क्यों दलित-बहुजन सांस्कृतिक प्रतिरोध के नायकों के ऊपर हमले किये जा रहे हैं
“आया देश बिक्रेता” गीत हाल के दिनों में सोशल मीडिया में बेहद वायरल हुआ था। इसने यू ट्यूब पर लाखों दर्शकों को बटोरने में सफलता अर्जित की है, और बिहार चुनाव प्रचार के दौरान यह इतना ज्यादा लोकप्रिय हो गया था कि कई लोगों ने इसे विपक्षी राजनीतिक दलों का गान तक कहना शुरू कर दिया था। इस गीत के केंद्र में निजीकरण की जोरदार मुखालफत छिपी हुई है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासनकाल में पागलपन की हद तक प्रोत्साहित किया गया और किस प्रकार से इसने आम लोगों के हितों के साथ समझौता करने का काम किया है।
हालाँकि निजीकरण की आलोचना पर जैसी प्रतिक्रिया देखने को मिली है वह भी काफी उग्र देखने को मिली है। विशाल और सपना जैसे कलाकारों को ऑनलाइन ट्रोल्स द्वारा जान से मार देने की धमकियाँ मिली हैं। विशाल के स्टूडियो को तहस-नहस कर दिया गया था और कई साक्षात्कारों एवं वीडियो में दोनों कलाकारों ने शिकायत की थी कि उनके उपर लगातार जातिगत टिप्पणियाँ की जा रही हैं। उन्होंने इस संबंध में पुलिस में शिकायत भी की है, जिसमें से कुछ उल्लंघनकर्ताओं के खिलाफ अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत प्रावधानों को उपयोग में लाया गया है।
लेकिन इसके साथ ही एक अन्य पहलू भी है, जो कि अपनेआप में उसी प्रकार से परेशान करने वाला और विडंबनापूर्ण है: हाल ही में विशाल और सपना को उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा एक धरना-प्रदर्शन में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था।
आज भारत के किसी भी हिस्से में निजीकरण की आलोचना करना डिस्कोर्स में आम बात है। लोकप्रिय समाचार पत्रों एवं गैर-मुख्यधारा वाली मीडिया अक्सर सार्वजनिक क्षेत्र की ईकाइयों के निजीकरण के मुद्दे को लेकर सक्रिय रही हैं। वास्तव में देखें तो इस विषय पर आम लोगों के बीच में कई दशकों से लगातार बहस जारी है, जिसके सभी पहलुओं पर कई मीडिया मंचों द्वारा इस मुद्दे पर बहस की जा रही है। सपना और विशाल के मामले में जो पहलू गौरतलब है वह यह है कि उनके द्वारा की गई सार्वजनिक नीतियों की आलोचना को ट्रोल आर्मी की तरफ से जातिवादी मिश्रण से भिड़ना पड़ रहा है, जिसे वे राज्य द्वारा दमन के लिए इस्तेमाल में लागू किये जाने वाले विचारों से हासिल करते हैं।
निश्चित तौर पर सपना और विशाल जैसे दलित-बहुजन गायक प्रतिरोध के गीतों को गाने के मामले में कोई नौसिखिये नहीं हैं। उनकी डिस्कोग्राफी में अंबेडकर मिशन के गीत जैसे कि “ये भीम दीवानों चलो”, “युद्ध नहीं बुद्ध चाहिए”, “शान से बोलो जय-जय भीम” और इस तरह के कई गीत शामिल हैं। यदि उनके गीतों की अंतर्वस्तु एवं प्रारूप पर विशेष ध्यान दें तो उनके गीत दमनकारी जातीय संरचना एवं अन्य गैर-बराबरी के खिलाफ एक प्रतिरोध की भाषा को पैदा करते दिखते हैं। अपनी गायन शैली में जिस प्रकार से वे इतिहास की कतरनों से लेकर अपने दलित-बहुजन नायकों का आह्वान करते करते हैं, उससे वे एक अनोखे जाति-विरोधी नैरेटिव को मजबूती प्रदान करते