यूपी: सपा की कार्यकारिणी में ओबीसी-दलित-मुस्लिमों का संगम! ठाकुर-ब्राह्मणों से दूरी
पिछले साल जब उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव हुए तब भारतीय जनता पार्टी ने लगातार दूसरी बार प्रचंड बहुमत से चुनाव जीतकर 37 साल पुराना रिकॉर्ड तोड़ दिया, और मुख्य प्रतिद्विंदी मानी जा रही सपा को हरा दिया। इस हार के बाद सपा के भीतर विचार विमर्श हुए, अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष को लेकर भी कई बैठकें हुईं।
समाजवादी पार्टी हार से उबरने की कोशिशों में लगी थी, इसी बीच पार्टी संरक्षक मुलायम सिंह यादव का निधन हो जाता है। मुलायम सिंह यादव का चले जाना देश की राजनीति के लिए जितनी बड़ी क्षति है, उससे ज़्यादा चुनौतियां सपा के लिए पेश हो गईं। लेकिन मुलायम सिंह ने जाते-जाते टूट चुके यादव परिवार को एक कर दिया।
अब समाजवादी पार्टी आने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारियों में पूरी तरह जुट गई है, इसी बीच पार्टी ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी का भी गठन कर दिया है। अब क्योंकि बग़ैर मुलायम यादव के उत्तर प्रदेश की लोकसभा सीटों पर लड़ना है, तो कार्यकारिणी में शामिल कार्यकर्ताओं का जातीय समीकरण बेहद अहम हो जाता है, और सबसे ज़्यादा इसी की ध्यान भी रखा गया है।
कहने का मतलब ये है कि अखिलेश यादव ने कार्यकारिणी में चुने गए सदस्यों के ज़रिए ये बता दिया है कि आने वाले वक्त में पार्टी पिछड़ों-दलितों और मुसलमानों का समीकरण बनाकर ही राजनीति में आगे बढ़ेगी। यानी पार्टी में मुसलमान और यादवों के अलावा अब ओबीसी समुदाय का भी बोलबाला रहेगा।
इसमें सबसे महत्वपूर्ण फैसला ये है कि सपा ने अपनी कार्यकारिणी में ब्राह्मणों और ठाकुरों को बहुत ज़्यादा तरजीह नहीं दी है, जो पहले हुआ करती थी।
अब यूं कह लीजिए कि समाजवादी पार्टी ने 64 सदस्यों वाली अपनी कार्यकारिणी में जाति, उम्र और समाज का पूरा ध्यान रखा है। हालांकि ठाकुर समाज को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ किया गया है।
सपा की कार्यकारिणी में अखिलेश यादव को एक बार फिर से पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया जबकि किरनमय नन्दा को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया।
इसके अलावा कार्यकारिणी के लिए प्रमुख राष्ट्रीय महासचिव, राष्ट्रीय महासचिव और राष्ट्रीय सचिवों के नामों का ऐलान भी हुआ है।
वैसे तो पूरी कार्यकारिणी में महज़ चार ब्राह्मण सदस्य हैं, लेकिन 14 राष्ट्रीय महासचिव में इन्हें तरजीह नहीं दी गई। जबकि इस बार अखिलेश यादव ने ओबीसी चेहरों को भरपूर जगह दी है।
ओबीसी की सभी बड़ी जातियों को राष्ट्रीय संगठन में बड़े पद दिए गए हैं, मौर्य, राजभर निषाद और कुर्मी जाति के अलावा जाट नेताओं को भी राष्ट्रीय संगठन पदों पर सपा ने जगह दी है, जबकि पासी, जाटव जैसी दलित जातियों को भी जगह मिली है। समाजवादी पार्टी ने भी इस बार बाहर से आए नेताओं को भरपूर स्थान दिया है, वो चाहे भाजपा से आए नेता हों या फिर बीएसपी से आए हुए नेता, या फिर कांग्रेस से। इस बार संगठन में उन्हें भी भरपूर जगह दी गई है।
कार्यकारिणी में बड़े दलित चेहरे
पूर्वी उत्तर प्रदेश में पिछड़ों की सियासत को साधने के लिए पिछड़ी जाति के दो नेताओं को राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया है, प्रदेश में कुर्मी बिरादरी के बड़े चेहरा विधायक लालजी वर्मा और राजभर समाज के बड़े नेता विधायक राम अचल राजभर को राष्ट्रीय कार्यकारिणी में राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया है। लालजी वर्मा अम्बेडकरनगर के कटेहरी विधानसभा सीट से विधायक हैं और राम अचल राजभर अकबरपुर सीट से विधायक हैं।
इसके अलावा अखिलेश यादव ने अम्बेडकरनगर के अपने पुराने साथी टांडा विधायक राम मूर्ति वर्मा और दलितों के बड़े नेता आलापुर विधायक त्रिभुवन दत्त को राष्ट्रीय सचिव बनाया है।
