आईआईटी दिल्ली में दलित छात्र की आत्महत्या के बाद छात्रों ने कहा, "मानें कि जातिगत भेदभाव हुआ है"
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली के छात्रों ने गुरुवार शाम को उदयगिरि छात्रावास में अपने कमरे में मृत पाए गए छात्र आयुष आशना की आत्महत्या की जांच की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन किया।
छात्रों ने कहा कि डीन ऑफ स्टूडेंट्स के शोक संदेश में इस बात का जिक्र नहीं था कि वह अनुसूचित जाति (एससी) समुदाय का छात्र था और अगर उन्हें जाति-आधारित भेदभाव का सामना करना पड़ा था तो इसकी गहन जांच की जानी चाहिए थी। दिल्ली पुलिस को मामले में कोई साजिश या सुसाइड लेटर नहीं मिला है।
आईआईटी दिल्ली में एससी/एसटी छात्र प्रतिनिधि और मानविकी और सामाजिक विज्ञान विभाग में पीएचडी स्कॉलर शाइना वर्मा ने न्यूज़क्लिक को बताया कि यह साबित करना आसान है कि आशना की मृत्यु मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं के चलते आत्महत्या से हुई है।
शाइना ने सवाल दागा कि, "हमें कैसे पता चलेगा कि यह जातिगत भेदभाव का मामला था या नहीं? हमारे पास इसे जाँचने के लिए पर्याप्त उदाहरण हैं कि आईआईटी में जातिगत भेदभाव व्याप्त है। हम मामले की निष्पक्ष जांच चाहते हैं। हम यह भी देखना चाहते हैं कि आईआईटी दिल्ली यह सुनिश्चित करने के लिए क्या सुधारात्मक उपाय कर रही है कि आयुष को जिस पीड़ा से गुजरना पड़ा उसका सामना अन्य छत्रों को न करना पड़े और छात्रों को न्याय मिले इसके लिए वह परिसर के भीतर एससी/एसटी छात्रों को सुरक्षित महसूस कराने के लिए क्या कर सकती है।''
एमएससी कॉग्निटिव साइंसेज के छात्र यतेंद्र कुमार ने न्यूज़क्लिक को बताया कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की संरचना इस तरह से डिज़ाइन की गई है कि वंचित समुदायों के छात्रों को पहले वर्ष में अक्सर मैंटर नहीं मिलते हैं।
हक़ीक़त यह है कि, "संस्थान में अनुसूचित जाति से कोई शिक्षक नहीं हैं। जब छात्रों को कई दशकों संस्थान से बाहर रखा गया तो शिक्षक कहाँ से मिलेंगे?"
आईआईटी के नए छात्रों को कैंपस जीवन में ढलने और उनकी चिंताओं को साझा करने और मदद के लिए वरिष्ठ छात्रों को मैंटर के रूप में पेश किया जाता है।
"भले ही आत्महत्या मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के कारण हुई हो, हम कहां जाएं? क्या संस्थान जाति-आधारित आघात पहुँचने पर हमें परामर्श देने के लिए मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों का कोई इंतजाम करता है? हम इसके बारे में नहीं जानते हैं। हम बस ओरिएंटेशन कार्यक्रमों या आपात स्थिति के दौरान उनके चेहरे देखते हैं। अगर हम समग्रता से देखें तो जाति इस निधन को और भी गंभीर बना देती है।"
उन्होंने कहा कि आईआईटी बॉम्बे में दर्शन सोलंकी की आत्महत्या के बाद, निदेशक ने उनकी चिंताओं के बारे में जानना चाहा था।
"यह एक अच्छा कदम था। हमने कहा था कि हम हर विभाग में प्रतिनिधि के रूप में एक फेकल्टी चाहते थे, जिनसे परेशान छात्र संपर्क कर सकें। दूसरा, हम ऐसे मुद्दों को संबोधित करने के लिए एक छात्र फेकल्टी चाहते थे।"
कुमार ने सवाल उठाया कि इस मामले में प्रशासन ने पीड़िता की जाति की पहचान क्यों छिपाई।
