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धुईं : 'पैशन या परिवार' के सवाल से जूझते करोड़ों युवाओं की कहानी

फ़िल्म रिव्यू: धुईं, यानी धुंध/कोहरा; बिहार के दरभंगा की कहानी है। 50 मिनट की फ़िल्म है, कहानी है पंकज की जो दरभंगा में नुक्कड़ नाटक करता है।
Dhuin

अचल मिश्रा उन निर्देशकों में से हैं जिनका सिनेमा आप नहीं देखते, बल्कि वह आपको देखता है; और सिर्फ़ देखता नहीं है आपसे बात करता है। अचल की पहली मैथिली फ़िल्म 'गामक घर' उस परिवार की कहानी थी जिसने गाँव तो छोड़ दिया, लेकिन गाँव ने उस परिवार को कभी नहीं छोड़ा। यह वाक्य बहुत क्लीशे है लेकिन यह भारत के 6 लाख से ज़्यादा गांवों के करोड़ों परिवारों का सच है। अचल मिश्रा की दूसरी मैथिली-हिन्दी फ़िल्म 10 फरवरी को स्ट्रीमिंग प्लैटफ़ार्म 'मूबी' पर रिलीज़ हुई है। फ़िल्म का नाम है धुईं, यानी धुंध/कोहरा; बिहार के दरभंगा की कहानी है। दरभंगा वह शहर है जिसके पास अपनी विरासत है, इतिहास है। इस ऐतिहासिक शहर में रहने वाला लड़का है पंकज, ट्रायल बाई फ़ायर और गामक घर में अभिनय कर चुके अभिनव झा ने पंकज का किरदार निभाया है। 50 मिनट की फ़िल्म है, कहानी है पंकज की जो दरभंगा में नुक्कड़ नाटक करता है।

फ़िल्म में पंकज का संघर्ष है- संघर्ष है नगर निगम के लिए नुक्कड़ नाटक करने से लेकर मुंबई के वर्सोवा या आरामनगर जाकर सिनेमा के लिए ऑडीशन देने का। पंकज रेलवे स्टेशन के बगल में रहता है, दरभंगा के नए-नए बने एयरपोर्ट के पास जाकर प्लेन के साथ फोटो खिंचवाता है; मगर दरभंगा से मुंबई तक का सफ़र इतना आसान नहीं है। इस सफ़र के बीच हैं पंकज के पास किसी गाइड की कमी, उसका बेरोज़गार बाप और बीमार माँ। बहुत ग़रीब घर से आने वाला पंकज जब हंसता भी है तो लगता है उसके शरीर का एक एक कटरा झूठ बोल रहा है, इतनी उदासी से भरा मन हंस कैसे सकता है। फ़िल्म सिर्फ़ 50 मिनट की है, मुश्किल से 24 घंटे की कहानी बताई गई है। मगर इतने कम समय में पंकज के ज़रिए हज़ारों लाखों युवा लड़के/लड़कियों के टूटते सपनों का ज़िक्र किया गया है।

चॉइस मेक करना मुश्किल काम है। मगर हर किसी को तो चॉइस मेक करना ही पड़ती है। मैं दिल्ली आकर थिएटर करता था, 2018 में ग्रेजुएशन पूरा हो गया था, मास्टर्स में एडमिशन नहीं लिया था। मेरे पास दो रास्ते थे, या तो मैं दिल्ली रहता घर से पैसे मंगवाता और थिएटर जारी रखता; या मैं नौकरी करता और घर पर पैसे भेजने लायक बन सकता। जो संघर्ष पंकज का है, वह मैंने 6 महीने के लिए महसूस किया था मगर मैंने जल्द ही चॉइस मेक कर ली। न जाने कितने लड़के लड़कियां पंकज जैसे हैं जो ये चॉइस मेक नहीं कर पाते और करते भी हैं तो एक छोटे से गांव के छोटे से कमरे में बन्द रह जाते हैं।

फ़िल्म में एक सीन है जब पंकज मुम्बई से आये अपने एक सीनियर और 2 और लड़कों के साथ एक मैदान में बैठा है। पीछे एक क़िला है। चारों लोग अब्बास कैरोस्तामी के सिनेमा की बात कर रहे हैं। पंकज के चेहरे से साफ़ है कि उसे कुछ समझ नहीं आ रहा है। मुम्बई से आये लड़के ने उससे पूछा है कि वह मुम्बई जाएगा तो क्या करेगा, कहां रहेगा; और यह भी साफ़ कर दिया है भाई आना तो अपना जुगाड़ कर के आना। पहले भी एक लड़के ने पंकज को यही हिदायत दी थी। तो कैरोस्तामी के सिनेमा के बारे में बड़ी बड़ी बातें हो रही हैं, और मैदान में कोई ड्राइविंग सीख रहा है गाड़ी बार बार गोल गोल घूम रही है। पंकज का चेहरा उदासी से भरा हुआ, वह अपनी पूरी ज़िन्दगी पर सवाल उठा रहा है। अब उससे सवाल पूछा जाता है कि एक कलाकार की सीमाएं क्या होती हैं। यह सवाल, पंकज का चेहरा और उसकी जानने की उत्सुकता; बेसाख़्ता रुला देते हैं।

गांव पर, गांव की ज़िंदगी पर कई फ़िल्में बनी हैं। मगर गामक घर और धुईं जैसी फ़िल्में आज के दौर और आज की पीढ़ी की बात करने वाली हैं। ये फ़िल्म सिर्फ़ पंकज की ग़रीबी, संघर्ष की कहानी नहीं है। बल्कि देश से एक सवाल है कि इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था, इतना विकासशील होने के बावजूद इतने साल बीतने के बाद भी हमने थिएटर को ऐसा क्यों नहीं बनाया जिसे कोई अपना पहला प्रोफेशन समझ सके? थिएटर को फ़िल्म में जाने की सीढ़ी मानने में कोई बुराई नहीं है। मगर थिएटर इतना सक्षम क्यों नहीं है कि वह पैशन के साथ साथ प्रोफेशन भी बन जाये?

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