मट्टो की साइकिलः सार्थक-अच्छी फ़िल्म, लेकिन Dynamism का अभाव
मट्टो की साइकिल, 2022 में विकास के घिनौने प्रचार की पोल खोलती फिल्म है। जाति-जातिगत सोच की गुलामगिरी किस तरह से पूरे सिस्टम, हमारे-आपके जीवन का अभिन्न हिस्सा है, इसे पूरी खामोशी से बयां कर जाती है। ए. गनी के सफल निर्देशन और प्रकाश झा के सशक्त अभिनय के बावजूद यह फिल्म यथास्थितिवादी है। अति यथार्थ दर्शाने, बिल्कुल Realistic लगने की होड़ सी लगती है मट्टो की साइकिल में। शायद यही वजह है कि इसकी बुनियादी प्रस्थापना में जो व्यक्ति वर्ग शोषण-वर्ण शोषण का शिकार होता है—उसके लिए यह खुद कोई सवाल नहीं होता, क्योंकि उसने तो इसे नियति समझकर अंगीकार कर लिया है। यहां विद्रोह नहीं है—मारक स्थितियों के समक्ष बेचारिगी का भाव है।
इस फिल्म को दो चीजें बहुत ख़ास बनाती हैं—पहली मजदूर की जिंदगी में साइकिल की अहमियत, कैसे दोनों एक दूसरे में रुल-मिल गये हैं। साइकिल का चक्का जाम होते ही कैसे मट्टो की जिंदगी थम जाती है। साइकिल के बिना एक दिहाड़ी मजदूर की जिंदगी किस तरह से वीरान हो जाती है, इसे बेहद बारीकी से पेश किया है गनी ने अपनी फिल्म में। साइकिल एक मजदूर की ही सवारी नहीं, उससे उसके परिजनों की जिंदगी जुड़ी हुई है। साइकिल की घंटी से बेटी के चेहरे पर हंसी आती है, तो वहीं घर का पानी भी ढोने का काम करती है साइकिल। साइकिल टूटते ही, जिंदगी बैठ जाती है-इसे बहुत मार्मिक ढंग से दृश्यों में बांधा गया है इस फिल्म में। इस बात का एहसास कितनी शिद्दत से आज के दौर के दर्शक कर पाएंगे—यह एक बड़ा सवाल है।
फिल्म का दूसरा सशक्त पहलू है—इसकी ज़बान, इसकी भाषा। मट्टो की साइकिल की पटकथा उत्तर प्रदेश के मथुरा इलाके के एक गांव पर आधारित है। बहुत अच्छा रिसर्च इस इलाके की बोली, रहन-सहन और राजनीतिक परिवेश पर किया गया है। फिल्म का एक-एक शॉट डॉक्यूमेंटरी का एहसास देता है। साइकिल पर गाना गाते हुए मजदूरों के झुंड का गांव की तरफ लौटने वाला दृश्य हो या फिर साइकिल पर बैठा कर मट्टो द्वारा अपनी पत्नी को झोला-छाप डॉक्टर के यहां ले जाने वाला शॉट हो।
फिल्म की पटकथा बहुत अच्छी तरह से गुंथी तो हुई है—लेकिन वह साइकिल की तरह नहीं दौड़ती। एक्शन कम है। यथार्थ तो है, लेकिन यथार्थ के जो विविध डायमेंशन हैं, वह कम हैं। दिहाड़ी मजदूर शुरू से लेकर अंत तक दयनीय-दीन-हीन ही बना हुआ है। गुस्सा जब उसे आता भी है, तो भी वह फटता नहीं है। शायद यही फर्क है एक संगठित मजदूर में और असंगठित दिहाड़ी श्रमिक में। यहां उसके पास मोल-तोल करने की (Bargaining power) नहीं होती। इसे बेहद मर्मस्पर्शी ढंग से दो-तीन शॉट्स में सामने लाया गया है—जैसे जब साइकिल खराब होने की वजह से मट्टो काम पर देर से पहुंचता है और ठेकेदार उसे बैरंग वापस भेज देता है—तब प्रकाश झा के चेहरे का भाव देखते ही बनता है, दूसरा जब लेबर मंडी से रेट से कम में वह दिन भर मजदूरी करने के बाद कम पैसा मिलने का विरोध करता है, लेकिन बहस आगे नहीं बढ़ाता—तीन सौ रुपये की जगह 200 रुपये लेकर वापस आ जाता है, या फिर जब एक कार मट्टो की साइकिल के आगे आकर रुकती है और कार वाला उल्टा मट्टो पर बरसता है और बाद में अपनी पत्नी से मट्टो इस वाकये के बारे में बिल्कुल दूसरे ढंग से बताता है कि कैसे उसने कार वाले को हड़काया—ये सारे शॉट्स बहुत कुछ कहते हैं।