"हमें एससी/एसटी सेल के लिए लड़ना पड़ा, और हमसे पूछा गया कि हमें ऐसी फेकल्टी की जरूरत क्यों है। दर्शन सोलंकी पहले दलित छात्र नहीं थे, जिन्होने आत्महत्या की थी। आईआईटी में पहले भी ऐसे कई घटनाएँ घट चुकी हैं। फिर भी, परिसरों में जाति-आधारित भेदभाव को स्वीकार करने में इतना समय लग गया। छात्रों के सामने पेश किए गए शोक संदेश में उनकी जातीय पृष्ठभूमि का जिक्र तक नहीं था। यह समझ से परे है कि आप इसे क्यों छिपाना चाहते थे।''
छात्रों का कहना है कि भेदभाव रैंकिंग मांगने से शुरू होती है। वंचित समुदायों के छात्रों को आईआईटी-जेईई परिणामों में कम रैंकिंग मिलती है।
"भले ही वरिष्ठ छात्र आपकी जाति नहीं पुछते हैं, लेकिन वे रैंक के माध्यम से इसके बारे में जान लेंते हैं। जिस छात्र से मैंने बात की, उसने कहा कि एससी/एसटी छात्रों में हीन भावना गहरी होती है क्योंकि उन्हें लगातार याद दिलाया जाता है कि वे संस्थान के लायक नहीं हैं।"
कुमार ने आगे बताया कि क्यों विश्वविद्यालय में जाति-आधारित भेदभाव को स्वीकार किया जाना चाहिए?
"एक छात्र जिसने इस संस्थान तक पहुंचने के लिए कई लड़ाइयां लड़ीं, उसे हमेशा यह एहसास कराया जाता है कि वह एक अयोग्य छात्र है। उसे विभिन्न समितियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है। यदि आप लिंग के आधार पर भेदभाव को स्वीकार करने को तैयार हैं, तो जाति आधारित भेदभाव को पहचानने में समस्या क्या है?"
छात्र चुप्पी की संस्कृति से स्पष्ट रूप से नाराज दिखाई दिए, जहां कोई भी परिसर में जाति पर बातचीत में शामिल नहीं होता है। एक अन्य छात्र ने कहा कि पढ़ाने के तरीकों पर भी दोबारा गौर करने की जरूरत है।
एक और उदाहरण में, "यदि आप गणित विभाग का उदाहरण लें, तो 80 प्रतिशत छात्र उसमें फ़ेल हो गए, और प्रोफेसर कठिन पेपर पर गर्व करते हैं। छात्रों के फ़ेल होने में आपको क्या खुशी मिलती है?"
नाम न छापने का अनुरोध पर एक शिक्षक ने न्यूज़क्लिक को बताया कि संस्थान को छात्रों को सकारात्मक कार्रवाई के बारे में संवेदनशील बनाने के लिए बहुत कुछ करना है।
"छात्र आरक्षण की गलत समझ तथा कई पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं। एक निरंतर भावना है कि आईआईटी के छात्र राष्ट्र-निर्माता हैं और जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय) के छात्र राष्ट्र-तोड़ने वाले हैं। हम यहां देख रहे हैं कि इस मुद्दे पर कौन मुखर है। इसे एक अराजनीतिक स्थान के रूप में चित्रित किया गया है, लेकिन यह बहिष्कार के मामले में गहराई से राजनीतिक है।"
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ (जेएनयूएसयू) की अध्यक्ष आइशी घोष, जो एसएफआई, एआईएसए, बीएपीएसए और डीएसएफ से जुड़े कई अन्य छात्रों के साथ विरोध प्रदर्शन में शामिल हुईं, ने कहा कि शिक्षा संस्थानों को यह समझना चाहिए कि कोई छात्र आत्महत्या का प्रयास तभी करता है जब उन्हें अलगाव का सामना करना पड़ता है।
"हम इसे एक संस्थागत हत्या कह रहे हैं क्योंकि इन प्रमुख संस्थानों में प्रत्येक आत्महत्या का मामला एससी, एसटी और ओबीसी समुदाय के छात्रों से जुड़ा होता है। आईआईटी उन्हें न्याय क्यों नहीं दे पा रही हैं? प्रशासक यह क्यों कहना शुरू कर देते हैं कि आत्महत्याएं ऐसे ही हो रही हैं ?आत्महत्या कोई प्राकृतिक घटना नहीं है!"
