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हिंदी आख़िर किसकी मातृभाषा है?

“भारत में कितने लोग हैं, जो किताबों में पढ़ाई जाने वाली हिन्दी अपने घरों में बोलते हैं? कितने लोगों की मातृभाषा हिन्दी है? आप एक भाषा को मार कर किसी को हिन्दी तक पहुँचा सकते हैं क्या?” 
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हिंदी आख़िर किसकी मातृभाषा है?
Image courtesy Wikimedia Commons

“भारत में कितने लोग हैं, जो किताबों में पढ़ाई जाने वाली हिन्दी अपने घरों में बोलते हैं? कितने लोगों की मातृभाषा हिन्दी है? आप एक भाषा को मार कर किसी को हिन्दी तक पहुँचा सकते हैं क्या?” 
-आएशा किदवई 

कहा जाता है और ये सच भी है कि भारत में हर 5-10 कोस के बाद भाषा बदल जाती है। हमारे संविधान के हिसाब से हमारे देश में 22 भाषाएँ हैं जिनकी क़रीब 400 से भी ज़्यादा बोलियाँ हैं। भारत एक विविध देश है, यहाँ अनेकता में एकता है, यहाँ की विविधता ही इसे महान देश बनाता है; ऐसी बातें आपने सुनी ही होंगी, लेकिन यही बातें तब ग़ायब हो जाती हैं, जब देश के दक्षिणी इलाक़े के लोगों को ज़बरदस्ती "हिन्दी" बोलने के लिए  कहा जाता है । ये विविधता तब ख़त्म हो जाती है, जब हम 130 करोड़ लोगों के देश की सभी भाषाओं-बोलियों को भूल कर सिर्फ़ हिन्दी पर सारा ध्यान केन्द्रित कर देते हैं।

हिन्दी-उर्दू, हिन्दी भाषी-ग़ैर हिन्दी भाषी ये लड़ाइयाँ नई नहीं हैं, ये वो बातें नहीं हैं जो आज तक कभी सुनी न गई हों, लेकिन इस सब के बीच समझने और जानने वाली बात ये है कि दरअसल "हिन्दी" बोली कहाँ जाती है, और हिन्दी को 29 राज्य और 7 केन्द्र्शाषित प्रदेशों के देश में लागू कर देना कितना सही है? 

हम जानते हैं कि देश में एक "हिन्दी बेल्ट" है, जो मध्य-उत्तर भारत का इलाक़ा है, यानी मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, झारखंड और हरियाणा; और इन्हीं इलाक़ों में माना जाता है कि हिन्दी बोलने वाले लोग मौजूद हैं। लेकिन देखने और समझने वाली बात ये है कि क्या ये लोग हिन्दी बोलते भी हैं? नहीं!

मातृभाषा किसे कहते हैं? जो आप अपनी माँ या अपने परिवार के सामने बोलते हों, यहाँ ये सवाल उठता है कि ये भाषा हिन्दी, जिस भाषा में मैं लिख रहा हूँ; वो भाषा कितने लोग अपने घरों में बोलते हैं? 
हमें ये समझने की ज़रूरत है कि तथाकथित "हिन्दी बेल्ट" की भाषा हिन्दी नहीं थी। उनकी भाषाएँ वो थीं, जो वे अपने घरों में बोलते थे। हिन्दी तो हमें स्कूल में सिखाई गई थी। 

मैं एक सीबीएसई स्कूल से पढ़ा हूँ, अंग्रेज़ी माध्यम का स्कूल; मेरे जैसे कई लोग इस बात से इत्तेफ़ाक़ रखेंगे कि सीबीएसई के स्कूलों में इंग्लिश में बात ना करने पर फ़ाइन लगाया जाता था, और हम सब लोग इससे डरते थे। हालांकि भाषा सिखाने पर कोई ज़ोर नहीं था, लेकिन इंग्लिश बोलनी ज़रूरी थी। इस तरह की बातों से पता चलता है कि इंग्लिश को "एलीट" ज़बान की तरह पेश किया गया है, क्योंकि ये वो ज़बान है जो अंग्रेज़ बोलते थे। वो अंग्रेज़ जिन्होंने हम पर 200 साल तक राज किया, और क्योंकि उन्होंने हम पर राज किया था, तो उनकी भाषा उच्च स्तर की मान ली गई है; और अंग्रेज़ी में बात ना कर पाने वालों पर और हिन्दी में बात करने वालों पर जुर्माना लगाया जाता है।