हैं। उनके द्वारा गाया गया विवादास्पद गीत, “आया देश बिक्रेता” (जिसका अर्थ हुआ “देखो देश बेचने वाला आया है”) की शुरुआत भी ऐतिहासिक कतरन से शुरू होती है। इसमें प्राचीन भारत के मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य को उधृत किया गया है, जो एक राजनीतिक एवं आर्थिक सुधारक थे और सबसे बड़े साम्राज्यों में से एक पर उन्होंने शासन किया था। अपने साम्राज्य के विस्तार के कारण चन्द्रगुप्त को अक्सर भारत को “एकजुट करने वाला” कहा जाता है। हालाँकि दक्षिणपंथी डिस्कोर्स में एकीकृत भारत के सभी विचार हिंदुत्व की धारणा के आगे गौण साबित हो जाते हैं, जिसका मकसद हिन्दुओं में शामिल सभी जातियों के साझा दुश्मन के तौर पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ एकजुट करने की रही है, और जो पारंपरिक जाति-वर्ण पदानुक्रम को बनाए रखना चाहता है। इसी के चलते जो संगठन मौजूदा शासन का समर्थन करते हैं, उनका प्राथमिक लक्ष्य सभी प्रकार असहमतियों का गला घोंटने का रहा है, जिसमें विशेष तौर पर दलित-बहुजनों की आवाज मुख्य है।
दलित-बहुजन समुदायों के लिए संगीत के क्या मायने हैं?
संगीत के मायने यहाँ पर किसी सौन्दर्य या क्षणिक सुख या एकांतवास को दूर करने वाला साधन मात्र नहीं है। यह उनके प्रतिरोध की भाषा के तौर पर भी उभरकर सामने आया है, जो कि उनकी पहचान को एक बार फिर से स्थापति करने के दावे और पुनर्परिभाषित करने से सम्बद्ध है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि दलित-बहुजन समुदायों के बीच में एक प्रतिरूप स्थापित करने में संगीत एक अहम साधन साबित हुआ है। यह गीत और संगीत ही है जिसके माध्यम से उन्होंने जाति विरोधी नैरेटिव को विकसति किया है।
इस प्रकार के प्रतिरोध उनके सामाजिक आंदोलनों की जड़ों में निहित हैं, जिसने दलित-बहुजन गरिमा को सार्वजनिक क्षेत्र में एक बार फिर से पुनर्जीवित किया है। महाराष्ट्र में संभाजी भगत ने अंबेडकर जलसे के संगीत कार्यक्रमों में प्रतिरोध के गीतों को तैयार किया, जिसमें दलित-बहुजन प्रतीकों का सम्मान किया जाता रहा है। सांस्कृतिक तौर पर समुदाय के महत्वपूर्ण अवसरों पर उनका प्रदर्शन एक लोकप्रिय पहलू रहता आया है। इसी प्रकार से अपनी सांस्कृतिक दावेदारी को हासिल करने के प्रयासों की शुरुआत पा. रंजित द्वारा चेन्नई-आधारित तमिल-इंडी दल कास्टलेस कलेक्टिव जैसे समूहों द्वारा शुरू की गई थी।
उत्तर भारत में यूथ फॉर बुद्धिस्ट इंडिया जैसे स्वतंत्र कलाकर्मियों एवं जाति-विरोधी सांस्कृतिक समूहों की शुरुआत स्वर्गीय शांति स्वरुप बौद्ध द्वारा की गई थी, जो सांस्कृतिक प्रतिरोध के प्रतीकों के तौर पर संगीतमय प्रस्तुति एवं प्रदर्शनों में शामिल रहे। यह प्रथा बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक और दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस4) कांशीराम तक जाती है। डीएस4 ने कई भाषाओँ और क्षेत्रों के गायकों को एक स्थान पर लाने का काम किया था। उन्होंने जाति-विरोधी डिस्कोर्स की खातिर संघर्ष किया था, जिसने दलित-बहुजनों को सामाजिक-राजनीतिक आवाज देने के साथ सम्मान दिलाने का काम किया।
