनाक्रम हैं जिनका स्वागत किया जाना चाहिए। फिर भी ग्लोबल साउथ की समस्याओं के प्रति ब्रिक्स द्वारा जो नजरिया अपनाया गया है, उसकी बुनियादी सीमाओं की ओर से हम आंखें नहीं मूंदे रह सकते हैं। इस नजरिए का सार यही है कि विश्व व्यापार संगठन तथा जुड़वां बे्रटन वुड्स संस्थाओं--आईएमएफ तथा विश्व बैंक--जैसी मौजूदा संस्थाओं को और ज्यादा प्रतिनिधित्वपूर्ण बनाया जाए, जबकि ग्लोबल साउथ या विकासशील दुनिया की समस्याएं इससे कहीं गहरी हैं। बेशक, ब्रिक्स अब भी एक विषमांगी ब्लाक है, जिससे कोई मूलगामी एजेंडा स्वीकार करने की आशा नहीं की जा सकती है। बहरहाल, मैं यहां जिस समस्या का जिक्र कर रहा हूं यह नहीं है कि क्या कोई मूलगामी एजेंडा अपनाना व्यावहारिक था बल्कि मुद्दा यह कि मूलगामी एजेंडा किसे कहेंगे?
ब्रिक्स की घोषणा यह मानकर चलती है कि अपनी वर्तमान अवस्था में ये अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं इसलिए दोषपूर्ण हैं कि उन पर साम्राज्यवादी देशों का ही बोलबाला है और ये संस्थाएं पर्याप्त प्रतिनिधित्वपूर्ण नहीं हैं। लेकिन, वास्तव में ये संस्थाएं इसलिए दोषपूर्ण हैं कि उनका सार ही दोषपूर्ण है, फिर उनका प्रशासन चाहे जैसे भी हो रहा हो। एक दृष्टांत का सहारा लें तो ब्रिक्स का नजरिया यह कहने के समान है कि वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत मजदूरों का शोषण कार्टेलों और इजारेदारियों की वजह से हो रहा है और अगर इजारेदारी की व्यवस्था की जगह पर मुक्त प्रतियोगिता की व्यवस्था कायम हो जाए, तो यह शोषण ही छू-मंतर हो जाएगा।
विश्व व्यापार संगठन और गला काट होड़
मिसाल के तौर पर विश्व व्यापार संगठन को ले सकते हैं। कज़ान घोषणा में इसकी बात की गयी है कि किस तरह विकसित देश, विश्व व्यापार संगठन की भावना के खिलाफ जाकर, संरक्षणवाद का व्यवहार कर रहे हैं। इसमें दावा किया गया है कि यह विचलन ग्लोबल साउथ के प्रति भेदभावकारी है और इसे विश्व व्यापार संगठन के प्रशासन में विकासशील दुनिया के बेहतर प्रतिनिधित्व के जरिए ही दुरुस्त किया जा सकता है। लेकिन, समस्या यह है कि खुद विश्व व्यापार संगठन मुक्त व्यापार की जिस दलील पर स्थापित किया गया है, वह अपने आप में दोषपूर्ण है। इसमें एक नियम की वैधता को मानकर चला जाता है और यह नियम कहता है कि सकल मांग की कमी कभी होती ही नहीं है और इसलिए बाजारों के लिए संघर्ष कभी नहीं होता है। व्यापार से पहले भी और व्यापार के बाद भी, दोनों ही हालात में हरेक देश में पूर्ण रोजगार होता है। इन दो स्थितियों के बीच अंतर सिर्फ इतना होता है कि व्यापार के बाद वाली स्थिति में संसाधनों का भिन्न प्रकार से उपयोग किया जा रहा होता है, ताकि मालों के एक खास गट्ठर का उत्पादन किया जा सके।
बहरहाल, यह एक बेतुका दावा है जो पूंजीवाद की वास्तविकता से बहुत दूर है। पूंजीवाद की वास्तविकता के चलते विकासशील दुनिया के देशों को मुक्त व्यापार या यहां तक कि उदार व्यापार के अंतर्गत लाना भी, उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ डार्विनवादी प्रतिस्पर्धा में धकेलना बन जाता है। संक्षेप में यह उनके बीच किसी भी प्रकार के सहयोग को भीतर से ध्वस्त कर देता है। विश्व व्यापार संगठन का दर्शन व्यवहार में देशों के बीच, यहां तक कि विकासशील दुनिया के देशों के बीच भी, सहयोग सुनिश्चित नहीं करता है बल्कि उनके बीच गला-काट होड़ ही सुनिश्चित करता है।