पूंजीवाद की अंधी दौड़ में श्रम की महत्ता, सम्मान सामान्य जीवन से तकरीबन नदारद हो गया है। गरीब सामान्य तौर पर दिखाई ही नहीं देते हैं और गरीबों का जीवन संकट कहीं किसी सामाजिक-राजनीतिक विमर्श का हिस्सा भी नहीं बनता। मट्टो का घर स्वच्छ भारत स्कीम का हिस्सा होगा— इसका आभास उनके घर के बाहर लिखे इज्जतघर से भली-भांति हो जाता है। अब उसका विरोधाभास उभरता है, जब मट्टो को शौचालय के लिए खेत में बैठा दिखाते हैं—बीड़ी फूंकते हुए। वहां स्वच्छ भारत को जमीन पर उतारने पहुंची टीम की गुंडई—सीटी बजाने और दौड़-दौड़कर हगते भारतीयों को पकड़ने का उपक्रम करते अधिकारियों का आना—जबर्दस्त विडंबना को उजागर करता है।
फिल्म के शुरू से लेकर अंत तक एम.गनी की पकड़ बहुत मजबूत बनी रहती है। बड़े घटनाक्रम, राजनीतिक कमेंट बहुत सहजता से फिल्म में पिरोये गये हैं। बिना बहुत वोकल हुए संदेश देने की कोशिश की गई है। मिसाल के तौर पर गांव से जब हाईवे निकलता है, तो किस तरह से रातों-रात मुआवजे के पैसे आते हैं। किसान और खासतौर से युवा तबका पैसे के लिए खेती छोड़ने को तत्पर दिखता है। बाद में गाड़ी-दारू के साथ प्लाट बेचने के काम में लग जाता है। लेकिन गांव के ही परिचित की संकट में मदद करने को तैयार नहीं होता।
गरीब की मदद भी गरीब ही करता है। साइकिल ठीक करने वाला दुकानदार ही मट्टो को नई साइकिल दिलवाने जाता है, उसका सुख-दुख साझा करता है। उन दोनों के बीच के संवाद जीवन के सहज रंगों को उकेरते हैं।
गांव में गरीब-पिछड़ी जाति की लड़कियों की क्या स्थिति होती हैं, उसे भी पकड़ने की सार्थक कोशिश है। उनका जीवन कितना नीरस-घटनाविहीन बना रहता है। रोमांच-रोमांस की तलाश, जो नैसर्गिक है, उसे वे कहां तलाशे-कैसे हासिल करें—उस मजबूरी को बहुत अच्छे ढंग से अभिनय में उतारा है मट्टो की बेटियों नीरज (आरोही शर्मा) और लिमका (इदहिका रॉय) ने। नीरज का अपनी उम्र के सहज मनोभावों से संघर्ष, जो बाद में लड़के की लिप्सा का शिकार बनने से इनकार करते हुए, उसे थप्पड़ मारने वाले शॉट में एक मुकाम तक पहुंचता है—ग्रामीण परिवेश में पिसती नौजवानी की बानगी है।
ग्रामीण सांमती परिवेश में स्त्री-पुरुष के संबंध किस तरह से रोजमर्रा के जीवन में रोटी-चटनी और बेटियों की चिंता तक सिमट जाते है—उस ओर भी फिल्म इशारा करती है। पति-पत्नी को राहत के चंद पल अस्पताल में ही नसीब होते हैं—जहां पहली बार पति पत्नी की फिक्र करता है।
बहरहाल, एक अच्छी फिल्म बन पड़ी है, जो थोड़ा और डायनेमिक एंगिल ले पाती तो शायद यथास्थितिवाद के मोह से मुक्त हो जाती।
(भाषा सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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