क्यों भारत को आई2यू2 से खुद को अलग कर लेना चाहिए
भारतीय कूटनीति अपने उदात्त स्वरुप से विवेकशून्य स्तर पर गिरती जा रही है। इस प्रकार के पागलपन भरे उतार-चढाव धुर अवसरवाद के संकेत देते हैं। ये अपनेआप में एक असाधारण समय है जब चतुर-चालाक होना अवसरवादी होने के समान है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिल्ली में ईरानी विदेश मंत्री आमिर-अब्दुल्लाहियान की अगवानी किये हुए बमुश्किल से अभी एक हफ्ता ही बीता होगा जिसमें उनके द्वारा भारत-ईरान संबंधों के बारे में बड़ी-बड़ी उम्मीदें व्यक्त की गई थीं। वहीँ अब इस बात का खुलासा हो रहा है कि ईरान को “नियंत्रित करने” के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के नेतृत्व में गठित आई2यू2 नामक एक नए मंच में गैंग ऑफ़ फोर के तौर पर भारत भी उसका एक हिस्सा है – जिसमें ‘आई’ का आशय भारत और इजराइल से है, और ‘यू’ का आशय अमेरिका और संयुक्त अरब अमीरात से है।
जुलाई के मध्य में बाइडेन, इसरायली प्रधान मंत्री बेनेट, मोदी और अमीरात के राष्ट्रपति मोहम्मद बिन ज़ायेद के बीच में होने वाली आई2यू2 शिखर वार्ता पश्चिम एशिया की भू-राजनीति में एक मील का पत्थर साबित होने जा रही है। यह नया क्वाड पहली दफा 18 अक्टूबर 2021 को विदेश मंत्री जयशंकर की 5 दिवसीय इजराइल की यात्रा में तब नतीजे के रूप में देखने को मिला, जब तेल अवीव में उन्होंने अपने जादुई झोले से एक खरगोश बाहर निकाला, जिससे भारतीय जनमानस पूरी तरह से भौंचक्का रह गया था कि उनके आवेश में काम करने वाले मंत्री इस बार किस प्रकार की नई धमाचौकड़ी में लिप्त हो गये हैं।
अक्टूबर और इस साल जुलाई के बीच में, आई2यू2 को विदेश मंत्री से लेकर प्रधान मंत्री/राष्ट्रपति के स्तर पर अपग्रेड किया जा रहा है। मंगलवार को, जबकि राष्ट्रपति के तौर पर बाइडेन के द्वारा जुलाई के मध्य में पहली बार पश्चिम एशिया के दौरे की घोषणा करते हुए, वाशिंगटन ने इजराइल और सऊदी अरब की सुविचारित यात्राओं को शुरू करने के लिए बाइडेन के इरादों को तार्किक आधार देने के लिए कुछ प्रयास किये हैं। एक वरिष्ठ व्हाईट हाउस अधिकारी ने बाइडेन के इरादे का खुलासा कुछ इस प्रकार से किया है:
.“विभिन्न देशों को एक साथ लाने के लिए अमेरिकी नेतृत्व की वापसी” को प्रदर्शित करने के लिए;
..“नए ढांचे को निर्मित करने का कार्य, जिसका उद्येश्य अद्वितीय अमेरिकी क्षमताओं का दोहन करना है ताकि सभी साझेदारों को एक साथ मिलकर काम करने के लिए अधिक से अधिक सक्षम बनाया जा सके, जो कि दीर्घावधि के लिए पहले से अधिक सुरक्षित, समृद्ध और स्थिर मध्य पूर्व क्षेत्र के लिए आवश्यक है।”;
.“विएना में आईएईए बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स में “पिछले सप्ताह ईरान को अलग-थलग करने के लिए शानदार मतदान का निर्माण करने के लिये जहाँ 30 देशों ने ईरान के द्वारा सुरक्षा दायित्यों के अनुपालन में कमी की आलोचना की” (जहाँ देखा जाए तो भारत ने अमेरिकी प्रस्ताव का समर्थन करने के बजाय खुद को मतदान प्रकिया से अनुपस्थित रखा था);
.“यह सुनिश्चित करने के लिए कि हम इजराइल की सुरक्षा, समृद्धता और वृहत्तर क्षेत्र में एकीकरण को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए अभी और लंबी अवधि तक के लिए हम सब कुछ कर रहे हैं”;
अब्राहम समझौते से इतर नए प्रारूपों के जरिये “इस क्षेत्र में इजराइल के बढ़ते एकीकरण पर ध्यान केंद्रित करना”, जैसे कि “साझीदारों के पूरी तरह से नए समूहों को तैयार करने का काम… जिसे हम आई2यू2 कहते हैं”!