सीबीएसई से एक स्तर नीचे होते हैं इस "हिन्दी बेल्ट" के हिन्दी माध्यम के स्कूल, जहाँ अंग्रेज़ी पर तो उतना ज़ोर नहीं दिया जाता है, लेकिन हिन्दी पर ज़ोर दिया जाता है। एक सच ये भी है कि आर्थिक स्तर पर कमज़ोर लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजते हैं, और उनमें से ज़्यादातर लोग अपनी मातृभाषा में बात करते हैं; और उन्हें स्कूल में हिन्दी में बात करने को कहा जाता है। 
यहाँ हिन्दी "एलीट" भाषा बन जाती है, और अंग्रेजी की जगह ले लेती है। 

हिन्दी बोलने वाले लोग और तथाकथित राष्ट्रवादी लोग, हिंदुस्तान का "एकीकरण" करना चाहते हैं। मौजूदा सरकार इस मामले में सबसे आगे बढ़ कर हिस्सा लेती आ रही है। इसका उदाहरण यूँ समझा जाए कि दक्षिण भारत की भाषाओं: तेलुगू, तमिल, कन्नड़ और मलयालम को, हिन्दी भाषियों द्वारा एक बाहर की भाषा के रूप में देखा जाता है, और बीजेपी सरकार और अन्य धार्मिक संगठनों ने लगातार ग़ैर-हिंदीभाषियों पर हिन्दी को थोपा है। जब अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे, वे संयुक्त राष्ट्र में जा कर हिन्दी में स्पीच देते थे, जिस बात का दंभ आज भी भरा जाता है। इसी कड़ी में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने भी विदेश जा कर हिन्दी में स्पीच दीं, जिस बात पर भी लोग ख़ुश हुए। बीजेपी के पिछले कार्यकाल में इस बात को बढ़ा-चढ़ा दिखाया गया कि हिन्दी भारत की मात्रभाषा है, और हर प्रधानमंत्री को हिन्दी में ही अपना व्याख्यान देना चाहिए; जिस पर शशि थरूर ने संसद में कहा कि हिन्दी हमारी मातृभाषा नहीं है, और अगर कोई प्रधानमंत्री हिन्दी भाषी नहीं है, तो वो क्यों हिन्दी में बात करे? संविधान ने हमें अपनी भाषा बोलने का अधिकार दिया है। 

हिन्दी को "थोपने" की ये रणनीति नई नहीं है। हिन्दी भाषी तबक़े ने हमेशा से हिन्दी को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया है और इस कड़ी में देश की अन्य सभी भाषाओं को नकारा है, सभी बोलियों को नकारा है। 

ये "एकीकरण" का ख़्वाब दरअसल उस सोच का प्रभाव है जो अंग्रेज़ों ने अपने राज के दौरान हम पर थोपी थी, कि सबकी भाषा अंग्रेज़ी हो! जबकि भारत जैसे देश में जहाँ संस्कृति, सभ्यता इतनी पुरानी और इतनी विविध है, ये सोचते हुए भी अजीब सा लगता है कि सिर्फ़ एक भाषा बोली जाएगी। 

हिन्दी से दिक़्क़त नहीं है, अपनी भाषा से प्यार है! 

