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बात बोलेगी: सिद्दीक कप्पन को ज़मानत से राहत, पर उठे गंभीर सवाल भी

आख़िर क्यों 23 महीनों तक पत्रकार सिद्दीक कप्पन को नहीं मिली ज़मानत। सुप्रीम कोर्ट ने जो बिंदू रखे और राहत दी, क्या वे बाक़ी अदालतें नहीं जानती थीं

सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकार सिद्दीक कप्पन को अंततः 23 महीने बाद यानी क़रीब दो साल बाद ज़मानत दे दी। सिद्दीक को ज़मानत मिलने पर इस बात की तो राहत है कि उन्हें बाहर निकालने के लिए उनके परिजनों-दोस्त पत्रकारों और खासतौर पर उनकी पत्नी रेहनाथ कप्पन ने जो बिना थके-बिना डरे अपना प्रयास जारी रखा, वो रंग लाया। इन्हीं प्रयासों ने इस पत्रकार को जेल के सींखचों से बाहर निकाला। लेकिन ज़मानत और अब तक चली कानूनी लड़ाई ने जो सवाल पेश किये हैं- वे ख़ौफ़नाक हैं। इन पर बात होनी—चर्चा होनी बेहद ज़रूरी है।

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अगर इस केस को सिर्फ ज़मानत तक पहुंचने में दो साल लगे और उसके लिए देश के वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल को अदालत में सिद्दीक कप्पन को डिफेंड करना पड़ा, तब यह समझा जा सकता है कि सिस्टम में किस हद तक दीमक लग चुकी है। क्योंकि जो बातें आज सुप्रीम कोर्ट ने सिद्दीक कप्पन को सशर्त ज़मानत देते हुए कहीं, वे उन तमाम अदालतों को पता थीं, जिन्होंने उन्हें सिरे से ज़मानत देने से मना किया था।

क्या इससे पहले की अदालतें 2011 में देश भर में निर्भया कांड पर फूटे नागरिकों के गुस्से को भूल चुकी थीं, क्यों उन्हें अभिव्यक्ति की आजादी, पत्रकार की रिपोर्टिंग करने के हक के बारे में संझान नहीं था—अगर था (जो कि होना ही चाहिए), तब फिर सिद्दीक कप्पन इतने लंबे समय तक जेल में क्यों बंद रहे? इस सवाल का जवाब आज सुप्रीम कोर्ट के गलियारों से होते हुए केरल के मल्लपुरम के वेनगारा इलाके की गलियों में गूंज रहा है। लोकतंत्र में विश्वास करने वाले हम सब नागरिकों के कानों में इस सवाल की झन्नाटेदार खामोशी बज रही है। यह सवाल सतह के नीचे है, क्योंकि हम सब इस बात पर तसल्ली करने को बाध्य हैं कि आखिर मीलॉर्डों ने इस ओर देखा तो। एक मुसलमान पत्रकार को ज़मानत तो दी!!

हमें आज इस बात को याद करना और कहना बेहद ज़रूरी है कि सिद्दीक कप्पन को जिस तथाकथित हाथरस साज़िश के तहत गिरफ्तार करके इतने लंबे समय तक जेल में बंद रखा गया, उस घटना के बारे में सिद्दीक कप्पन को रिपोर्टिंग करनी बाकी थी। यहां हम आपको याद दिला दें कि 2020 में अगस्त में उत्तर प्रदेश के हाथरस इलाके में एक दलित बेटी के साथ दबंग जातियों के लड़कों ने सामूहिक बलात्कार किया और उसे मरने की स्थिति तक पहुंचा कर छोड़ दिया। बहादुक लड़की ने जीने के लिए बहुत संघर्ष किया, बलात्कारियों के ख़िलाफ बयान दिया और बाद में दम तोड़ दिया। उन्हें इलाज के लिए देश की राजधानी दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में भर्ती कराया गया था, जहां उनकी मौत हुई थी।

बाद में मामले को दबाने की नीयत से रातों-रात पुलिस प्रशासन ने बिना परिजनों की मंजूरी के लड़की की लाश को गांव में फूंक दिया था। इस पर बहुत हंगामा हुआ, विरोध में स्वर उठे। बड़ी संख्या में पत्रकार भी गांव पहुंचे और शुरू में उन्हें अंदर नहीं जाने दिया। मैं भी वहां रिपोर्टिंग करने गई और सारा हाल रिपोर्ट किया। ऐसे में केरल मूल के दिल्ली में रहने वाले पत्रकार सिद्दीक कप्पन का हाथरस रिपोर्ट करने जाना बहुत स्वाभाविक था। कप्पन मलयालम न्यूज़ पोर्टल  आयमुखम के रिपोर्टर थे और केरल यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (केयूजब्लूजे) के सचिव भी थे। यानी दिल्ली के पत्रकार जगत में स्थापित चेहरा थे।  

