अमेरिका से लेकर भारत, बच्चा पैदा करने से जुड़े फ़ैसले का हक़ महिलाओं के हाथ में क्यों नहीं?
"गर्भधारण और गर्भपात का फ़ैसला सिर्फ़ और सिर्फ़ महिला का होना चाहिए न किसी समाज, सरकार या अदालतों का "
यह बात सालों से महिला अधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता कह रहे हैं। लगभग यही बात अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संगठन (ऐपवा) की सचिव कविता कृष्णन ने दोहराई। कविता अमेरिका में गर्भपात पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को शर्मनाक बताते हुए कहती हैं कि जहां आयरलैंड और अर्जेंटीना जैसे देशों में औरतों ने गर्भपात से जुड़ा कानून बनवाने के लिए लड़ाई लड़ी। वहीं अमेरिका की महिलाओं के लंबे संघर्ष के बावजूद कोर्ट द्वारा रो बनाम वेड के फैसले को उलट दिया गया। हालांकि इससे महिलाएं रुकेंगी नहीं, वो अपने प्रजनन न्याय, शारीरिक स्वायत्तता के लिए संघर्ष करती रहेंगी।
बता दें कि 24 जून, शुक्रवार को अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फ़ैसले में गर्भपात को क़ानूनी तौर पर मंज़ूरी देने वाले पांच दशक पुराने फ़ैसले को पलट दिया। इसके बाद अब महिलाओं के लिए गर्भपात का हक़ क़ानूनी रहेगा या नहीं, इसे लेकर राज्य अपने-अपने अलग नियम बना सकते हैं। इस फ़ैसले के आने के बाद अमेरिका के क़रीब 50 से अधिक शहरों में विरोध प्रदर्शन दर्ज किए गए हैं। माना जा रहा है कि इसके बाद आधे से अधिक अमेरिकी राज्य गर्भपात क़ानून को लेकर नए प्रतिबंध लागू कर सकते है। 13 राज्य पहले ही ऐसे क़ानून पारित कर चुके हैं जो गर्भपात को ग़ैरक़ानूनी करार देते हैं, ये क़ानून सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद लागू हो जाएंगे।
मालूम हो कि अमेरिका में लंबे समय से गर्भपात-विरोधी क़ानून पर बहस जारी है। पिछले महीने की शुरुआत में ही सुप्रीम कोर्ट का इससे जुड़ा एक ड्राफ्ट लीक हो गया था, जिसके बाद पूरे देश में प्रदर्शन होने लगे थे। ड्राफ्ट में ये बातें सामने आईं थी कि गर्भपात के अधिकार को खत्म करने की तैयारी है और सुप्रीम कोर्ट ने 1973 के 'रोए बनाम वेड' फैसले को पलटने के लिए मतदान किया है। इसके बाद अमेरिका की एक बड़ी आबादी में नाराज़गी देखने को मिली थी। यहां कई राज्यों में लोग गर्भपात को मौलिक अधिकार मानते हैं और अब अदालत के इस फैसले के खिलाफ है।
गर्भपात को मौलिक अधिकार मानने वालों का विरोध प्रदर्शन
मानवाधिकार के लिए सजग जनता, एक्टिविस्ट और राजनेता सड़कों पर हैं और कहा जा रहा है कि यह निर्णय अमेरिकी जीवन को बदल देगा, देश की राजनीति को नयी दिशा देगा और अमेरिका के लगभग आधे राज्यों में गर्भपात पर पूर्ण प्रतिबंध लगा देगा। जहां इस कानून के समर्थकों का मानना था कि जीवन नष्ट करने का हक़ किसी को नहीं, वहीं इसके विरोधी कहते थे कि गर्भपात से जुड़ा फ़ैसला लेना महिला का हक़ होना चाहिए।
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की आलोचना करते हुए अपने एक संबोधन में कहा कि इस फ़ैसले ने महिलाओं के स्वास्थ्य और जीवन को ख़तरे में डाल दिया है। बाइडन के मुताबिक इस फ़ैसले से विचारधारा की कट्टरता का एहसास होता है और सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला बेहद दुखद है।
अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने भी इस पर अपनी टिप्पणी ट्वीट करते हुए लिखा, "अमेरिका में आज दसियों लाख औरतें बिना किसी हेल्थ केयर और रिप्रोडक्टिव हेल्थ केयर के हो गयी हैं। अमेरिका की जनता से उसका संवैधानिक अधिकार छीन लिया गया है।"
क्या है रो बनाम वेड मामला?