किस मुस्लिम नेता को बड़ी ज़िम्मेदारी
अखिलेश यादव ने दलित और ओबीसी के साथ-साथ मुस्लिमों को भी खास तरजीह दी है, और कार्यकारिणी में बड़ी ज़िम्मेदारियों से नवाज़ा है। कानून शिकंजे में घिरने के बाद आज़म खान के करीबी भले ही लोकसभा का उपचुनाव हार गए हों, लेकिन आज़म को सबसे वरिष्ठ नेता और मुसलमानों का बड़ा नेता होने का फायदा ज़रूर मिला है। यही कारण है कि अखिलेश ने आज़म को राष्ट्रीय महासचिव बनाया है। इसके अलावा पूर्व मंत्री कमाल अख्तर, अमरोहा से जावेद आब्दी और संभल से जावेद अली जो राज्यसभा सांसद हैं, इन्हें भी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जगह दी है। कमाल अख्तर और जावेद आब्दी को राष्ट्रीय सचिव जबकि जावेद खान राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य बनाए गए हैं।
शिवपाल यादव को तोहफ़ा
पिछले दो चुनावों में सपा की जिस तरह हार हुई उसमें कहा जाने लगा कि घरेलू कलह की बहुत बड़ी हिस्सेदारी थी, क्योंकि अखिलेश के चाचा मुलायम सिंह के भाई शिवपाल यादव ने बग़ावत कर अपनी अलग पार्टी बना ली थी। लेकिन मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद उन्होंने अपनी पार्टी का सपा में विलय किया और मैनपुरी लोकसभा उपचुनावों में बहू डिंपल यादव को बड़ी जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई, शायद इसी का तोहफा शिवपाल यादव को पार्टी संगठन के लिए राष्ट्रीय महासचिव के रूप में मिला है।
भाजपा का बिगड़ेगा समीकरण
विधानसभा हो या लोकसभा... हर लिहाज़ से उत्तर प्रदेश बेहद महत्वपूर्ण है। यानी किसी भी राजनीतिक दल का यहां पर पैठ बनाना बेहद ज़रूरी है, लेकिन कैसे? तो इसका उत्तर है कि जातीय समीकरण सटीक बैठना चाहिए। अब इसी सोशल इंजीनियरिंग में अखिलेश आगे बढ़ रहे हैं।
अखिलेश को खूब मालूम है कि ब्राह्मणों और ठाकुर समाज का ज़्यादातर वोट भाजपा के पक्ष में है, जिसे डिगा पाना मुश्किल है। तो सबसे बड़ा समाज जो बचता है वो ओबीसी का। इसके अलावा राजनीति में मायावती का बहुत कम सक्रिय रहना भी अखिलेश को फायदा पहुंचा सकता है, क्योंकि दलित समाज भी बहुत ठीक से भाजपा के साथ अपने संबंध बना पा रहा है। इसके अलावा साल 2022 के विधानसभा चुनाव में भी देखा गया कि सपा को एकतरफा मुसलमानों के वोट मिले हैं।
यही कारण है कि अब अखिलेश ऊंची ज़ातियों को छोड़कर एक बार फिर ‘माई’ फैक्टर के अलावा अति-पिछड़ों को जोड़ने में लग गए हैं।
ये कहना भी ग़लत नहीं होगा कि अखिलेश यादव की इतनी सोशल इंजीनियरिंग आने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हुए की जा रही है। क्योंकि उन्हें पता है कि पिछले दो दशकों सो भाजपा शासन कर रही है, और इनके दोनों ही काल में महंगाई, बेरोज़गारी चरम पर रही है, जिसके बाद भाजपा के ख़िलाफ ज़बरदस्त एंटी इंनकेंबेंसी भी है, तो इसका फायदा उठाने से अखिलेश पीछे नहीं रहना चाहते।
आपको याद होगा कि पिछले लोकसभा चुनाव में सपा ने बसपा के साथ गठबंधन किया था, जिसमें उसे तीन और 10 सीटें बसपा को मिली थीं। लेकिन इस बार मायावती कह चुकी हैं कि वो किसी के साथ भी गठबंधन नहीं करेंगी। अब बचे अखिलेश, तो जिस तरह से इन्होंने कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा से दूरी बनाई है, लगता नहीं कि ये भी महागठबंधन में शामिल होने के लिए तैयार होंगे, हां ये ज़रूर कहा जा सकता है कि कोई तीसरा मोर्चा बने जिसमें तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जैसे बड़े नेता हों, उसमें शामिल हो जाएं।
फिलहाल अखिलेश समेत ये सभी नेता अपने-अपने क्षेत्रों में जातीय समीकरण साधकर 2024 लोकसभा चुनावों के लिए सक्रिय हो गए हैं।
सपा कार्यकारिणी की लिस्ट:
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