पंजाब में डीएस4 के गायक हरनाम सिंह बहेलपुरी का एल्बम जारी करते हुए कांशीराम।
समय के साथ-साथ उत्तर भारत में मौजूद लोक प्रथाओं एवं संगीत की लोकप्रिय शैलियों के प्रारूप और अंतर्वस्तु में बदलाव हो चुका है। बिरहा, रागिनी, आल्हा और लारीचंद जैसी लोक विधाओं ने राजनीतिक स्थानों पर भी अपनी जड़ें जमानी शुरू कर दी थीं जो अपनेआप में किसी क्रांति से कम नहीं, क्योंकि आमतौर पर सांस्कृतिक कर्म को एक गैर-पारंपरिक क्षेत्र के तौर पर देखा जाता रहा है। संगीत प्रथा में इस बदलाव ने दलित-बहुजन समुदायों के नए सामाजिक-राजनीतिक दावों को परिलक्षित किया है। ये सांस्कृतिक स्थान महिलाओं के लिए विशेष तौर पर महत्वपूर्ण साबित हुए हैं, जो इस प्रकार के सामुदायिक कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदार के तौर पर उपस्थित रही हैं।
संगीत प्रथा का सामाजिक इतिहास बेहद अहम है क्योंकि सांस्कृतिक कलाकृतियाँ दलित-बहुजनों के लिए क्या मायने रखती हैं यह उसे दर्शाता है। उनके संगीत का रिवाज उन्हें भीतर से शांत रहने का अहसास दिलाती हैं, जिससे उन्हें अपनी पहचान और गरिमा को स्थापित करने में मदद मिलती है।
असहमति? या संस्कृति?
सांस्कृतिक सिद्धांतकार स्टुअर्ट हाल तर्क पेश करते हैं कि संस्कृति एक विवादित स्थल है, इसका कोई तयशुदा अस्तित्व नहीं है। बल्कि यह “बनने की” प्रक्रिया को दर्शाता है। दलित-बहुजन संस्कृति अक्सर “मुख्यधारा” की संस्कृति के भीतर सिमट कर रह जाती है या कुचल दिया जाता है, भुला दिया जाता है। इसलिए उनकी संगीत परंपरा में जाति-विरोधी सामाजिक चेतना का तत्व अंतर्निहित है। दलित पैंथर से लेकर डीएस4 तक में इसने अपने विस्थापित नैरेटिव को दोबारा से केंद्र में रखने का काम किया है।
असहमति को मात्र सांस्कृतिक प्रदर्शनों की एक विशेषता के तौर पर कमतर आँककर नहीं देखा जा सकता है, लेकिन यह भी सच है कि इस असहमति को सन्दर्भ में देखने की आवश्यकता है। दलित-बहुजन गीतों में असहमति एक वैकल्पिक भूमिका के दावे के तौर पर है, जो उनके अनकहे इतिहास को एक नैरेटिव प्रदान करता है। उदाहरण के लिए भीमगीत या मिशन गीतों में अक्सर इतिहास को संदर्भित करने पर जोर दिया जाता है। जरा आल्हा-ऊदल जैसे लोकप्रिय लोक शैली पर विचार करें, एक ऐसी संगीत परंपरा जो उत्तरप्रदेश के फैजाबाद क्षेत्र में लोकप्रिय है। इसमें में कहानी-कहने की परंपरा शामिल है, और नायकों के जीवन वृत्तांत का वर्णन करने को लेकर इसमें प्राथमिकता दी जाती है। एक आल्हा में तो नैरेटिव तकनीक के तौर पर इसके नायकों के बारे में छोटी-छोटी बातों पर भी बेहद सटीक चर्चा की गई है। जैसे-जैसे इस क्षेत्र में जाति-विरोधी आन्दोलन जोर पकड़ता गया, पारम्परिक आल्हा-ऊदल गायन के स्थान पर आल्हा गायन में बाबासाहेब अंबेडकर और कांशीराम शामिल हो चुके हैं। यह बदलाव एक प्रकार से वर्चस्ववादी सांस्कृतिक प्रथा के खिलाफ असहमति का प्रतीक है जिसने दलित-बहुजन इतिहास पर ग्रहण लगा रखा है।