इसी प्रकार, विश्व व्यापार संगठन का यह नियम कि कोई भी देश अपने किसानों को इतनी मूल्य सहायता नहीं दे सकता है कि उसके द्वारा दी जा रही सब्सिडी, संबंधित उत्पाद के मूल्य के 10 फीसद से ऊपर निकल जाए, इससे बिल्कुल अलग कि भारत इस नियम का उल्लंघन करता है या नहीं, एक गहराई तक त्रुटिपूर्ण नियम है। वास्तव में सब्सिडी में **बाजार विकृतिकारी** और **गैर-बाजार विकृतिकारी** का भेद, जिस पर यह नियम आधारित है, बाजार की **कुशलता** को मानकर चलता है, जो कि केन्सवाद-पूर्व के अर्थशास्त्र पर ही लौटना है। विश्व व्यापार संगठन द्वारा अपनी बेतुकी पूर्वधारणाओं के जरिए गढ़ी गयी काल्पनिक दुनिया के बाहर, इसके अस्तित्व का कोई तर्क ही नहीं है।
डालर के वर्चस्व से या वित्त के वर्चस्व से मुक्ति
ब्रिक्स की घोषणा का जोर इस पर भी है कि अमरीकी डालर के वर्चस्व को खत्म किया जाए और एक-दूसरे के संदर्भ में स्थिर विनिमय दरों पर राष्ट्रीय मुद्राओं के बीच अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ाया जाए। डालर के वर्चस्व को खत्म करना, निस्संदेह एक प्रशंसनीय लक्ष्य है। लेकिन, यह काफी नहीं है। जरूरत इसकी भी है कि वित्तीय पूंजी के वर्चस्व को खत्म किया जाए। और इसके लिए तीन शर्तें पूरी होना जरूरी है। पहली, चालू खाता असंतुलनों को दूर करने के लिए समायोजन, चालू खाता बचत वाले देशों द्वारा किए जाएं, न कि चालू खाता घाटे वाले देशों द्वारा। दूसरे, जब तक ये असंतुलन दूर नहीं हो जाते हैं, बचत वाले देशों को घाटे वाले देशों द्वारा पेश किए जाने वाले सभी आईओयू अपने पास रखने के लिए तैयार होना चाहिए। और तीसरे, बकाया ऋण के निपटारे के लिए परिसंपत्तियों का कोई भी हस्तांतरण (अंतरराष्ट्रीयकरण) नहीं होना चाहिए।
व्यापार घाटे वाले देशों की जगह, व्यापार लाभ वाले देशों द्वारा ही समायोजन किया जाना, सिर्फ ऐसे देशों के हावी होने को रोकने के लिए ही जरूरी नहीं है बल्कि विश्व उत्पाद तथा रोजगार की नजर से भी और इसलिए दुनिया के मेहनतकशों के कल्याण की नजर से भी जरूरी है। अगर व्यापार बचत वाले देश को समायोजन करना होगा, तो वह मालों तथा सेवाओं की अपनी घरेलू खपत को बढ़ाएगा और चूंकि उसका अपना उत्पाद पूर्ण क्षमता के करीब चल रहा होगा, इसके चलते उसके निर्यात घट जाएंगे। व्यापार घाटे वाला देश, यदि उसका घरेलू उपभोग पहले जितने ही स्तर पर बना रहता है तब भी, अपने आयातों के घटने के चलते, अपने उत्पाद में तथा रोजगार में बढ़ोतरी का लाभ हासिल कर रहा होगा। इस तरह, दोनों देशों को मिलाकर देखें तो, सकल मांग में बढ़ोतरी हो रही होगी, जिसके चलते उत्पाद तथा रोजगार में बढ़ोतरी हो रही होगी। और अगर व्यापार बचत वाले देश में उपभोग में बढ़ोतरी, उसके मेहनतकशों द्वारा ज्यादा उपभोग का रूप लेती है, तो दोनों देशों में मेहनतकश जनता का लाभ और भी ज्यादा होगा। व्यापार बचत वाले देश में मेहनतकश जनता का लाभ उसके उपभोग में बढ़ोतरी के रूप में सामने आएगा, जबकि व्यापार घाटे वाले देश में, रोजगार में बढ़ोतरी के रूप में।
इसके विपरीत, अगर व्यापार घाटे वाले देश को ही समायोजन करना हो, जैसाकि वर्तमान कायदा है, तो उसे अपने घरेलू उपभोग में कटौती करनी होगी, जिससे संबंधित देश में मंदी पैदा होगी। विश्व सकल मांग का समग्र स्तर, दुनिया भर के मेहनतकशों की कीमत पर और खासतौर पर घाटे वाले देश के मेहनतकशों की कीमत पर, घट जाएगा। इस प्रकार, चालू खाता असंतुलनों को दूर करने के लिए घाटे वाले देशों द्वारा ही समायोजन किया जाना, व्यापार लाभ वाले देशों से समायोजन कराने की तुलना में हीनतर है, लेकिन मानना पड़ेगा कि बाद वाले को लागू कराना कहीं ज्यादा मुश्किल है।
प्रशंसनीय पर अपर्याप्त
