कश्मीर: अनंतनाग मुठभेड़ के सबक़
ऐसा लगता नहीं कि केंद्र की हिंदुत्ववादी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अनंतनाग मुठभेड़ से कोई सबक लिया है।
इसका सीधा-सादा सबक यही है कि कश्मीर को सैनिक कार्रवाई की नहीं राजनीतिक कार्रवाई की ज़रूरत है। दोनों तरफ़ की बंदूकों को शांत कर दिया जाना चाहिए और बातचीत की टेबल पर सभी संबंधित पक्षों को बुलाया जाना चाहिए - बिना शर्त। जाहिर है इसके लिए पहल भारत सरकार को करनी पड़ेगी।
एक बात और। जो ‘कश्मीर विशेषज्ञ’(!) यह दावा कर रहे हैं कि कश्मीर में ‘आतंकवाद’ अब ‘बुझती हुई चिनगारी’ है, वे जानबूझकर भ्रम की दीवार खड़ी कर रहे हैं। ऐसा वे इसलिए कर रहे हैं कि भाजपा और नरेंद्र मोदी के इस खोखले दावे को सही बताया जाये कि संविधान के अनुच्छेद 370 को ख़त्म कर दिये जाने के बाद कश्मीर में हालत सामान्य और शांतिपूर्ण हैं।
अनंतनाग मुठभेड़ की ख़बरों से पता चलता है कि लंबे समय से किसी भी राजनीतिक पहल और बातचीत के दरवाज़े बंद रहने की प्रतिक्रिया में चरमपंथ/मिलिटेंसी का नया दौर कश्मीर में शुरू हो रहा है। स्थिति ज़्यादा चिंताजनक है।
जम्मू-कश्मीर के अनंतनाग ज़िले के घने जंगलों में 13 सितंबर से 19 सितंबर तक—पूरे एक हफ़्ते—भारतीय सेना और जम्मू-कश्मीर पुलिस के साथ हथियारबंद विद्रोहियों (मिलिटेंट) की मुठभेड़ चली। इसमें सेना के दो अधिकारी और एक फ़ौजी मारे गये और पुलिस का एक अधिकारी भी मारा गया। मुठभेड़ के पहले दिन ही (13 सितंबर) ये चारों मौतें हुईं। सेना ने बताया कि दो विद्रोही भी मारे गये।
यह मुठभेड़ एक हफ़्ते तक लगातार चली। सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा। एक हफ़्ते तक विद्रोही टिके रहे/लड़ते रहे—इससे पता चलता है कि स्थानीय जनता के समर्थन के बग़ैर विद्रोही इतने दिनों तक टिके नहीं रह सकते थे।
इससे यह भी पता चलता है कि कश्मीर की ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और ही है - कश्मीर में स्थिति न शांतिपूर्ण है, न सामान्य।
अनंतनाग की घटना को गंभीर चेतावनी के रूप में लेना चाहिए कि कश्मीर को राजनीतिक समाधान की तुरंत आवश्यकता है। नहीं तो हालत और बदतर होगी। सेना को बैरकों में वापस भेजा जाना चाहिए।
इस बात को याद रखना चाहिए कि कश्मीर में चरमपंथ/मिलिटेंसी 30 साल से ज़्यादा समय से मौजूद है और उसके ठोस कारण रहे हैं। इसे राजनीतिक नज़रिए से देखने की बजाय सैनिक नज़रिए से—‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के नज़रिए से—देखा गया। राजनीतिक समाधान ढूंढ़ने की बजाय सैनिक कार्रवाई पर ज़्यादा-से-ज़्यादा ज़ोर दिया गया।
नतीज़ा यह हुआ कि कश्मीर आज दुनिया के सर्वाधिक सैन्यीकृत (militarised) क्षेत्रों में एक है। कश्मीर में सेना को पूरी छूट दे दी गयी। इन 30 सालों में दमन और उत्पीड़न का भयावह सिलसिला चल पड़ा। हज़ारों-हज़ार कश्मीरी लोग—भारतीय नागरिक—मार डाले गये, हज़ारों कश्मीरी लोगों को सेना ने ज़बरन लापता कर दिया, बलात्कारों और यातनाओं की कोई सीमा नहीं रही। पुलिस-समेत कई सुरक्षा सैनिक भी मारे गये। तीस साल से ख़ून और हिंसा का अंतहीन दौर चलता चला आ रहा है।
अनंतनाग मुठभेड़ से चेतावनी मिल रही है कि आने वाले दिनों में स्थिति और गंभीर, और हिंसक, और यातना दायक हो सकती है। सेना के बूते यह माहौल नहीं बदला जा सकता। यह उसी का किया-धरा है। कश्मीरी जनता सेना को ही हिंसा और दमन के स्रोत के रूप में देखती है।
कश्मीर में ख़ून-ख़राबा और हिंसा का माहौल अगर ख़त्म करना है तो राजनीतिक पहल लेने और राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने के अलावा और कोई उपाय नहीं है। बातचीत की टेबल पर आकर, आमने-सामने की बातचीत से ही, वर्षों से चले आ रहे नगा विद्रोह और मिज़ो विद्रोह का राजनीतिक समाधान निकला था। कश्मीर में भी यह संभव है।
(लेखक कवि और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)
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