जानकारी के मुताबिक रो बनाम वेड का ऐतिहासिक फैसला नॉर्मा मैककॉर्वी नाम की एक महिला की याचिका पर आया था। अदालती कार्यवाही में उनको ही 'जेन रो' नाम दिया गया है। दरअसल, मैककॉर्वी 1969 में अपना अबॉर्शन कराना चाहती थीं। उनके पहले से ही दो बच्चे थे। वह टेक्सस में रहती थीं जहां गर्भपात गैरकानूनी है, उसकी इजाजत तभी दी जा सकती थी, जब गर्भ धारण करने से मां की जान को खतरा हो। मैककॉर्वी ने फेडरल कोर्ट में याचिका दाखिल कर दावा किया कि टेक्सस का गर्भपात कानूनी असंवैधानिक है। इस मुकदमे में बचाव पक्ष के तौर पर तत्कालीन डिस्ट्रिक्ट अटॉर्नी हेनरी वेड का नाम था। हालांकि नॉर्मा मैककॉर्वी को तब गर्भपात कराने की अनुमति नहीं मिल सकी थी।
हालांकि दो साल बाद जनवरी 1973 में सुप्रीम कोर्ट ने मैककॉर्वी के पक्ष में फैसला सुनाते हुए कहा कि गर्भ का क्या करना है, गर्भपात कराना है या नहीं, ये तय करना महिला का अधिकार है। रो बनाम वेड का ये फैसला ऐतिहासिक रहा जिसने अमेरिकी महिलाओं को सुरक्षित गर्भपात का अधिकार दिया। इसके बाद अमेरिका के अस्पतालों के लिए महिलाओं को गर्भपात की सुविधा देना कानूनी तौर पर बाध्यकारी हो गया था। लेकिन, कोर्ट के इस फैसले का अमेरिका के कई धार्मिक समूहों ने खूब विरोध किया था। उनका कहना था कि महिला के अंदर पल रहे भ्रूण को भी जीने का अधिकार है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला धार्मिक रूप से उचित नहीं है। इस मुद्दे पर डेमोक्रेटिक पार्टी और रिपब्लिकन पार्टी के विचार भी अलग-अलग थे।
भारत के संदर्भ में क्या है गर्भपात का कानून?
अमेरिका के मुक़ाबले भारत की बात की जाए तो, यहां 25 मार्च 2021 में गर्भपात क़ानून (मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेग्नेंसी क़ानून, 1971) में बदलाव कर बलात्कार और व्यभिचार जैसे मामलों में गर्भपात कराने की सीमा को 20 सप्ताह से बढ़ा कर 24 सप्ताह कर दिया गया है। और अगर भ्रूण में गंभीर बीमारी के संकेत हैं तो मेडिकल बोर्ड की इजाज़त से इसके कुछ सप्ताह बाद तक भी गर्भपात कराया जा सकता है। हालांकि इसके लिए दो डॉक्टरों की मंज़ूरी की शर्त है। भारत में सामान्य तौर पर एक डॉक्टर की मंज़ूरी से 20 सप्ताह के भीतर गर्भपात कराया जा सकता है।
इससे पहले देश में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 था, जिसमें ये प्रावधान था कि अगर किसी महिला का 12 हफ़्ते का गर्भ है, तो वो एक डॉक्टर की सलाह पर गर्भपात करवा सकती है। वहीं 12-20 हफ़्ते में दो डॉक्टरों की सलाह अनिवार्य थी और 20-24 हफ़्ते में गर्भपात की महिला को अनुमति नहीं थी। लेकिन नए संशोधित बिल में 12 और 12-20 हफ़्ते में एक डॉक्टर की सलाह लेना ज़रूरी बताया गया है। इसके अलावा अगर भ्रूण 20-24 हफ़्ते का है, तो इसमें कुछ श्रेणी की महिलाओं को दो डॉक्टरों की सलाह लेनी होगी और अगर भ्रूण 24 हफ़्ते से ज़्यादा समय का है, तो मेडिकल सलाह के बाद ही इजाज़त दी जाएगी।
महिलाओं के शरीर और प्रजनन पर उनकी इच्छा और चयन को प्राथमिकता नहीं