असहमति को मात्र सांस्कृतिक प्रदर्शनों की एक विशेषता के तौर पर कमतर आँककर नहीं देखा जा सकता है, लेकिन यह भी सच है कि इस असहमति को सन्दर्भ में देखने की आवश्यकता है। दलित-बहुजन गीतों में असहमति एक वैकल्पिक भूमिका के दावे के तौर पर है, जो उनके अनकहे इतिहास को एक नैरेटिव प्रदान करता है। उदहारण के लिए भीमगीत या मिशन गीतों में अक्सर इतिहास को संदर्भित करने पर जोर दिया जाता है। जरा आल्हा-उदल जैसे लोकप्रिय लोक शैली पर विचार करें, एक ऐसी संगीत परंपरा जो उत्तरप्रदेश के फैजाबाद क्षेत्र में लोकप्रिय है। इसमें में कहानी-कहने की परंपरा शामिल है, और नायकों के जीवन वृत्तांत का वर्णन करने को लेकर इसमें प्राथमिकता दी जाती है। एक आल्हा में तो नैरेटिव तकनीक के तौर पर इसके नायकों के बारे में छोटी-छोटी बातों पर भी बेहद सटीक चर्चा की गई है। जैसे जैसे इस क्षेत्र में जाति-विरोधी आन्दोलन जोर पकड़ता गया, पारम्परिक आल्हा-उदल गायन के स्थान पर आल्हा गायन में बाबासाहेब अंबेडकर और कांशीराम शामिल हो चुके हैं। यह बदलाव एक प्रकार से वर्चस्ववादी सांस्कृतिक प्रथा के खिलाफ असहमति का प्रतीक है जिसने दलित-बहुजन इतिहास पर ग्रहण लगा रखा है।
सांस्कृतिक असहमति एवं भगवाकरण
विशाल गाज़ीपुरी और सपना बौध की गिरफ्तारी के साथ ऐसा लगता है कि सांस्कृतिक असहमति के लिए आगे की राह आसान नहीं रहने वाली है। हालाँकि यह कोई पहली बार नहीं है जब दलित-बहुजन असहमति को इस ब्राह्मणवादी राज्य के प्रकोप का सामना करना पड़ा हो। अपने शुरूआती 1980 के दशक के दौरान भी डीएस4 के गायकों को सार्वजनिक प्रदर्शनों के दौरान जातिसूचक गाली-गलौज का सामना करना पड़ा था।
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने “क्रांति और प्रति-क्रांति” में लिखा था कि जब बौद्ध धर्म अपने उठान पर था तो प्राचीन इतिहास में क्रांतिकारी आवेग का अनुभव किया गया था, जिसने ब्राह्मणवादी समाज के शिकंजों को ख़ारिज कर दिया था। हालाँकि इस क्रांति को कट्टर ब्राह्मणवादी शक्तियों द्वारा बुरी तरह से कुचल दिया गया था। वर्तमान दौर में इतिहास का वह काल मानो खुद को दुहरा रहा है, वह भी भगवाकरण के एक नए झण्डे तले।
दुर्भाग्यवश आज सांस्कृतिक पहलकदमी और असहमति को “राजद्रोह” के तौर पर सीमित किया जा रहा है और इसे ट्रोल आर्मी और खतरों का सामना करना पड़ रहा है। विडंबना यह है कि जहाँ एक ओर भगवाकरण के पक्षकार यह दावा करते नहीं थकते कि वे “अखण्ड भारत” के निर्माण में लगे हैं, वहीं उनकी कल्पनाओं में दलित-बहुजनों के अपने खुद के इतिहास और सांस्कृतिक विरासत के दावों के लिए कोई स्थान नहीं है या उसे दण्डित किया जाता है। आज ब्राहमणवादी ताकतें हर असहमति की आवाजों के खिलाफ घृणा फैलाने का काम कर रही हैं, यहाँ तक कि उनके खिलाफ भी जिन्हें ऐतिहासिक तौर पर समाज के तलछट पर निर्वासित करके रखा गया है।
कल्याणी ,सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ सोशल सिस्टम्स, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली की पीएचडी स्कॉलर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
Why Dalit-Bahujan Icons of Cultural Resistance are Under Attack
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