इसके अलावा, व्यापार बचत वाले देशों द्वारा समायोजन किए जाने की व्यवस्था किए बिना, डालर के वर्चस्व का खत्म किया जाना, किसी और मुद्रा के वर्चस्व की भी स्थिति पैदा करेगा, न कि ऐसे वर्चस्व के ही पूरी तरह से खात्मे की। मिसाल के तौर पर मान लीजिए कि ब्रिक्स देश सिर्फ आपस में ही और निश्चित विनियम दरों पर राष्ट्रीय मुद्राओं में ही व्यापार करते हों, अन्यथा मुद्रा सट्टा बाजार का बोलबाला किसी भी तरह की व्यापार व्यवस्था को ही अवहनीय बना देगा। उस सूरत में, अगर कोई देश किसी अन्य देश के साथ व्यापार में लगातार घाटे में चल रहा हो, तो या तो घाटे वाले देश को अपना घरेलू उपभोग घटाना होगा ताकि घाटा खत्म कर सके, जो कि वर्तमान में होता है या फिर बचत वाले देश को आईओयू तब तक देता रहे, जब तक कि उसकी मुद्रा पर दबाव न बन जाए और उसके लिए तयशुदा विनिमय दर को बनाए रखना असंभव नहीं हो जाए। बाद वाली सूरत में कुछ मुद्राएं, खासतौर पर व्यापार लाभ वाले देशोंं की मुद्राएं, दूसरों पर वर्चस्व हासिल कर लेंगी। इस तरह, डालर के वर्चस्व का हटाया जाना बेशक बहुत ही वांछनीय है, फिर भी इस सूरत में तो कोई और मुद्रा उसकी जगह ले लेगी, न कि मुद्रा वर्चस्व का अंत हो रहा होगा।
कज़ान घोषणा जुड़वा ब्रेटन वुड्स संस्थाओं के प्रशासन के तरीके में बदलाव करना चाहती है, ताकि इन संस्थाओं को कहीं अधिक प्रतिनिधित्वपूर्ण बनाया जा सके और इस तरह विकसित दुनिया के देशों के वित्त कहीं सस्ती दरों पर और कहीं कम कड़ी शर्तों पर उपलब्ध कराया जा सके। ब्रिक्स बैंक के भी इसी लक्ष्य के लिए काम करने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन यह सब, बहुत ही प्रशंसनीय होने के बावजूद, विकसित दुनिया या ग्लोबल साउथ के देशों की समस्याओं को हल करने वाला नहीं है। वित्त अगर कहीं आसानी से तथा कहीं ज्यादा सस्ते दाम पर उपलब्ध हो तब भी, इससे उनके गले में कसने वाले फंदे के कसने से पहले की मोहलत कुछ बढ़ ही सकती है। इससे फांसी का फंदा कसने की नियति बदल नहीं सकती है। यह नियति तो तभी बदल सकती है जब वित्त हासिल करने की जरूरत ही पूरी तरह से खत्म हो जाए।
सोवियत संघ ने दिखाया था रास्ता
वित्त की इस तरह की जरूरत का खत्म होना किसी भी तरह से एक कपोल कल्पना ही नहीं है। जब सोवियत संघ हुआ करता था, भारत समेत अनेक देशों ने उसके साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते किए हुए थे, जिनके तहत विनिमय की दरें पहले से तय थीं। व्यापार बचत और घाटों को एक अवधि से अगली अवधि में ले जाया जाता था और मालों व सेवाओं के परस्पर सहमत लेन-देन के जरिए उनका निपटारा किया जाता था। इस व्यवस्था में वित्त की किसी खास जरूरत का, किसी वर्चस्व के व्यवहार का या घाटे वाले देश के कमखर्ची थोपने के जरिए, अपने यहां आर्थिक गतिविधियों के स्तर को घटाने का, कोई सवाल ही नहीं उठता था। बेशक, सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था एक नियोजित अर्थव्यवस्था थी, जो इस तरह की व्यवस्था को चला सकती थी। लेकिन, अगर ब्रिक्स को वैश्विक दक्षिण को साम्राज्यवादी वर्चस्व से बचाव का सचमुच का रास्ता मुहैया कराना है, जिसकी आशा इस शिखर सम्मेलन में बोलीविया के राष्ट्रपति ने जतायी थी, तो उसे ऐसी व्यवस्थाओं को गढ़ना ही होगा, जो ऐसी गैर-उत्पीड़नकारी व्यवस्थाओं के अपनाए जाने की सूचक हों।
किसी भी सूरत में, विश्व पूंजीवाद द्वारा गढ़ी गयी वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का, उन्हें बस थोड़ा सा अधिक प्रतिनिधित्वपूर्ण बनाने के साथ अनुमोदन किए जाने में अंतर्निहित खतरे को, अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए।
(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं।)
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें–
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