तो कुल मिलाकर यह खिचड़ी पक रही है। अब्राहम समझौते में जो कमी-बेशी रह गई थी उसे पूरा करने के लिए भारत अब अमेरिका की मदद के लिए हाथ आगे बढ़ायेगा। और देशों के अब्राहम समझौते में शामिल होने की संभावना अब लगातार क्षीण होती जा रही है। इजराइल को इसके पड़ोस में स्थित संभावित प्रस्तावकों के सामने प्रदर्शित करने की जरूरत है। मूल रूप से कहें तो आई2यू2 एक डेटिंग एजेंसी के तौर पर है। जब कभी यह इजराइल की बात करता है, तो दलाल की भूमिका स्वाभाविक रूप से अमेरिकी राष्ट्रपतियों के पास आ जाती है। लेकिन भारत क्यों अपने सॉफ्ट पॉवर की ऐसी-तैसी करने में लगा हुआ है, यह समझ से बाहर है।
पश्चिमी एशिया में अमेरिका की प्रतिष्ठा और प्रभाव को बाइडेन के राष्ट्रपतित्व काल में जोरदार झटका पहुंचा है। अभी ज्यादा वक्त नहीं बीता है जब बाइडेन ने सऊदी अरब को एक “घृणित” बता दिया था और इनके मानवाधिकारों के रिकॉर्ड के आधार पर इसका एक भयानक उदाहरण बनाने का संकल्प लिया था। लेकिन जूता अब दूसरे पाँव में नजर आ रहा है। आज के दिन बाइडेन सऊदी अरब का ध्यान आकर्षित करने के लिए तरस रहे हैं। उन्होंने दूसरा संकल्य यह लिया था कि वे शक्तिशाली सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान से साथ किसी प्रकार के सौदे में नहीं जाने वाले हैं। लेकिन आज वे घमंडी प्रिंस का दर्शन पाने के लिए गुहार लगा रहे हैं। हाल के दिनों में उनके फोन कॉल का कोई जवाब नहीं दिया गया था।
व्हाईट हाउस के अधिकारीगण ने बाइडेन के यू-टर्न को इस प्रकार से परिभाषित किया है: “सऊदी अरब के साथ हमारे कई महत्वपूर्ण हित जुड़े हुए हैं, और उन हितों को अमेरिकी जनता के पक्ष में सुरक्षित रखने और आगे बढ़ाने के लिए यह जुड़ाव निहायत जरुरी है।” जबकि सच्चाई यह है कि बाइडेन को अपमान का घूंट पीने के लिए मजबूर होना पड़ा है और पेट्रोडॉलर पर आधारित अमेरिकी-सऊदी संबंधों के पुराने सांचे को एक बार फिर से पुनर्जीवित करने की जरूरत आन पड़ी है।
चुनावी रेटिंग जहाँ लगातार गिरती जा रही है, वहीँ बाइडेन के सामने अमेरिकी अर्थव्यस्था में बढ़ती महंगाई को काबू में बनाये रखने की बैचेनी खाए जा रही है, और तेल की बढ़ती कीमत आमजन के भीतर असंतोष को हवा दे रही है। सऊदी अरब चाहे तो बाइडेन को इस स्थिति से उबारने में मदद कर सकता है।
हालाँकि, बाजी इस समय सऊदी के हाथ में है कि वह अमेरिकियों को बताये कि दुनिया में मुफ्त में भोजन जैसी कोई चीज नहीं है। वे इस आशय की एक लिखित संधि चाहते हैं कि जब कभी भी मुश्किल की घड़ी आने पर राज्य या शासक परिवार यदि खुद को असुरक्षित महसूस करे तो उस समय अमेरिका उन्हें धोखा नहीं देगा। दूसरे शब्दों में कहें तो वे चाहते हैं कि अमेरिकी पहले की भांति उनके रोमन सुरक्षा गार्ड के रूप में कार्य करें।