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारत में बच्चा पैदा करने से जुड़े फ़ैसले का हक महिलाओं के हाथ में है? क्या गर्भपात के मामले में अमेरिका के मुक़ाबले यहां महिलाओं की स्थिति बेहतर है? इसका जवाब शायद ना है, क्योंकि कानून की वैधता के बावजूद भी हमारे देश में गर्भपात या अबॉर्शन के मुद्दे को स्वास्थ्य से न जोड़कर इसके रुढ़िवादी सामाजिक पहलू को ज्यादा तरहीज दी जाती है।
महिलाओं, ट्रांस, नॉन बाईनरी लोगों को उनके शरीर और प्रजनन संबधी विषयों पर उनकी इच्छा और चयन की कोई प्राथमिकता नहीं दी जाती है। लोगों की बुनियादी दैहिक स्वतंत्रता को हमारा पितृसत्तात्मक समाज न केवल खत्म करता है बल्कि उन्हें उनके मूल अधिकारों से भी वंचित रखता है। गर्भसमापन को ‘हत्या और पाप’ बताकर संस्कृति और पंरपरा के खिलाफ बताया जाता है जबकि यही पितृसत्तात्मक समाज कन्या भ्रूण हत्या के मामले में न केवल चुप्पी अपनाता है बल्कि गैर-कानूनी तरीके से अबॉर्शन की प्रक्रिया को भी अपनाता है।
पूर्व में पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया से जुड़े राकेश अवस्थी न्यूज़क्लिक से बतचीत में बताते हैं कि भारत में महिलाओं को गर्भपात का अधिकार ज़रूर है, लेकिन ये कहना सही नहीं होगा कि अमेरिकी महिलाओं के मुक़ाबले यहां स्थिति बेहतर है। क्योंकि इसका बड़ा कारण है गर्भाधान के मामले में यहां फ़ैसला महिलाओं का नहीं होता, बल्कि उनके पति या फिर परिवार का होता है। गर्भपात के लिए भी महिला को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसे समाज में कलंक की तरह देखा जाता है। इसलिए अधिकतर मामलों में महिलाएं असुरक्षित गर्भपात का रास्ता अपनाती हैं।
ऐसे में कहा जा सकता है कि विकासशील देश हो या विकसित देश, हर जगह अबॉर्शन को लेकर एक जैसी मानसिकता देखने को मिलती है। भारत में जहां रुढ़िवादी, पितृसत्तात्मक मानसिकता के तहत गर्भपात वैध होने के बावजूद इसे एक एक अपराध माना जाता रहा है, तो वहीं अमेरिका में अब अदालती फैसला इसे अपराध बना देगा। बांग्लादेशी मूल की जानी-मानी लेखिका तस्लीमा नसरीन ने भी अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की कड़ी आलोचना करते हुए सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ट्विटर पर इस बारे में एक के बाद एक कई ट्वीट कर जबरन गर्भधारण को मानवता के ख़िलाफ़ अपराध क़रार दिया।
तस्लीमा नसरीन ने लिखा, "यकीन नहीं हो रहा! अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने गर्भपात के संवैधानिक अधिकार को ख़त्म कर दिया। आदेश के तहत महिलाओं के गर्भपात के अधिकार समाप्त कर दिए गए। अमेरिका आगे बढ़ने के बजाय पीछे की ओर जा रहा है।''
उन्होंने मानव अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था 'ह्यूमन राइट्स वॉच' में महिला अधिकारों की डायरेक्टर मकारेना साज़ के बयान का ज़िक्र करते हुए लिखा, "गर्भपात की गारंटी देना न केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए, बल्कि मानव अधिकारों के लिए भी ज़रूरी है।"