उन्होंने कहा कि छात्र अक्सर यह नोट छोड़ जाते हैं कि कैसे उन्हें उनके धर्म और जाति के आधार पर निशाना बनाया गया। "हमारे पास दर्शन सोलंकी और फातिमा लतीफ के उदाहरण हैं। कभी-कभी छात्र ऐसे पत्र लिखना नहीं चुनते हैं।"
कठिन पेपर सेट करने के लिए परीक्षकों की कठोरता पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा, "आप कैसे खुश महसूस कर सकते हैं कि 80 प्रतिशत छात्र किसी विशेष पाठ्यक्रम में फ़ेल हो गए हैं? कोई इससे खुशी कैसे हासिल कर सकता है? इसमें निश्चित रूप से कोई गर्व की बात नहीं है। हमें इन प्रोफेसरों की सामाजिक स्थिति को देखने की जरूरत है जो ऐसे कठिन पेपरों में योग्यता के लिए तर्क देते हैं। वे केवल यह दिखाएंगे कि वंचित समुदायों के छात्र प्रवेश पाने के लिए आरक्षण का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन वे इन पेपरों को पास नहीं कर सकते हैं। आपके शिक्षण की सफलता तभी होगी जब छात्र समावेशी महसूस करें और नई चीजें सीखें।"
उन्होंने आगे कहा, "हालांकि, इन संस्थानों में यह द्वंद्व चल रहा है कि दो समूह हैं; एक जो बोर्ड परीक्षा में 90 प्रतिशत अंकों के साथ मेधावी हैं और दूसरा उन छात्रों का समूह है जो लगातार असफल हैं और आईआईटी में रहने के लायक नहीं हैं। "
घोष नई शिक्षा नीति और उसके निहितार्थों को लेकर आशंकित नजर आती हैं। शिक्षाविदों ने नीति दस्तावेज़ में आरक्षण की अनुपस्थिति पर चिंता जताई है। वे इस बात से भी चिंतित हैं कि कई प्रवेश और निकास बिंदुओं वाले स्नातक पाठ्यक्रमों की नई संरचना के प्रस्ताव से हाशिए पर रहने वाले समुदायों की लड़कियों और छात्रों पर बहुत बुरा असर पड़ेगा।
'अंबेडकर स्टडी कलेक्टिव के प्रतिनिधि ने हमें बताया कि परिसर में मात्र 0.5 प्रतिशत एससी शिक्षक हैं।'
उन्होंने आगे कहा कि, "जेएनयू तब सुर्खियों में आया था जब सोन झरिया मिंज देश की पहली महिला आदिवासी कुलपति बनीं थीं। क्या यह शर्म की बात नहीं है कि हमें इस पल को पाने के लिए आजादी के बाद 75 साल तक इंतजार करना पड़ा? सरकार राष्ट्रपति मुर्मू के साथ आदिवासी पहचानको साथ जोड़ती है।" ये 19,000 ड्रॉप-आउट छात्र जो अगले राष्ट्रपति मुर्मू बनने का सपना देख सकते हैं, अब परिसर छोड़ रहे हैं। इस प्रकार सरकार को जवाब देना होगा कि वह इसे कैसे सही करेगी।"
न्यूज़क्लिक को अभी तक आईआईटी दिल्ली के निदेशक रंगन बनर्जी से सवालों का जवाब नहीं मिला है। जवाब मिलने पर कहानी अपडेट की जाएगी।
मूल अंग्रेजी लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
Acknowledge Caste Discrimination, say IIT Delhi Students After Suicide of an SC Student
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