बदले में, निश्चित रूप से, सऊदी अमेरिकी सैन्य-औद्योगिक परिसर के लिए बड़े पैमाने पर व व्यवसाय के अवसर पैदा करेंगे, पश्चिमी बैंकिंग प्रणाली को मजबूती प्रदान करने के लिए अपने पेट्रोडॉलर को फिर से चलायमान करेंगे, और अमेरिकी कंपनियों के लिए आकर्षक व्यवसाय के मौके को निर्मित करेंगे। संक्षेप में कहें तो महामारी के पश्चात से संकटग्रस्त पश्चिमी अर्थव्यस्था को आगे बढ़ाने में मदद करेंगे, जो कि यूक्रेन में युद्ध के कारण पटरी से उतर चुकी है, में भारी मदद पहुंचा सकता है।
यकीनन इस बात में कोई शक नहीं कि सऊदी का प्रशासन में मौजूद पेंटागन और कांग्रेस में अमेरिकी अभिजात वर्ग की हथेली को बड़े पैमाने चिकना रखने का एक समृद्ध इतिहास रहा है। संक्षेप में कहें तो, बेल्टवे में एक घाघ ऑपरेटर के तौर पर बाइडेन को अच्छे से पता है कि ब्रेड के किस तरफ मक्खन लगा हुआ है।
लेकिन उनके इस यू-टर्न को न्यायोचित ठहराने के लिए एक बहाने की दरकार है। इसी को ध्यान में रखते हुए, बाइडेन ने “ईरानी खतरे” की पताका को अमेरिकी-सऊदी सुरक्षा गठबंधन के बहाने के तौर पर फहराने का फैसला किया है। सारे संकेत इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि बाइडेन ने जेसीपीओए को नष्ट करने वाली सऊदी की मांग को स्वीकार कर लिया है और ईरान के खिलाफ नए प्रतिबंधों का ढेर लगा लिया है। यह दूसरी बात है कि विएना में चल रही वार्ता अपने अंतिम मुकाम पर है और इस पर एक समझौता होने की देर भर है।
बाइडेन का पश्चिमी एशिया का एजेंडा पूरी तरह से अमेरिका केंद्रित है, जिसका उद्येश्य अमेरिकी व्यापारिक हितों को सुरक्षित रखने और इसके क्षेत्रीय प्रभाव को बढ़ाने को लेकर है। इजराइल, निश्चित रूप से इसके लिए “पवित्र गाय” के रूप में है। जल्द ही बाइडेन 2024 में अपने फिर से निर्वाचन के लिए फंड जुटाने की मुहिम की शुरुआत करेंगे, और इस मामले में यहूदी दानदाता सच में बेहद उदार हैं।
इसके बावजूद सबसे बड़ा सवाल यह बना हुआ है कि: बाइडेन के एजेंडे से भारत को क्या हासिल होने जा रहा है? यहाँ पर वास्तविक खतरा इस बात का बना हुआ है, कि उपकथानक में बाइडेन इस उम्मीद में हैं कि ईरान के साथ अपने बिगड़ चुके रिश्ते को पुनर्जीवित करने की भारत की योजना को विफल कर दिया जाये। निश्चित ही ईरानी विदेश मंत्री की हालिया भारत यात्रा ने वाशिंगटन और तेल अवीव में खतरे की घंटी बजा दी होगी।
मोदी जैसे नेताओं जिनकी यदा कदा अमेरिकी निर्देशों की हुक्मउदुली की प्रवृत्ति बनी हुई है, के लिए बाइडेन के पास एक गेम प्लान मौजूद है। इस बारे में बाइडेन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवान ने अगले ही दिन बिना किसी लाग-लपेट के यह कहा था:
“हम यहाँ पर लंबी पारी खेलने आये हैं। हम एक ऐसे रिश्ते में निवेश (भारत के साथ) कर रहे हैं, जिसे हम किसी एक मुद्दे के आधार पर नहीं तय करने जा रहे हैं, भले ही वह मुद्दा कितना भी अहम क्यों न हो। इसके बजाय हम लंबे समय में तैयार होने वाले निर्णय का इंतजार करेंगे, क्योंकि हम दोनों देशों के सामने पेश प्रमुख रणनीतिक प्रश्नों के जुड़ाव वाले बिंदुओं पर काम करने की कोशिश में जुटे हुए हैं।
“उन प्रश्नों में से एक यह है कि - चीन के द्वारा पेश की गई चुनौती से कैसे निपटा जाये– इस बारे में आज पहले से कहीं अधिक अभिशरण के बिंदु हैं, और अमेरिकी विदेश नीति के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण है। जहाँ तक रूस का प्रश्न है, तो यह पूरी तरह से जग-जाहिर है कि इस बारे में हमारे पास इस बारे में अलग-अलग ऐतिहासिक दृष्टिकोण है, भिन्न मांसल यादें जुडी हुई हैं। लेकिन हमें पूरा विश्वास है कि फिलवक्त हम भारत के साथ जिस प्रकार के संवाद में जा रहे हैं, वह समय पर जरुर फलदायी होगा।”
सुलिवान रूस के साथ भारत के पुख्ता रिश्तों के बारे में चर्चा कर रहे थे कि कैसे वाशिंगटन को उम्मीद है कि समय के साथ इसे मिटाने और खत्म करने की उम्मीद है।
सरल शब्दों में कहें तो, अमेरिकी अनुमान के मुताबिक भारतीयों के पास कोई “स्थिर बने रहने की शक्ति”, या “बड़ी तस्वीर” नहीं है। संभवतः उनके उनुमान में भारतीय सरकार अपनी अंतर्राष्ट्रीय छवि को चमकाने के चक्कर में आई2यू2 के मंच को हाथों-हाथ लेने को लालायित है। लेकिन यदि भारतीय विदेश नीति प्रतिष्ठान में रत्ती-भर भी समझदारी बची है, तो अमेरिकी एवं इसरायली हितों की सेवा करने के लिए एक अधीनस्थ वाली भूमिका से पश्चिम एशिया में भारत की प्रतिष्ठा में कोई सुधार नहीं होने जा रहा है। इसके पीछे की वजह यह है कि मोदी सरकार को यहाँ पर धार्मिक कट्टरपंथियों द्वारा समर्थित इस्लामोफोबिक शासन के तौर पर समझा जाता है।
व्यक्तियों और राष्ट्रों के लिए समान रूप से उनके जीवन में एक ऐसा भी क्षण आता है जब किसी को “ना” कहना सीखना पड़ता है। 78 वर्षीय बूढ़े बाइडेन का यह स्वार्थी, कुटिल प्रस्ताव भी ऐसा ही एक क्षण है। यही वजह है कि बाइडेन के आमन्त्रण को ठुकरा पाने की शून्य संभावना के बावजूद, यदि मोदी से आई2यू2 को “न” कहने की गुजारिश न करना अपनेआप में एक गंभीर चूक होगी।
साउथ ब्लॉक अपनी मूर्खता की गंभीरता को लगातार कम करके आंकने की गलती कर रहा है। भारत ने आज तक कभी भी पश्चिम एशिया में अंतर-क्षेत्रीय मसलों में खुद को नहीं फंसाया है। ना ही इसने कभी भी अतिरिक्त-क्षेत्रीय शक्तियों के प्रतिनिधि के तौर पर काम नहीं किया है। सबसे महत्वपूर्ण, इसने कभी किसी क्षेत्रीय राज्य को “नियंत्रित” रखने की मांग नहीं की है। यही कारण है कि इसने फारस की खाड़ी की दरारों वाले पानी में हर बार अपने मस्तक को शान से ऊँचा बनाये रखा है।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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