तस्लीमा नसरीन ने ह्यूमन राइट्स वॉच के एक और बयान का ज़िक्र करते हुए लिखा, ''गर्भपात पर प्रतिबंध लगाने या सख़्ती करने से गर्भपात की ज़रूरत ख़त्म नहीं हो जाती। गर्भपात को कम करने की बजाय, उसे प्रतिबंधित कर देने से असुरक्षित प्रक्रियाओं का ख़तरा बढ़ जाता है और आपराधिक क़ानून लागू हो जाने का ख़तरा पैदा हो जाता है।''
अबॉर्शन को लेकर सामाजिक और आर्थिक पहलू
भारत उन कुछ देशों में शुमार है जहां महिलाओं को क़ानूनी तौर पर गर्भपात का हक़ है, लेकिन यहां समस्याएं अलग तरह की हैं। अक्सर देखा गया है कि यहां अबॉर्शन का विकल्प चुनने वाले लोगों को समाज में बुरा ठहराकर ‘अपराधी और हत्यारा’ तक कहा जाता है। उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। ‘मां की ममता’ के भावनात्मक पहलू का इस्तेमाल कर उन पर दबाव बनाया जाता है। पितृसत्तात्मक समाज और परिवार के लिए यह बिल्कुल मायने नहीं रखता कि सामने वाला क्या चाहता है। दूसरी ओर यही पंरपरावादी परिवार सुविधाजनक होकर कन्या भ्रूण हत्या के लिए गैरकानूनी तरीके से न केवल लिंग परीक्षण करवाते हैं बल्कि असुरक्षित गर्भपात के तरीकों को भी अपनाते हैं।
ध्यान रहे कि भारत में अबॉर्शन को लेकर सामाजिक और आर्थिक पहलू भी हैं। भारत में मातृत्व मृत्यु का तीसरा बड़ा कारण असुरक्षित गर्भ समापन है। देश में आज भी परिवार-नियोजन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले साधनों का प्रयोग बहुत कम होता है जिसका परिणाम कई बार असुरक्षित गर्भसामपन के रूप में सामने आता है। बड़ी संख्या में अबॉर्शन केस रजिस्टर्ड ही नहीं होते हैं।
गटमैचर इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के मुताबिक युवा महिलाओं के 78 फीसद अनचाहे गर्भ के लिए असुरक्षित गर्भपात का इस्तेमाल किया जाता है। हर साल 4,50,000 असुरक्षित गर्भ समापन के बाद होने वाली जटिलताओं से देखभाल की आवश्यकता होती है। यदि भारत में सुरक्षित गर्भपात किया जाए, उसके बाद सही देखभाल की जाए तो इससे संबधित मृत्यु में 97 फीसद की गिरावट देखी जा सकती है। लैंसेट की साल 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2015 के दौरान 15.6 मिलियन गर्भपात हुए, जिनमें से 78 प्रतिशत स्वास्थ्य सुविधाओं के बाहर किए गए। एशिया सेफ अबॉर्शन पार्टनरशिप के एक सर्वे के अनुसार देश में 80 प्रतिशत महिलाएं देश में अबॉर्शन के संबंधित कानून से अपरिचित पाई गई।
गौरतलब है कि नारीवादी लोग हमेशा से इसकी वकालत करते आए हैं कि बच्चा पैदा करने और न करने का निर्णय केवल एक महिला का होना चाहिए। इसे लेकर 'माई बॉडी माई राइट' बैनर तले सालों से कई देशों में प्रदर्शन भी होते रहे हैं। और इसका मुख्य कारण है कि अंवाछित गर्भ और असुरक्षित गर्भ समापन का उपयोग उनकी शारीरिक और मानसिक स्थिति को कमज़ोर करता है। राज्य और संस्थाओं की ज़िम्मेदारी केवल यौन और प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल के साथ सुरक्षित अबॉर्शन प्रदान करने की सुविधा और उसके बारे में जानकारी देने तक सीमित हो सकती है। इसके अलावा चयन के मामलों में कोई भी हस्तक्षेप न केवल समानता के विरूद्ध है बल्कि लोगों की निजता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन भी है।
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