जिस तरह से उन्हें हाथरस पहुंचने से पहले गिरफ्तार किया गया और बाद में उन पर ख़ौफ़नाक कानून यूएपीए लगाया गया—वह एक अलग स्टोरी-पड़ताल का हिस्सा है। उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें एक विवादित संगठन, जो अभी तक प्रतिबंधित नहीं है—पापुलर फ्रंट ऑफ इंडिया—PFI का सदस्य बताया और यह आरोप लगाया कि वह हाथरस घटना को आधार बनाकर हिंसा और वैमनस्य फैलाना चाहते है—ऐसी किसी साज़िश का हिस्सा थे।

जो बुनियादी चीजें इस घटना, सिद्दीक पर केस से जुड़े हुए हैं, उन पर अगर न भी बात करें, तो एक सीधा-सा सवाल कि क्या सिद्दीक पर इतना जघन्य आरोप था, कि उनके कानूनी हक भी उनसे छीन लिए गये थे। उनकी मां बीमार हो गई, चल बसीं—लेकिन ज़मानत नहीं मिली। उनकी पत्नी जेल के चक्कर काटती रहीं, लेकिन उन्हें मिलने नहीं दिया गया। मुलाकात के लिए भी उन्हें सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा। क्यों? जबकि हम अक्सर ही देखते हैं कि बलात्कार की सजा पाए अपराधी जेल से बाहर ज़मानत पर, फर्लो पर घूमते रहते हैं। बलात्कारियों-हत्यारों को सार्वजनिक तौर पर माला पहनाई जाती है। ऐसे में सिद्दीक कप्पन को ज़मानत तक न दिये जाने का कोई भी ठोस आधार न होने के बावजूद, जेल के भीतर रखना—एक बड़ी कहानी की छोटी कड़ी है। यह कहानी नफ़रत की कहानी है, बदले की कहानी है, एक समुदाय विशेष को सबक़ सिखाने की कहानी है।

आज यानी 9 सितंबर 2022 को जब सिद्दीक कप्पन की रिहाई के लिए अपने तर्क देश के वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल रख रहे थे, तो ऐसा लग रहा था कि देश के नागरिकों के बुनियादी हक़, पत्रकारों के बुनियादी अधिकारों को पेश करने के लिए भी कितने बड़े कंधे की जरूरत होती है। जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार की तरह से पैरवी कर रहे महेश जेठमलानी के तर्कों को ख़ारिज करते हुए कहा कि 2011 में निर्भया बलात्कार कांड में कितने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए थे, जिनके आधार पर कानून में तब्दीली की गई। हरेक व्यक्ति को अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार मिला है। वह (कप्पन) पीड़िता (हाथरस) को न्याय दिलाने की बात कर रहा था, तो क्या यह कानून की निगाह में अपराध हो जाएगा।

मेरा सवाल यहां बस इतना है कि आज जो बातें के माननीय जजों-जिनमें देश के प्रधान न्यायाधीश यूयू ललित समेत एस रविंद्र भट्ट और पीएस नरसिम्हा शामिल थे—ये तमाम कानूनी आधारों के बारे में क्या उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट के जज नहीं जानते थे। क्यों इतनी निर्ममता से सिद्दीक कप्पन के साथ, उनके परिजनों के साथ सलूक किया गया। ऐसे में सिद्दीक कप्पन की पत्नी रेहनाथ कप्पन के ये शब्द गूंजते हैं कि अपने पति को बाहर निकालने की लड़ाई में वह पत्रकार और वकील दोनों बन गईं। जिस तरह से सारे दरवाजे मुझ पर बंद हो गए थे, मुझे अपने पति को देखने तक नहीं दिया जा रहा था, उसने शुरू में मुझे तोड़ दिया था, लेकिन फिर मुझे लगा कि यह लड़ाई मुझे बिना हारे ही लड़नी है।

आज रेहनाथ और उनकी बेटियों का हौसला रंग लाया।  

(भाषा सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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