आईसीएफ़ ने इस बारें में आएशा किदवई से बात करी तो उन्होंने कहा, “अगर मैं किसी को लिखना-पढ़ना सिखा रही हूँ, तो अपनी ज़बान के साथ-साथ उसे हिन्दी पढ़ाऊँ तो उसमें क्या ग़लत है? ऐसे में उस बच्चे को हिन्दी तक सही तरीक़े से पहुँच पाने का मौक़ा मिलेगा, क्योंकि मैं अपनी भाषा के ज़रिये जाऊँगी। ये एकदम यूरोपियन सोच है कि हम एक ही ज़बान बोलें। संविधान में लिखा है कि मुझे मेरी भाषा में शिक्षा हासिल करने का अधिकार है, पर अगर मेरी मातृभाषा को भाषा का दर्जा ही नहीं दिया जाएगा, मुझ पर हिन्दी थोपी जाएगी, अगर हर भाषा को हिन्दी कहा जाएगा, तो मेरी भाषा तो लुप्त ही हो गई।" 
 
आएशा किदवई ने बताया कि हिन्दी बेल्ट में रहने वाले, अवधी हरयाणवी भोजपुरी मैथिली बोलने वाले लोगों को हिन्दी तक पहुँचाने के लिए किन ज़रियों का इस्तेमाल किया जाता है, वो हमारी शिक्षा व्यवस्था में एक बड़ी दिक़्क़त है। 

बीते दिनों हिन्दी के एक लेखक-आलोचक प्रभात रंजन ने कहा था, “भोजपुरी शिष्ट लोगों की भाषा इसलिए नहीं बन पाई क्योंकि इसमें गालियाँ बहुत ज़्यादा हैं।"

ये ऐसी वाहियात बात है जिस पर कोई बात करना बेईमानी सा लगता है लेकिन आप पैटर्न को समझिये; मैं इसे एक चाल कहूँगा कि हिन्दी थोपने के लिए देश की जनता को उसकी अपनी भाषा से नफ़रत करवा दी जाए। ये बातें अक्सर कही जाती हैं कि हरियाणवी, भोजपुरी, अवधी और अन्य भाषाएँ फूहड़ हैं, ये लट्ठमार हैं, इनमें गालियाँ हैं। इस यूरोपियन सोच का असर ये होता है कि आम आदमी भी अपनी भाषा से नफ़रत करने लगता है। 

मैं अगर बिहार के गाँवों के बारे में बात करूँ, तो शिक्षा व्यवस्था नेताओं, मीडिया ने लगातार हिन्दी और अंग्रेज़ी को इतना बड़ा बताया है कि आज एक आम परिवार के माँ-बाप अपने बच्चों को कहते हैं, “nose में से finger out करो तो!” इन माँ-बाप को ये लगने लगता है कि भोजपुरी या और कोई भाषा फूहड़ है, "गँवार" है। 

आएशा किदवई कहती हैं, "जब इन भाषाओं को बुरा कहा जाता है तो हम ये भूल जाते हैं कि हमारा आगाज़ी साहित्य अवधी में लिखा गया था; कबीर, अमीर खुसरो ने कभी हिन्दी नहीं लिखी थी।"

शेक्सपियर की भाषा में कहें तो, “Not that I love Hindi less, but that I love my mother-tongue more!” 

आएशा किदवई कहती हैं, “जब हम समय के साथ और लोकतांत्रिक हो चुके हैं, तो हमें ये भेद-भाव बहुत पीछे छोड़ देना चाहिए। हमारी शिक्षा-व्यावस्था ऐसी होनी चाहिए कि हमें हर भाषा पढ़ने का अधिकार रहे। किसी पर कोई भाषा क्यों थोपी जाए? अगर मैं 'ज़' नहीं बोल पाती हूँ, तो क्या वो ग़लती है? आपने तो मेरी भाषा पर ध्यान ही नहीं दिया ना!”

जिसे हम तथाकथित हिन्दी-बेल्ट बोलते हैं, मैं वहीं से ताल्लुक़ रखता हूँ। हिन्दी, जो कि सिर्फ़ एक "एलीट" आधिकारिक ज़बान है, वो मुझ पर थोप दी जाए, किसी पर भी थोप दी जाए; तो हमारे अधिकारों, हमारी संस्कृति का हनन हो रहा है। 

कोई भी किसी भी भाषा को सीख लेगा, लेकिन किस क़ीमत पर? क्या कोई हिन्दी इसलिए सीखे कि उसे हुक्मरान कह रहे हैं, कि उसकी मातृभाषा फूहड़ है!

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